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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,प्राजापत्या गायत्री, स्वरः - धैवतः, षड्जः
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    सु॒वीरो॑ वी॒रान् प्र॑ज॒नय॒न् परी॑ह्य॒भि रा॒यस्पोषे॑ण॒ यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒नो दि॒वा पृ॑थि॒व्या शु॒क्रः शु॒क्रशो॑चिषा॒ निर॑स्तः॒ शण्डः॑ शु॒क्रस्या॑धि॒ष्ठान॑मसि॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। वी॒रान्। प्र॒ज॒नय॒न्निति॑ प्रऽज॒नय॑न्। परि॑। इ॒हि॒। अ॒भि। रा॒यः। पोषे॑ण। यज॑मानम्। स॒ञ्ज॒ग्मा॒न इति॑ सम्ऽजग्मा॒नः। दि॒वा। पृ॒थि॒व्या। शु॒क्रः। शु॒क्रशो॑चि॒षेति॑ शु॒क्रऽशो॑चिषा। निर॑स्त॒ इति॒ निःऽअ॑स्तः। शण्डः॑। शु॒क्रस्य॑। अ॒धि॒ष्ठान॑म्। अ॒धि॒स्थान॒मित्य॑धि॒ऽस्थान॑म्। अ॒सि॒ ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुवीरो वीरान्प्रजनयन्परीह्यभि रायस्पोषेण यजमानम् । सञ्जग्मानो दिवा पृथिव्या शुक्रः शुक्रशोचिषा निरस्तः शण्डः शुक्रस्याधिष्ठानमसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुवीर इति सुऽवीरः। वीरान्। प्रजनयन्निति प्रऽजनयन्। परि। इहि। अभि। रायः। पोषेण। यजमानम्। सञ्जग्मान इति सम्ऽजग्मानः। दिवा। पृथिव्या। शुक्रः। शुक्रशोचिषेति शुक्रऽशोचिषा। निरस्त इति निःऽअस्तः। शण्डः। शुक्रस्य। अधिष्ठानम्। अधिस्थानमित्यधिऽस्थानम्। असि॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 13
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    भावार्थ -

    हे वीर पुरुष ! तू (सुवीरः) उत्तम वीर होकर और ( वीरान् ) और वीर पुरुषों को उत्पन्न करता हुआ ( परि इहि ) राष्ट्र से परे, दूर देशों में जा । और ( रायः पोषेण ) धन ऐश्वर्य की समृद्धि सहित ( यजमानम् ) अपने दानशील वृत्तिदाता राजा को ( अपि इहि ) प्राप्त हो। इस प्रकार ( दिवा ) सूर्य और ( पृथिव्या ) पृथिवी से ( संजग्मानः ) सदा संगति लाभ करते हुए ( शुक्रः ) तेजस्वी सूर्य के समान ( शुक्रशोचिषा ) शुद्ध कान्ति से युक्त होकर विराजमान हो। इस प्रकार से राज्य के भीतर ( शण्डः ) बलवान् वीर पुरुष भी ( निरस्तः ) देश से बाहर कर दिया जाय । हे राजन् ! तू स्वयं ( शुक्रस्य ) तेजस्वी सूर्य का ( अधिष्ठानम् असि ) अधिष्ठान, परम पद है । शत० ४ । २ । १ । १६ ॥ 
    योगी के पक्ष में - उत्तम वीर के समान योगी वीर्यवान् गुणों को उत्पन्न करके ऐश्वर्य से युक्त हो, शुद्धकान्ति से (निरस्त:) विषय वासनारहित, शान्त होकर वीर्य का आश्रय बने ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    विश्वदेवाः देवता: । ( १ ) निचृदाषी त्रिष्टुप् । धैवतः । ( २ ) प्राजापत्या- 
    गायत्री, षड्जः ॥ 

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