Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 27

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 45
    ऋषिः - शंयुर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदभिकृतिः स्वरः - ऋषभः
    193

    सं॒व॒त्स॒रोऽसि परिवत्स॒रोऽसीदावत्स॒रोऽसीद्वत्स॒रोऽसि वत्स॒रोऽसि। उ॒षस॑स्ते कल्पन्तामहोरा॒त्रास्ते॑ कल्पन्तामर्द्धमा॒सास्ते॑ कल्पन्तां॒ मासा॑स्ते कल्पन्तामृ॒तव॑स्ते कल्पन्ता संवत्स॑रस्ते॑ कल्पताम्। प्रेत्या॒ऽएत्यै॒ सं चाञ्च॒ प्र च॑ सारय। सु॒प॒र्ण॒चिद॑सि॒ तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वः सी॑द॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सं॒व॒त्स॒रः। अ॒सि॒। प॒रि॒व॒त्स॒र इति॑ परिऽवत्स॒रः। अ॒सि॒। इ॒दा॒व॒त्स॒र। इती॑दाऽवत्स॒रः। अ॒सि॒। इ॒द्व॒त्स॒र इती॑त्ऽवत्स॒रः। अ॒सि॒। व॒त्स॒रः। अ॒सि॒। उ॒षसः॑। ते॒। क॒ल्प॒न्ता॒म्। अ॒हो॒रा॒त्राः। ते॒ क॒ल्प॒न्ता॒म्। अ॒र्द्ध॒मा॒साऽइत्य॑र्द्धऽमा॒साः। ते॒। क॒ल्प॒न्ता॒म्। मासाः॑। ते॒। क॒ल्प॒न्ता॒म्। ऋ॒तवः॑। ते॒। क॒ल्प॒न्ता॒म्। सं॒व॒त्स॒रः। ते॒। क॒ल्प॒ता॒म्। प्रेत्या॒ इति॒ प्रऽइ॑त्यै। एत्या॒ऽ इत्याऽइ॑त्यै। सम्। च॒। अञ्च॑। प्र। च॒। सा॒र॒य॒। सु॒प॒र्ण॒चिदिति॑ सुपर्ण॒ऽचित्। अ॒सि॒। तया॑। दे॒वत॑याः। अ॒ङ्गि॒र॒स्वदित्य॑ङ्गिरः॒ऽवत्। ध्रु॒वः। सी॒द॒ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँवत्सरोसि परिवत्सरोसीदावत्सरोसीद्वत्सरोसि वत्सरोसि । उषसस्ते कल्पन्तामहोरात्रास्ते कल्पन्तामर्धमासास्ते कल्पन्ताम्मासास्ते कल्पन्तामृतवस्ते कल्पन्ताँ सँवत्सरस्ते कल्पताम् । प्रेत्याऽएत्यै सञ्चाञ्च प्र च सारय । सुपर्णचिदसि तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवः सीद ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    संवत्सरः। असि। परिवत्सर इति परिऽवत्सरः। असि। इदावत्सर। इतीदाऽवत्सरः। असि। इद्वत्सर इतीत्ऽवत्सरः। असि। वत्सरः। असि। उषसः। ते। कल्पन्ताम्। अहोरात्राः। ते कल्पन्ताम्। अर्द्धमासाऽइत्यर्द्धऽमासाः। ते। कल्पन्ताम्। मासाः। ते। कल्पन्ताम्। ऋतवः। ते। कल्पन्ताम्। संवत्सरः। ते। कल्पताम्। प्रेत्या इति प्रऽइत्यै। एत्याऽ इत्याऽइत्यै। सम्। च। अञ्च। प्र। च। सारय। सुपर्णचिदिति सुपर्णऽचित्। असि। तया। देवतयाः। अङ्गिरस्वदित्यङ्गिरःऽवत्। ध्रुवः। सीद॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 45
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् जिज्ञासो! वा यतस्त्वं संवत्सरोऽसि परिवत्सरोऽसीदावत्सरोऽसीद्वत्सरोऽसि वत्सरोऽसि तत्मात् ते कल्याणकर्य्य उषसः कल्पन्तां ते मङ्गलप्रदा अहोरात्राः कल्पन्तां तेऽर्द्धमासाः कल्पन्तां ते मासाः कल्पन्तां त ऋतवः कल्पन्तां ते संवत्सरः कल्पतां त्वं च प्रेत्यै समञ्च त्वमेत्यै स्वप्रभावं प्रसारय च यतस्त्वं सुपर्णचिदसि तस्मात् तया देवतया सहाङ्गिरस्वद् ध्रुवः सीद॥४५॥

