यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 10
ऋषिः - अग्निर्ऋषिः
देवता - सूर्यो देवता
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
78
उद्व॒यन्तम॑स॒स्परि॒ स्वः पश्य॑न्त॒ऽ उत्त॑रम्।दे॒वं दे॑व॒त्रा सूर्य॒मग॑न्म॒ ज्योति॑रुत्त॒मम्॥१०॥
स्वर सहित पद पाठउत्। व॒यम्। तम॑सः। परि॑। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। पश्य॑न्तः। उत्त॑र॒मित्यु॑त्ऽत॑रम्। दे॒वम्। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। सूर्य॑म्। अग॑न्म। ज्योतिः॑। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम् ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्तऽउत्तरम् । देवन्देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उत्। वयम्। तमसः। परि। स्वरिति स्वः। पश्यन्तः। उत्तरमित्युत्ऽतरम्। देवम्। देवत्रेति देवऽत्रा। सूर्यम्। अगन्म। ज्योतिः। उत्तममित्युत्ऽतमम्॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरोपासनाविषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा वयं तमसः पृथग्भूतं ज्योतिः सवितृमण्डलं पश्यन्तः स्वरुत्तरं देवत्रोत्तमं सूर्यं जगदीश्वरं देवं पर्युदगन्म तथा यूयमपि प्राप्नुत॥१०॥
पदार्थः
(उत्) उत्कर्षे (वयम्) (तमसः) अन्धकारात् पृथग् वर्त्तमानम् (परि) सर्वतः (स्वः) सुखसाधकम् (पश्यन्तः) प्रेक्षमाणाः (उत्तरम्) सर्वेषां लोकानामुत्तारकम् (देवम्) द्योतमानम् (देवत्रा) देवेषु वर्त्तमानम् (सूर्यम्) चराऽचरात्मानम् (अगन्म) प्राप्नुयाम (ज्योतिः) प्रकाशमानम् (उत्तमम्) अतिश्रेष्ठम्॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यमिवाऽविद्यान्धकारात् पृथग्भूतं स्वप्रकाशं महादेवं सर्वोत्कृष्टं सर्वान्तर्यामिणं परमात्मानमेवोपासते ते मुक्तिसुखमपि लभन्ते॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर की उपासना का विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (वयम्) हम लोग (तमसः) अन्धकार से पृथक् वर्तमान (ज्योतिः) प्रकाशमान सूर्यमण्डल को (पश्यन्तः) देखते हुए (स्वः) सुख के साधक (उत्तरम्) सब लोगों को दुःख से पार उतारने वाले (देवत्रा) दिव्य पदार्थों वा विद्वानों में वर्त्तमान (उत्तमम्) अतिश्रेष्ठ (सूर्यम्) चराचर के आत्मा (देवम्) प्रकाशमान जगदीश्वर को (परि, उत्, अगन्म) सब ओर से उत्कर्षपूर्वक प्राप्त हों, वैसे उस ईश्वर को तुम लोग भी प्राप्त होओ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान अविद्यारूप अन्धकार से पृथक् हुए स्वयं प्रकाशित, बड़े देवता, सबसे उत्तम, सब के अन्तर्यामी परमात्मा की ही उपासना करते हैं, वे मुक्ति के सुख को भी अवश्य निर्विघ्न प्रीतिपूर्वक प्राप्त होते हैं।१०॥
विषय
अग्नि और वाग्मी नाम विद्वानों का वर्णन ।
भावार्थ
व्याख्या देखो अ० २० । २१ ॥
विषय
उत्+उत्तर+उत्तम
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार सदा डरते न रहकर (वयम्) = हम (उत् तमसः परि) = उत्कृष्ट प्रकृति के बन्धन को छोड़कर, प्रकृति से ऊपर उठकर आगे बढ़ें। प्रकृति को पूर्णतया छोड़ने का देहवान् के लिए सम्भव नहीं, परन्तु इसमें उलझना भी सर्वथा हेय है। 'प्रकृति निकृष्ट हो' यह बात नहीं, भौतिक शरीर के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, परन्तु इससे ऊपर उठना ही ठीक है । २. इससे ऊपर उठकर (उत्तरम् स्वः) = तुलना में अधिक उत्कृष्ट प्रकाशमय जीव को, अर्थात् आत्मस्वरूप को (पश्यन्तः) = देखते हुए आगे बढ़ें। प्रकृति उत्कृष्ट है, परन्तु जीव उत्कृष्टतर है। प्रकृति जड़ है, जीव पूर्ण चैतन्य न होते हुए भी चैतन्य कर्त्ता तो है ही। ३. यह आत्मदर्शी पुरुष कहता है कि हम (देवत्रा देवम्) = देवों में भी देव, देवों को भी बल प्राप्त करानेवाले (उत्तमं ज्योतिः) = सर्वोत्तम ज्योति परमात्मा को जो (सूर्यम्) = सूर्य की तरह देदीप्यमान है, (अगन्म) = प्राप्त हों। ४. मन्त्र में 'उत्, उत्तर व उत्तम' शब्द प्रकृति, जीव व परमात्मा का संकेत कर रहे हैं। प्रकृति उत्कृष्ट है, जीव उत्कृष्टतर है और परमात्मा उत्कृष्टतम । प्रकृति 'सत्' है जीव 'सत् + चित्' है और परमात्मा 'सत्+चित्+आनन्द' है।
भावार्थ
भावार्थ- हम उत्कृष्ट प्रकृति का उत्तम प्रयोग करते हुए इससे ऊपर उठें, अपने पहुँचने के प्रकाशमयरूप को देखते हुए ज्योतियों में सर्वोत्तम ज्योति परमात्मा के समीप लिए यत्नशील हों। वही हमारा लक्ष्य हो ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे अविद्यारूपी अंधःकारापासून दूर होऊन स्वयंप्रकाशित, महादेव, सर्वोत्तम, सर्वांतर्यामी परमेश्वराची उपासना करता ती निर्विघ्नपणे मुक्तीचे सुख भोगू शकतात.
