यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 14
ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - विराट जगती,
स्वरः - निषादः
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अच्छि॑न्नस्य ते देव सोम सु॒वीर्य॑स्य रा॒यस्पोष॑स्य ददि॒तारः॑ स्याम। सा प्र॑थ॒मा सँस्कृ॑तिर्वि॒श्ववा॑रा॒ स प्र॑थ॒मो वरु॑णो मि॒त्रोऽअ॒ग्निः॥१४॥
स्वर सहित पद पाठअच्छि॑न्नस्य। ते॒। दे॒व॒। सो॒म॒। सु॒वीर्य्य॒स्येति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑स्य। रा॒यः। पोष॑स्य। द॒दि॒तारः॑। स्या॒म॒। सा। प्र॒थ॒मा। संस्कृ॑तिः। वि॒श्ववा॒रेति॑ वि॒श्वऽवा॑रा। सः। प्र॒थ॒मः। वरु॑णः। मि॒त्रः। अ॒ग्निः ॥१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम । सा प्रथमा सँस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अच्छिन्नस्य। ते। देव। सोम। सुवीर्य्यस्येति सुऽवीर्य्यस्य। रायः। पोषस्य। ददितारः। स्याम। सा। प्रथमा। संस्कृतिः। विश्ववारेति विश्वऽवारा। सः। प्रथमः। वरुणः। मित्रः। अग्निः॥१४॥
विषय - राजा की उच्च स्थिति, पक्षान्तर में ईश्वर और आचार्य का वर्णन ।
भावार्थ -
हे ( देव सोम ) प्रकाशमान सबके प्रेरक राजन् ! ( सुवीर्य- स्य ते) उत्तम वीर्यवान् तेरे ( अच्छिन्नस्य ) अच्छिन्न, अटूट, अक्षय रायः पोषस्य ) धनैश्वर्य की समृद्धि के हम प्रजाजन ( ददितार: ) देनेवाले ( स्याम ) हों । ( सा ) वह राजशक्ति ही ( विश्ववारा ) समस्त राष्ट्र की रक्षा करनेवाली ( प्रथमा संस्कृतिः ) सबसे उत्कृष्ट रचना है । ( सः ) इस प्रकार का बनाया हुआ राजा ( प्रथमः ) सबसे उत्तम, प्रजा का रक्षक, ( मित्रः ) सर्वोत्तम प्रजा का स्नेही और ( प्रथमः अग्निः ) सर्वोत्तम अग्रणी नेता है । शत० ४ । २ । १ । २१ ॥
शिष्याध्यापक पक्ष में- हे शिष्य ! उत्तम वीर्यवान् अखण्ड ब्रह्मचारी को हम ज्ञान ऐश्वर्य के देनेवाले हों। यह शिक्षा सर्व श्रेष्ठ सबको एवं स्वीकार करने योग्य हैं। हम में से तुझे पाप से वारक अग्नि आचार्य तेरे मित्र के समान स्न्नेही है ।
ईश्वर के पक्ष में- हे देव सोम ! परमेश्वर ! महान् वीर्यवान् (अच्छि नमस्य ) अखण्ड ऐश्वर्य के परिपोषक तेरे हम सदा ( ददितारः ) देनेवाले, देनदार, ऋणी रहें । वही परमेश्वरी शक्ति सबसे उत्तम संस्कृति है, जो सबकी रक्षा करती है । वह परमेश्वर ही सब से श्रेष्ठ प्रथम, आदि मूल वरुण मित्र और अग्नि है ।
टिप्पणी -
१४ - सोमो देवता । सर्वा० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
विश्वेदेवाः देवताः । स्वराड् जगती । निषादः ॥
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