    पदार्थः

    (संवत्सरः) संवत्सर इव नियमेन वर्त्तमानः (असि) (परिवत्सरः) वर्जितव्यो वत्सर इव दुष्टाचारत्यागी (असि) (इदावत्सरः) निश्चयेन समन्ताद् वर्त्तमानः संवत्सर इव (असि) (इद्वत्सरः) निश्चितसंवत्सर इव (असि) (वत्सरः) वर्ष इव (असि) (उषसः) प्रभाताः (ते) तुभ्यम् (कल्पन्ताम्) समर्था भवन्तु। (अहोरात्राः) रात्रिदिनानि (ते) (कल्पन्ताम्) (अर्द्धमासाः) सितासिताः पक्षाः (ते) (कल्पन्ताम्) (मासाः) चैत्रादयः (ते) (कल्पन्ताम्) (ऋतवः) वसन्ताद्याः (ते) (कल्पन्ताम्) (संवत्सरः) (ते) (कल्पताम्) (प्रेत्यै) प्रकृष्टेन प्राप्त्यै (एत्यै) समन्ताद् गत्यै (सम्) सम्यक् (च) (अञ्च) प्राप्नुहि (प्र) (च) (सारय) (सुपर्णचित्) यः शोभनानि पर्णानि पालनानि चिनोति सः (असि) (तया) (देवतया) दिव्यगुणयुक्तया समयरूपया (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मप्राणवत् (ध्रुवः) दृढः (सीद) स्थिरो भव॥४५॥

    भावार्थः

    य आप्ता मनुष्या व्यर्थं कालं न नयन्ति सुनियमैर्वर्त्तमानाः कर्त्तव्यानि कुर्वन्ति, त्यक्तव्यानि त्यजन्ति, तेषां सुप्रभातः शोभना अहोरात्रा अर्द्धमासा मासा ऋतवश्च गच्छन्ति। तस्मात् प्रकर्षगतये प्रयत्य सुमार्गेण गत्वा शुभान् गुणान् सुखानि च प्रसारयेयुः। सुलक्षणया वाचा पत्न्या च सहिता धर्मग्रहणेऽधर्मत्यागे च दृढोत्साहाः सदा भवेयुरिति॥४५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् वा जिज्ञासु पुरुष! जिससे तू (संवत्सरः) संवत्सर के तुल्य नियम से वर्त्तमान (असि) है, (परिवत्सरः) त्याज्य वर्ष के समान दुराचरण का त्यागी (असि) है, (इदावत्सरः) निश्चय से अच्छे प्रकार वर्त्तमान वर्ष के तुल्य (असि) है, (इद्वत्सरः) निश्चित संवत्सर के सदृश (असि) है, (वत्सरः) वर्ष के समान (असि) है। इससे (ते) तेरे लिये (उषसः) कल्याणकारिणी उषा प्रभातवेला (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (ते) तेरे लिये (अहोरात्राः) दिन-रातें मङ्गलदायक (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (ते) तेरे अर्थ (अर्द्धमासाः) शुक्ल-कृष्णपक्ष (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (ते) तेरे लिये (मासाः) चैत्र आदि महीने (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (ते) तेरे लिये (ऋतवः) वसन्तादि ऋतु (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (ते) तेरे अर्थ (संवत्सरः) वर्ष (कल्पताम्) समर्थ हो। (च) और तू (प्रेत्यै) उत्तम प्राप्ति के लिये (सम्, अञ्च) सम्यक् प्राप्त हो (च) और तू (एत्यै) अच्छे प्रकार जाने के लिये (प्र, सारय) अपने प्रभाव का विस्तार कर, जिस कारण तू (सुपर्णचित्) सुन्दर रक्षा के साधनों का संचयकर्त्ता (असि) है, इससे (तया) उस (देवतया) उत्तम गुणयुक्त समय रूप देवता के साथ (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मा प्राणवायु के समान (ध्रुवः) दृढ़ निश्चल (सीद) स्थिर हो॥४५॥

    भावार्थ

    जो आप्त मनुष्य व्यर्थ काल नहीं खोते, सुन्दर नियमों से वर्त्तते हुए कर्त्तव्य कर्मों को करते, छोड़ने योग्यों को छोड़ते हैं, उनके प्रभात काल, दिन-रात, पक्ष, महीने, ऋतु सब सुन्दर प्रकार व्यतीत होते हैं, इसलिये उत्तम गति के अर्थ प्रयत्न कर अच्छे मार्ग से चल शुभ गुणों और सुखों का विस्तार करें। सुन्दर लक्षणों वाली वाणी वा स्त्री के सहित धर्म ग्रहण और अधर्म के त्याग में दृढ़ उत्साही सदा होवें॥४५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    व्याख्याः शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज-माह संवत्सर