विषय
ईश्वराची उपासना कशी करावी, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे (वयम्) आमही (विद्वान उपासक) (तमसः) अंधकारापासून (अज्ञानापासून सर्वथा) पृथक अशा (ज्योतिः) प्रकाशमान सूर्यमंडळाला (षश्यन्तः) पाहत (स्वः) सुखकारक (उत्तरम्) सर्वांना दुःखसागरापासून तारून नेणार्या (देवत्रा) सर्व दिव्य पदार्थांमधे वा सर्व विद्वानांमधे विद्यमान वा व्यापक अशा (उत्तमग्) अतिश्रेष्ठ (सूर्यम्) चराचर जगाचा जो आत्मा, त्या (देवम्) ज्योतिष्मान परमेश्वराला (परि, उत, अगत्य) सर्वतः उत्साहपूर्वक प्राप्त होतो, तद्वत, हे लोकहो, तुम्हीही त्या ईश्वराला प्राप्त करा (त्याची उपासना करा) ॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे लोक सूर्य जसा अंधकारापासून तसे अज्ञानरूप अंधकारापासून दूर राहून स्वयं प्रकाशित होतात (मनन-चिंतन करतात) आणि सर्वांहून महान, सर्वोत्तम देवता म्हणजे केवळ अंतर्यामी परमेश्वराचीच उपासना करतात, ते मुक्तिचे सुख मोठ्या आनंदाने, कोणतीही विघ्न-बाधा न येता अवश्य मोक्ष-सुख अवश्य प्राप्त करतात. ॥10॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Looking upon the suns light free from darkness, we fully realise God, the Giver of happiness, the Saviour of humanity, Omnipresent, Excellent, the Soul of animate and inanimate objects, and Self-Effulgent.
Meaning
Let us rise beyond the dark, watching the heavenly light above, high and higher, and reach to the sun, highest light and most generous divinity of the saviour divinities of the world.
Translation
Beholding the uprising divine light beyond the mundane darkness, we by and by approach the spiritual one, the divine of divine. (1)
Notes
Svaḥ, light. Uttaram, higher up.
बंगाली (1)
विषय
অথেশ্বরোপাসনাবিষয়মাহ ॥
এখন ঈশ্বরের উপাসনার বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (বয়ম্) আমরা (তমসঃ) অন্ধকার হইতে পৃথক বর্ত্তমান (জ্যোতিঃ) প্রকাশমান সূর্য্যমণ্ডলকে (পশ্যন্তঃ) দেখিতে থাকিয়া (স্বঃ) সুখের সাধক ((উত্তমম্) সকল ব্যক্তিদেরকে দুঃখ হইতে উত্তীর্ণকারী (দেবত্রা) দিব্য পদার্থসকল বা বিদ্বান্দের মধ্যে বর্ত্তমান (উত্তমম্) অতিশ্রেষ্ঠ (সূর্য়ম্) চরাচরের আত্মা (দেবম্) প্রকাশমান জগদীশ্বরকে (পরি, উৎ, অগন্ম) সকল দিক দিয়া উৎকর্ষপূর্বক প্রাপ্ত হই, সেইরূপ সেই ঈশ্বরকে তোমরাও প্রাপ্ত হও ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য সূর্য্যের সমান অবিদ্যারূপ অন্ধকার হইতে পৃথক হইয়া স্বয়ং প্রকাশিত বৃহৎ দেবতা সর্বাপেক্ষা উত্তম সকলের অন্তর্যামী পরমাত্মারই উপাসনা করেন তাহারা মুক্তির সুখকেও অবশ্য নির্বিঘ্ন প্রীতিপূর্বক প্রাপ্ত হয়েন ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উদ্ব॒য়ন্তম॑স॒স্পরি॒ স্বঃ᳖ পশ্য॑ন্ত॒ऽ উত্ত॑রম্ ।
দে॒বং দে॑ব॒ত্রা সূর্য়॒মগ॑ন্ম॒ জ্যোতি॑রুত্ত॒মম্ ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উদ্বয়মিত্যস্যাগ্নির্ঋষিঃ । সূর্য়ো দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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