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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 27
    ऋषिः - देवश्रवा ऋषिः देवता - यज्ञपतिर्देवता देवता छन्दः - आसुरी अनुष्टुप्,आसुरी उष्णिक्,साम्नी गायत्री,आसुरी गायत्री स्वरः - ऋषभः, षड्जः
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    प्रा॒णाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व व्या॒नाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्वोदा॒नाय॑ मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व वा॒चे मे॑ वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ क्रतू॒दक्षा॑भ्यां मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ श्रोत्रा॑य मे वर्चो॒दा वर्च॑से पवस्व॒ चक्षु॑र्भ्यां मे वर्चो॒दसौ॒ वर्च॑से पवेथाम्॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्च॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। वा॒चे। मे॒। व॒र्चो॒दा इति वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। क्रतू॒दक्षा॑भ्याम्। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। श्रोत्रा॑य। मे॒। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। वर्च॑से। प॒व॒स्व॒। चक्षु॑र्भ्या॒मिति॒ चक्षुः॑ऽभ्याम्। मे॒। व॒र्चो॒दसा॒विति॑ वर्चः॒ऽदसौ॑। वर्च॑से। प॒वे॒था॒म् ॥२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणाय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व व्यानाय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व उदानाय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व वाचे मे वर्चादा वर्चसे पवस्व क्रतूदक्षाभ्याम्मे वर्चादा वर्चसे पवस्व श्रोत्राय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व चक्षुर्भ्याम्मे वर्चादसौ वर्चसे पवेथाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणाय। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। व्यानायेति विऽआनाय। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। उदानायेत्युत्ऽआनाय। मे। वर्चोदा इति वर्चऽदाः। वर्चसे। पवस्व। वाचे। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। क्रतूदक्षाभ्याम्। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। श्रोत्राय। मे। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। वर्चसे। पवस्व। चक्षुर्भ्यामिति चक्षुःऽभ्याम्। मे। वर्चोदसाविति वर्चःऽदसौ। वर्चसे। पवेथाम्॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 27
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    भावार्थ -

     अब राजा अपने अधीन नियुक्त पुरुषों को अपने राष्ट्र रूप शरीर के अंग मान कर इस प्रकार कहता है । जिस प्रकार प्राण शरीर में मुख्य है, वह परम आत्मा से उतर कर है, उसी प्रकार आत्मा के समान राजा के समीप का पद ‘उपांशु' कहा है । है उपांशु ! उपराज ! हे सभाध्यक्ष ! तु. वर्चोदाः ) वर्चस, तेज का देने वाला है तू ( मे ) मेरे ( प्राणाय ) शरीर में प्राण के समान राष्ट्र में मुख्य कार्य के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर ! हे (वर्चोदा:) मुझे बल देने वाले ! या बल की रक्षा करने वाले ! तू ( व्यानाय ) शरीर में व्यान के समान मेरे राष्ट्र में व्यापक प्रबन्ध के ( वर्चसे ) बल, तेज की वृद्धि के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर | हे ( वर्चोदाः ) बल और अन्त नियन्त्रण के अधिकारी पुरुष ! ( मे उदानाय वर्चसे ) शरीर में उदान वायु समान, आक्रमणकारी बल की वृद्धि के लिये तू उद्योग कर। है ( वर्चोदाः ) ज्ञान रूप तेज के प्रदान करने हारे। उस वायु पद के अधिकारी विद्वान् पुरुष ! तू (मे वाचे वर्चसे ) शरीर में वाणी के समान वेदज्ञान रूप मेरे तेज की वृद्धि के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर। हे ( वर्चोदाः ) तेज और बलप्रद मित्रावरुण पद के अधिकारी पुरुष ! तू ( क्रतुदक्षाभ्यां ) ज्ञान वृद्धि और बल वृद्धि और (वर्चसे ) तेज की वृद्धि के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर । ( वर्चोदाः ) बलप्रद 'आश्विन पद के अधिकारी पुरुष ! तू मे ( श्रोत्राय वर्चसे ) शरीर में श्रोत्र के समान राष्ट्र में परस्पर एक दूसरे के दुःख सुख श्रवण करने रूप तेज की वृद्धि के लिये ( पवस्व ) उद्योग कर। हे ( वर्चो- दसौ ) तेज के देने हारे शुक्र और मन्थी पद के अधकारी पुरुषो ! तुम दोनों (चक्षुर्भ्याम् ) शरीर में आंखों के समान कार्य करने वाले अधिकारियों के ( वर्चसे ) बल वृद्धि करने के लिये (पवेथाम् ) उद्योग करो।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    यज्ञपतिर्देवता । ( १, २)आसुर्यनुष्टुभौ । गान्धारः । ( ३ ) आसुर्यष्णिक् । 
    ऋषभः । ( ४ ) साम्नी गायत्री षड्जः । ( ५ ) आसुरी गायत्री । षड्जः । ( ६ ) आसुर्यनुष्टुप् । गान्धारः । ( ७ ) आसुर्युष्णिक् । ऋषभ: ॥ 

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