    अहा! मुनिवरों! देखो, परमात्मा ने अवधि बनाई है, कि इतने समय तक रात्रि रहेगी और इतने समय तक दिवस रहेगामुनिवरों! जिस समय संसार को उत्पन्न करते हैं, दिवस आ जाता हैपरमात्मा के बनाए हुए संसार में नित्य परिवर्तन आता रहता है एक माह में दो प्रकार के पक्ष होते हैं कृष्ण पक्ष होता और शुक्ल पक्ष होता है

    हमारे मानव शरीर में दस प्राण कहलाते हैं, प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान, यह प्राण हैं और पाँच उप प्राण कहलाते हैं नाग, देवदत्त, धनञ्जय, कृकल, कूर्मजैसे यह मानव शरीर में कार्य कर रहे हैं वैसे ही दस प्राण इस ब्रह्माण्ड में गति कर रहे हैं, इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड में कार्य कर रहे हैं, विभक्त, क्रिया चल रही हैक्योंकि प्राण दस रूपों में ही अपनी आभा को प्रकट कर सकता हैदस प्राणों से ही गणना की उत्पत्ति होती हैजितनी भी गणना है अर्थात दस से आगे कोई विभक्त क्रिया नहीं होतीतो इसी के रूप में हम इकाई की आभा में रहते हैं और इन्हीं दसों प्राणों के आधार पर कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष बनता हैएक माह में दो पक्ष होते हैंइसी प्रकार इन दस प्राणों के आधार पर सम्वत्सर बनता है और इसी प्राणों के आधार पर सम्वतसर के होते हुए अहोरात्र बनता हैअहोरात्र के बन जाने से मनवन्तर बनता है और मनवन्तर के बनने से सृष्टि का क्रम मानव के समीप आ जाता है।

    मुनिवरों! यह तो तुमने जान ही लिया होगा कि एक चतुर्युगी में तैंतालिस लाख बीस सहस्त्र (४३२००००वर्ष) वर्ष होते हैंइक्हत्तर (७१) चतुर्युगियों का एक मन्वन्तर होता हैऐसे चौदह (१४) मन्वन्तरों का सृष्टिकाल या ब्रह्म दिन होता हैतो चौदह मन्वन्तरों के पश्चात एक प्रलयकाल हो जाता हैइस प्रलयकाल को ब्रह्म की रात्रि कहते हैएक सृष्टिकाल और एक प्रलयकाल को मिलाकर ब्रह्म का अहोरात्र कहलाता हैअर्थात दो सहस्त्र चतुर्युगियों का ब्रह्मा का अहोरात्र बनता हैमुनिवरों! देखो, ऐसे ऐसे ३६० अहोरात्र का, ब्रह्म का एक वर्ष हो जाता हैऐसे ऐसे ब्रह्मा के सौ वर्ष व्यतीत होते है, तो ब्रह्म की शतायु हो जाती है।

    मुनिवरों! देखो, आदि ऋषियों ने और दार्शनिकों ने निर्णय किया हैइस पर दार्शनिकों ने कहा कि यह क्या है? ऐसा क्यों माना है? ऐसा कौन सा ब्रह्मा है? ऐसा इसका कौन सा शरीर है? जो ऐसा माना गया है

    यह ब्रह्मा का दिवस कहलाता हैयह ब्रह्मा का दिवस है अथवा इस संसार को याग रूप में परणित करता रहता हैवह जो ब्रह्मा का याग हो रहा है ब्रह्मा दिवस रूप में याग कर रहा है मेरे प्यारे! देखो, यह आयु क्या है? मुनिवरों! इन तत्त्वों में रमण करने वाली जो आयु है वह आयु उतने ही समय तक है जितना उसका सङ्कल्प रहता है।

    वैदिक ऋषि कहते हैं, आचार्य कहते हैं कि ब्रह्मा की चार अरब, बत्तीस करोड़ की जो आयु है वह ब्रह्मा का दिवस कहलाता हैपरन्तु जब प्रलयकाल आता है, तो वायु अपने परमाणुओं को इनमें से सब में से समेट लेती हैवह सङ्कल्प ही है जो स्वतः समिट जाते हैं जब उनका सङ्कल्प होता हैअग्नि के तेजोमयी, जल की शीतलमयी, पृथ्वी के कणोमयी वह सर्वत्र वायु की आभा में प्राप्त हो जाते हैं।

    देखो, किन्हीं आचार्यों ने अन्तरिक्ष के परमाणु माने हैंकिन्हीं आचार्यों ने यह कहा है कि आकाश में ही चारों तत्त्वों के परमाणु भ्रमण करते रहते हैंमानो वही उसमें निहित रहते हैंपरन्तु हमारे यहाँ यह कहा गया है, आचार्यों ने यह कहा है मन्थन करने वालों ने कि जब प्रलय काल होता है प्रलय काल में यह परमाणु अपने में स्वतः सिमट जाते हैं और रात्रि आ जाती हैउसे ब्रह्म रात्रि कहते हैंवह जो ब्रह्म रात्रि है उस ब्रह्म रात्रि में ब्रह्मा अपनी शैय्या पर शान्ति से रहता हैवह तो एक स्थली पर दिवस में भी टिका हुआ रहता हैपरन्तु रात्रि में भी उसी प्रकार रहता हैजब वह रात्रि समाप्त हो जाती है तो मुनिवरों! देखो, इस वायु के परमाणु अन्तरिक्ष में प्रवेश करते हैं

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    संवत्सर के पांच रूप और तदनुसार प्रजापालन के ५ रूप ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) सूर्य के समान तेजस्विन्! सूर्य जिस प्रकार पांच वर्ष वाले युग में संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर इन पंचरूपों में परिवर्तित होता है इसी प्रकार तू भी (संवत्सरः असि) तेरे संग समस्त प्राणी आकर बसते हैं, तुझे अभिवादन व स्तुति करते हैं इसलिये तू 'संवत्सर' है । (परिवत्सरः असि) तेरे चारों ओर तेरी शरण में लोग आ बसते हैं, चारों ओर तू स्तुति, अभिवादन किया जाता है, 'इसलिये तू 'परिवत्सर' है । (इदावत्सर: असि) अन्न के द्वारा तू सबको बसाता है, इससे तू 'इदावत्सर' है । (इद्वत्सर: असि) तू इस लोक को बसाता है अथवा जल आदि से तू लोकों का पालन करता है इससे तू `इद्वत्सर' है । (वत्सरः असि) तू पुत्रों के समान सब को आनन्द प्रसन्न रखता उनको ऐश्वर्य प्रदान करता है इससे तू 'वत्सर' है । इस प्रकार राजा संवत्सर प्रजापति के समान है । ( ते उपसः कल्पन्ताम् ) वर्ष की ३६५ उषाएं होती हैं इसी प्रकार तेरी उषाएं, दुष्टों के दमन और राष्ट्र के व्यवहार प्रकाशक कार्य को समृद्ध करने वाली शक्तियां नित्य बढ़े ।( अहोरात्रा : ते कल्पन्ताम् ) वर्ष के दिनों और रातों के समान तेरे राज्य में स्त्री पुरुषों की वृद्धि हो । ( अर्धमासाः ते कल्पन्ताम् ) अर्ध मासों के समान तेरे राज्य में आह्लादकारी, समृद्ध विद्वानों की वृद्धि हो । ( मासा : ते कल्पन्ताम् ) वर्ष के मासों के समान तेरे राज्य में आदित्य के समान तेजस्वी विद्वान् बढ़े । (ऋतवः ते कल्पन्ताम् ) ऋतुओं के समान तेरे राष्ट्र में राजसभा के सदस्यों की वृद्धि हो । (संवत्सरः ते कल्पन्ताम् ) संवत्सर स्वरूप प्रजापति पद उन्नति को प्राप्त हो । (प्र- इत्य) आगे बढ़कर और (आ-इत्य च ) पुन: लौट लौट कर तू ( सम् अञ्च) अपनी शक्तियों को एकत्र कर और (प्रसारय च) आगे भी बढ़ा। तू (सुपर्णचित् असि ) आदित्य के समान उत्तम पालन करने वाले साधनों, एवं उत्तम पुष्टिकारी पदार्थों का संग्रह करने वाला है । अथवा — सुपर्ण, उत्तम बलवान् पक्षी जिस प्रकार आकाशमार्ग को भली प्रकार तय करने के लिये अपने पंखों को संकोच करता और फैलाता है और सुन्दर, सुखदायी किरणों वाला सूर्य जिस प्रकार अपनी किरणों को नित्य नियम से फैलाता और संकुचित करता है उसी प्रकार हे अग्ने ! राजन् ! सेनापते ! तू भी अपनी सेनाओं को (सम् अञ्च) संयुक्त कर, संकुचित कर और फिर ( प्रसारय च ) फैला । इस प्रकार तू ( सुपर्णचित् ) गरुड़ पक्षी और सूर्य के समान है । अथवा प्राण जिस प्रकार ( प्र इत्य आ इत्य च ) एक बार बाहर जाता फिर लौट कर आता है ( सम् अञ्च, प्रसारय च) इसी प्रकार तू भी राष्ट्र से एक बार विदेश प्रयाण कर एक बार पुनः अपने देश में आकर ( सम् अञ्च) धन को संग्रह कर और उसको राष्ट्र में विस्तारित कर । इस प्रकार शरीर में प्राण के समान राष्ट्र के बीच में तू राष्ट्र का प्रांण, जीवन होकर उसको चैतन्य किये रह । (तया देवतया) उस चित्स्वरूप देवता, आत्मा के समान रूप से तू (अंगिरस्वत्) अंग-अंग में रस रूप होकर राष्ट्र के प्रत्येक भाग में, बलरूप होकर (ध्रुवः) निश्चित, स्थिर होकर (सीद) विराज, सिंहासन पर बैठ । ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । निचृदभिकृतिः । ऋषभः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पूर्ण जीवन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब प्रभु हमारे शरीरों के रक्षक होंगे तब हमारा जीवन निश्चय से सुन्दर बनेगा। प्रभु 'शंयु' से कहते हैं कि तू (संवत्सरः असि) = [संवसति] उत्तम निवासवाला है। २. (परिवत्सर: असि) = [परिवसति] सम्पूर्ण कोशों में निवासवाला है, केवल अन्नमयकोश में ही रहा। तेरी दुनिया केवल खाने-पीने की ही दुनिया नहीं है। तेरा जीवन अधूरा न होकर समूचा [पूर्ण] है। ३. (इदावत्सर: असि) [इदा - इदनीम् ] = तू वर्त्तमान काल में रहनेवाला है, तू भूत-भविष्य की बातें नहीं करता रहता। न तो तू भूत का राग अलापता रहता है और ना ही भविष्य के स्वप्न लेते रहता है। तू सदा वर्त्तमान को उत्तम बनाने का प्रयत्न करता है। ४. (इद्वत्सर: असि) = तू निश्चय से निवास करनेवाला है। तेरे जीवन में विकल्पों व संशयों का स्थान नहीं । ५. इस प्रकार तू (वत्सर: असि) = निवासवाला है, तेरा निवास सब प्रकार की जटिलता व संकरता [Complexes ] से रहित है। यहाँ 'वत्सर' का पाँच बार प्रयोग इस बात का भी संकेत कर रहा है कि तू ने पाँचों भूतों से बने इस पाँचभौतिक शरीर में पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से पाँचों प्राणशक्तियों का विकास करते हुए अपने 'पञ्चजन' नाम को चरितार्थ किया है। ६. (ते) = इस उत्तम निवासवाले तेरे लिए (उषसः कल्पन्ताम्) = सामार्थ्य को बढ़ानेवाले हों। इसी प्रकार (ते) = तेरे लिए (अहोरात्रा:) = दिन व रात (कल्पन्ताम्) = शक्तिशाली हों, तेरे लिए (अर्धमासाः) = अर्धमास, शुक्लपक्ष व कृष्णपक्ष कल्पन्ताम्सामर्थ्य का वर्धन करनेवाले हों । (मासाः ते कल्पन्ताम्) = वैशाख - ज्येष्ठ आदि मास भी तेरे लिए सामर्थ्य को दें। (ऋतवः ते कल्पन्ताम्) = 'ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त शिशिर व वसन्त' ये ऋतुएँ भी तुझे शक्तिशाली बनाएँ और इन ऋतुओं से बना हुआ यह (संवत्सरः) = वर्ष (ते कल्पताम्) = तेरे लिए शक्ति व सामर्थ्य को करनेवाला हो। ७. प्रभु कहते हैं कि अब तू (प्रेत्या) = खूब गतिशील बनकर [ प्र इ] (च) = और (एत्यै) = मेरे समीप पहुँचने के लिए (सम् अञ्च) = सम्यक् गतिवाला हो, अर्थात् उत्तम कर्मों को करनेवाला बन (च) = तथा (प्रसारय) -= अपनी शक्तियों का प्रकृष्ट प्रसार कर, शक्तियों को फैलानेवाला बन। ८. (सुपर्णचित् असि) = तू अपना उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाला तथा ज्ञान को प्राप्त करनेवाला है [पर्ण पू पालनपूरणयोः चित् ज्ञान ] ९. इस प्रकार तया देवतया उस देवता, अर्थात् प्रभु के साथ सम्पर्क में रहकर (अंगिरस्वत्) = एक-एक अंग में रस के सञ्चारवाला होकर (ध्रुवः) = मर्यादा में चलनेवाला बनकर सीद इस संसार में निवास कर। इस प्रकार के निवास में ही जीवन की शान्ति है और हम प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'शंयु' बन पाते है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुकृपा से हमारा जीवन पाञ्चों भूतों, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों व प्राणों के दृष्टिकोण से पूर्ण हो । सब काल-विभाग हमें शक्ति देनेवाले हों। उत्तम गतिवाले होकर हम अपनी शक्ति को फैलानेवाले बनें। स्वस्थ व ज्ञानी बनकर प्रभु संग से रसमय- जीवनवाले होकर मर्यादामय जीवनवाले हों।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी आप्त माणसे व्यर्थ वेळ घालवीत नाहीत, श्रेष्ठ नियमानुसार वर्तन करतात, कर्तव्य कर्म करतात, वाईट गोष्टींचा त्याग करतात, त्यांचा प्रभातकाल, दिवस व रात्र, पक्ष, महिने, ऋतू हे उत्तम रीतीने व्यतीत होतात त्यामुळे उत्तम गती प्राप्त होण्यासाठी प्रयत्नपूर्वक चांगला मार्ग स्वीकारावा व शुभ गुण आणि सुख वाढवित जावे. सुंदर लक्षणांनी युक्त वाणी किंवा स्रीसह धर्माचा अंगीकार व अधर्माचा त्याग करून दृढ निश्चयाने उत्साही बनावे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान पुरूष अथवा जिज्ञासू विद्यार्थी, तू (संवत्सरः) संवत्सराप्रमाणे नियमाने वागणारा (असि) आहेस. (परिवत्सरः) त्याज्य वर्षाप्रमाणे दुराचाराचा त्याग (करणारा (असि) आहेस. (इदावत्सरः) निश्‍चयाने तू वर्तमान संवत्सराचा सारखा (ससि) आहेस. (इदावत्सरः) निश्‍चित संवत्सराप्रमाणे (असि) आहेस. (वत्सरः) वर्षाप्रमाणे (असि) आहेस (ते) तुझ्यासाठी (उषसः) कल्याणकारीणी उषा (कल्पन्ताम्) समर्थ वा शक्तीदायी व्हावीः (ते) तुझ्याकरिता (अर्द्धमासाः) शुक्ल पक्ष वा कृष्ण पक्ष (कल्पन्ताम्) मंगलदायक व्हावेत. (ते) तुझ्यासाठी (ऋतवः) वसंत आदीऋतू (कल्पन्ताम्) सुख कारक व्हाव्यात. (ते) तुझ्यासाठी (संवत्सरः) वर्ष (कल्पताम्) सुख कारक होवो. (च) आणि तू (प्रेत्यै) उत्तम पदार्थांच्या प्राप्तीसाठी (सम्, अञ्च) सम्यकप्रकारे आम्हास प्राप्त हो. (च) आणि तू (एत्य) येथून प्रयाण करण्यासाठी (प्र, सारय) जा, पण आपल्या ज्ञानाचा व गुणांचा प्रसार करण्यासाठी जा. ज्याअर्थी तू (सुपर्णचित्त) रक्षणाची जी उत्तम साधनांचा संचयकर्ता (असि) आहेस, त्यामुळे (तया) त्या (देवतया) उत्तम गुणवान समयरूप दैवतासह (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मा प्राणवायूप्रमाणे (ध्रुवः) दृढ वा स्थिर (सीद्) होऊन एके ठिकाणी स्थिरपणे निवास कर ॥45॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे आप्त मनुष्य आपला वेळ व्यर्थ घालवीत नाहीत, उत्तम नियमांप्रमाणे वागत कर्तव्यकर्में करीत असतात, त्याज्य पदार्थांचा वा गुणांचा त्याग करतात, त्यांचा उषःकाळ, त्यांचे दिवसरात्र, पक्ष व मास, ऋतू आदी सर्व काही सम्यकप्रकारे व्यतीत होतात. यामुळे त्यांनी उत्तम प्रगतीसाठी झगडत सन्मार्गाने चालत शुभ गुणांचा आणि सुखांचा विस्तार केला पाहिजे. सुलक्षणी स्त्री वा सुसंस्कृत वाणी सह धर्माचा स्वीकार आणि अधर्माचा त्याग करण्याासठी त्यानी सदैव दृढपणे उत्साहित असावे. ॥45॥

    टिप्पणी

    या अध्यायात सत्याची प्रशंसा, उत्तम गुणांचा सत्कार, राज्याचा उत्कर्ष, अनिष्टाची निवृत्ती, जीवन-वर्धन, मित्राचा विश्‍वास, सर्वत्र कीर्तीचा प्रवास, ऐश्‍वर्यवृद्धी, अल्पमृत्यू निवारण, शुद्धीकरण, सुकर्म करणे, यज्ञ करणे, प्रभूत धनाचा संचय, स्वामित्व प्रतिपादन, सुसंस्कृत वाणीचा स्वीकार, सद्गुणांची कामना, अग्नीप्रशंसा, विद्या-धन-वृद्धी, कारणमीमांसा, धनाचा उपयोग, एकमेकाची रक्षा, वायूच्या गुणांचे वर्णन, आधार-आधेम अथन, ईश्‍वराच्या गुणांचे वर्णन, शूरांच्या वीरकृत्यांचे वर्णन, प्रसन्नता प्रसार, मित्ररक्षा, विद्वानांचा आश्रय, आत्म्याची रक्षा, वीर्यरक्षा आणि उचित आहार-विहार आदी विषयांचे वर्णन केले आहे. यामुळे या 27 व्या अध्यायात सांगितलेल्या अर्थाची संगती या पूर्वीच्या 26 व्या अध्यायाच्या अर्थाशी आहे, हे लक्षात घ्यावे ॥^यजुर्वेदाच्या 27 व्या अध्यायाचा मराठी अनुवाद समाप्त

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O aspirant after knowledge, thou art the follower of law like the year, renouncer of immorality like the relinquished year, definite like the year, steadfast like the year, and active like the year. Prosper thy Dawns ! Prosper thy Days and Nights ! Prosper thy Half-months (months, Seasons and Years). Combine them for their going and coming, and send them forward on their ordered courses. Thou art the collector of the sources of protection. With that divinity lie steady like the vital breath.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Agni, brilliant scholar, teacher, learner, you move by the law of nature like the current year, give up the weaknesses like the year gone by. You are wide-awake and comprehensive like the universally present year, and definite like the year cycle. May the dawns flourish and be favourable to you. May the day-night cycle be flourishing and favourable to you. May the fortnights flourish and be favourable to you. May the months flourish, may the seasons flourish, may the years flourish and be favourable to you. For coming and going, advancement and return, collect, expand, control and contain. You are the winner of life’s golden beauties. Move forward in unison with that divinity of Time like the breath of life and stay fast and firm with Dharma like the fixed stars.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    In a five year cycle, the first year is Samvatsara; the second year Parivatsra; the third year Idavatsara; the fourth year Idvatsara; and the fifth year Vatsara. You are all the five of them. May the dawns be secured for you; may the days and nights be secured for you; may the half-months (fortnights) be secured for you; may the months be secured for you; may the seasons be secured for you; may the year be secured for you. May you wane and wax for their departure and arrival. You. are the collector of fine leaves. With that divinity may you be established here blazing bright. (1)

    Notes

    According to the ritualists, the formulas contained in this verse are to be applied in the Agnicayana ceremony at the time when the sacrificer touches as much as he can of the surface of the newly constructed Fire-altar. Agni is addressed, as identified with Prajapati, the presid ing deity of the year and with the altar. Sain añca, संकुच , may you wane. Prasaraya, may you wax. Pretyai etyai ca, for going and coming. Suparnacit, collector of fine leaves (शोभनानां पर्णानां संचयिता); also built in the shape of an eagle (सुपर्ण). Angirasvat, blazing bright (like burning coals). Also, अङ्गिरस इव प्राणा इव, like vital breaths.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ– হে বিদ্বন্ বা জিজ্ঞাসু পুরুষ! যদ্দ্বারা তুমি (সংবৎসরঃ) সংবৎসরের তুল্য নিয়ম দ্বারা বর্ত্তমান (অসি) আছো । (পরিবৎসরঃ) ত্যাজা বর্ষের সমান দুরাচরণের ত্যাগী (অসি) আছো । (ইদাবৎসরঃ) নিশ্চয়পূর্বক উত্তম প্রকার বর্ত্তমান বর্ষের তুল্য (অসি) আছো (ইদ্বৎসরঃ) নিশ্চিত সংবৎসরের সদৃশ (অসি) আছো । (বৎসরঃ) বর্ষের সমান (অসি) আছো । ইহা দ্বারা (তে) তোমার জন্য (উষসঃ) কল্যাণকারিণী উষা প্রভাতবেলা (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক (তে) তোমার জন্য (অহোরাত্রাঃ) দিন-রাত মঙ্গলদায়ক (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক (তে) তোমার জন্য (অর্দ্ধমাসাঃ) শুক্ল কৃষ্ণ পক্ষ (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক (তে) তোমার জন্য (মাসাঃ) চৈত্রাদি মাস (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক (তে) তোমার জন্য (ঋতবঃ) বসন্তাদি ঋতু (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক (তে) তোমার জন্য (সংবৎসরঃ) বর্ষ (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক, এবং তুমি (প্রেত্যৈ) উত্তম প্রাপ্তি হেতু (সম্, অঞ্চ) সম্যক্ প্রাপ্ত হউক (চ) এবং তুমি (এত্যৈ) উত্তম প্রকার গমন হেতু (প্র, সারয়) স্বীয় প্রভাবের বিস্তার কর যে কারণে তুমি (সুপর্ণচিৎ) সুন্দর রক্ষার সাধনের সঞ্চয়কর্ত্তা (অসি) আছো ইহা দ্বারা (তয়া) সেই উত্তম গুণযুক্ত সময় রূপ দেবতা সহ (অঙ্গিরস্বৎ) সূত্রাত্মা প্রাণবায়ুর সমান (ধ্রুবঃ) দৃঢ় নিশ্চল (সীদ) স্থির হউক ॥ ৪৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে আপ্ত মনুষ্য ব্যর্থ সময় নষ্ট করেনা, সুন্দর নিয়ম দ্বারা বর্ত্তমান কর্ত্তব্য কর্ম করে, ত্যাগ করিবার যোগ্যকে ত্যাগ করে, তাহার প্রভাত কাল, দিন-রাত, পক্ষ, মাস, ঋতু সব সুন্দর প্রকার ব্যতীত হয় এইজন্য উত্তমগতির জন্য প্রচেষ্টা করিয়া সুমার্গে চলিয়া শুভ গুণ ও সুখের বিস্তার করিবে । সুন্দর লক্ষণযুক্ত বাণী বা স্ত্রী সহিত ধর্ম গ্রহণ এবং অধর্মের ত্যাগে দৃঢ় উৎসাহী সর্বদা হইবে ॥ ৪৫ ॥
    এই অধ্যায়ে সত্যের প্রশংসা জানা, উত্তম গুণসকলের স্বীকার, রাজ্য বৃদ্ধি করা, অনিষ্টের নিবৃত্তি, জীবন বৃদ্ধি করা, মিত্রের বিশ্বাস, সর্বত্র কীর্ত্তি করা, ঐশ্বর্য্য বৃদ্ধি করা, অল্পমৃত্যুর নিবারণ, শুদ্ধি করা, সুকর্মের অনুষ্ঠান,যজ্ঞ করা, বহু ধনের ধারণ, স্বামিত্বের প্রতিপাদন, সুন্দর বাণীর গ্রহণ, সদ্গুণের উচ্ছা, অগ্নির প্রশংসা, বিদ্যা ও ধনের বৃদ্ধি, কারণের বর্ণনা, ধনের ব্যবহার, পারস্পরিক রক্ষা, বায়ুর গুণের বর্ণনা, আধার-আধেয়র কথন, ঈশ্বরের গুণ বর্ণনা, শূরবীরের কৃত্যকে বলা, প্রসন্নতা করা, মিত্রের রক্ষা, বিদ্বান্দিগের আশ্রয়, স্বীয় আত্মার রক্ষা, বীর্য্যের রক্ষা এবং যুক্তাহার বিহার বলা হইয়াছে । ইহাতে এই অধ্যায়ে কথিত অর্থের পূর্ব অধ্যায়ে কথিত অর্থ সহ সঙ্গতি জানা উচিত ॥
    ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
    য়জুর্বেদভাষ্যে সপ্তবিংশতিতমোऽধ্যায়ঃ পূর্তিমগমৎ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সং॒ব॒ৎস॒রো᳖ऽসি পরিবৎস॒রো᳖ऽসীদাবৎস॒রো᳖ऽসীদ্বৎস॒রো᳖ऽসি বৎস॒রো᳖ऽসি । উ॒ষস॑স্তে কল্পন্তামহোরা॒ত্রাস্তে॑ কল্পন্তামর্দ্ধমা॒সাস্তে॑ কল্পন্তাং॒ মাসা॑স্তে কল্পন্তামৃ॒তব॑স্তে কল্পন্তাᳬं সংবৎস॒রস্তে॑ কল্পতাম্ । প্রেত্যা॒ऽএত্যৈ॒ সং চাঞ্চ॒ প্র চ॑ সারয় । সু॒প॒র্ণ॒চিদ॑সি॒ তয়া॑ দে॒বত॑য়াऽঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বঃ সী॑দ ॥ ৪৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সংবৎসর ইত্যস্য শংয়ুর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদভিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top