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यजुर्वेद अध्याय - 27

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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 34
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
    143

    तव॑ वायवृतस्पते॒ त्वष्टु॑र्जामातरद्भुत।अवा॒स्या वृ॑णीमहे॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॑व। वा॒यो॒ऽइति॑ वायो। ऋ॒त॒स्प॒ते॒। ऋ॒त॒प॒त॒ऽइत्यृ॑तऽपते। त्वष्टुः॑। जा॒मा॒तः॒। अ॒द्भु॒त॒। अवा॑सि। आ। वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव वायवृतस्पते त्वष्टुर्जामातरद्भुत । अवाँस्या वृणीमहे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तव। वायोऽइति वायो। ऋतस्पते। ऋतपतऽइत्यृतऽपते। त्वष्टुः। जामातः। अद्भुत। अवासि। आ। वृणीमहे॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 34
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ किंवद्वायुः स्वीकर्तव्य इत्याह॥

    अन्वयः

    हे ऋतस्पते! जामातरद्भुत वायो वयं यानि त्वष्टुस्तवाऽवांस्या वृणीमहे, तानि त्वमपि स्वीकुरु॥३४॥

    पदार्थः

    (तव) (वायो) बहुबल (ऋतस्पते) सत्यपालक (त्वष्टुः) विद्यया प्रदीप्तस्य (जामातः) कन्यापतिवद् वर्त्तमान (अद्भुत) आश्चर्यकर्मन् (अवांसि) रक्षणादीनि (आ) (वृणीमहे) स्वीकुर्महे॥३४॥

    भावार्थः

    यथा जामाताऽऽश्चर्यगुणाः सत्यसेवकः स्वीकर्त्तव्योऽस्ति, तथा वायुरपि वरणीयोऽस्ति॥३४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब किसके तुल्य वायु को स्वीकार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (ऋतस्पते) सत्य के रक्षक (जामातः) जमाई के तुल्य वर्त्तमान (अद्भुत) आश्चर्यरूप कर्म करने वाले (वायो) बहुत बलयुक्त विद्वन्! हम लोग जो (त्वष्टुः) विद्या से प्रकाशित (तव) आप के (अवांसि) रक्षा आदि कर्मों का (आ, वृणीमहे) स्वीकार करते हैं, उन का आप भी स्वीकार करो॥३४॥

    भावार्थ

    जैसे जमाई उत्तम आश्चर्य गुणों वाला, सत्य ईश्वर का सेवक हुआ स्वीकार के योग्य होता है, वैसे वायु भी स्वीकार करने योग्य है॥३४॥

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    विषय

    नियुत्वान् वायु, सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (ऋतस्पते) सत्य, जगत् ज्ञान और सत्य राष्ट्र का पालक ! (वायो) बलवान् ! हे (त्वष्टुः) तेजस्वी राजा के (जामातः) जवाई के समान उसको स्वयं उत्पादित सेना वा राज्य लक्ष्मी के पालक ! हे (अद्भुत)आश्चर्यं कर्मकारक ! अभूतपूर्व बलशालिन् ! हम तेरे (अवांसि) रक्षा-- संघनों को (आवृणीमहे) सब प्रकार से वरण करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आंगिरस ऋषिः । वायुः । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    त्वष्टा के जामाता का रक्षण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब हमारे शरीर में तेतीस देव नियुतों के रूप में रह रहे होंगे तब हमारा अंग-प्रत्यंग सबल, स्वस्थ व सुन्दर बन जाएगा और हम प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'अंगिरस' बनेंगे। यह अंगिरस प्रभुरक्षण की प्रार्थना इस रूप में करता है कि हे (वायो) = सम्पूर्ण सृष्टि के सञ्चालक ! (ऋतस्पते) = सृष्टि के नियमों के स्वामिन्! (त्वष्टुः) = 'तूर्णमश्नुते' - नि० ८।१४। शीघ्रता से कर्मों में व्याप्त होनेवाले तथा ['त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः '- नि० ८।१४] स्वाध्याय के द्वारा मस्तिष्क की दीप्ति का सम्पादन करनेवाले, [त्वष्टा देवशिल्पी] दिव्य गुणों के निर्माण के लिए यत्नशील जीव की (जामातः) = [जायाम् मिमीते] बुद्धिरूपी जाया [पत्नी] का निर्माण करनेवाले! (अद्भुत) = अभूतपूर्व, अनुपम प्रभो! (तव) = तेरे (अवांसि) = रक्षणों का (आवृणीमहे) = हम सर्वथा वरण करते हैं। प्रभु सृष्टि के सञ्चालक हैं [वायु], ने प्रभु ही सृष्टि के अन्दर कार्य करनेवाले नियमों को बनाया है। ये नियम ही 'ऋत' हैं। प्रभु इन ऋतों के स्वामी हैं। प्रभु की अध्यक्षता में ये ऋत अपना कार्य कर रहे हैं। ३. ये प्रभु ही जीव को बुद्धि देनेवाले हैं। यह बुद्धि आत्मा की पत्नी के समान है, परन्तु यह बुद्धि प्राप्त तभी होती है जब जीव क्रियाशील होता है, स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तथा अपने जीवन में दिव्यता लाने की कोशिश करता है, एक शब्द में जब यह ' त्वष्टा' बनता है। ५. वे प्रभु अद्भुत हैं, प्रभु के समान न कोई हुआ न होगा, अतः प्रभु की किसी से उपमा देना सम्भव नहीं, वे सचमुच अनुपम हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- संसार के सञ्चालक, सृष्टि नियमों के स्वामी स्वाध्यायशील की बुद्धि का निर्माण करनेवाले उस अनुपम प्रभु के रक्षण हमें प्राप्त हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जामात जर उत्तम आश्चर्यकारक सत्य गुणांनी युक्त असून ईश्वरसेवक असेल तर स्वीकार करण्यायोग्य असतो तसा वायूही स्वीकार करण्यायोग्य असतो.

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    विषय

    वायूचा स्वीकार कशाप्रमाणे करावा, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (ऋतस्पते) सत्याचे रक्षक आणि (जामातः) जावयाप्रमाणे (सम्माननीय वा प्रिय असलेले) विद्वान, आपण (अद्भुत) आश्‍चर्यकारक कर्म करणारे असून (वायो) वायू प्रमाणे अति बलवान हे विद्वान, (त्वष्टुः) विद्येमुळे कीर्तिमंत अशा (तव) आपल्या (अवांसि) रक्षण वा आश्रयादी कर्मांचा आम्ही) (आ, वृणीमहे) स्वीकार करतो. आपणही (विद्यादान, रक्षण आणि आश्रय यासाठी आम्हा विद्यार्थी वा नागरिकांचा स्वीकार करा) ॥34॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्याप्रमाणे एक सद्गुणी सत्यभाषी आणि ईश्‍वरभक्त जावई अद्भुत गुणी असतो व म्हणून त्याची जावई म्हणून निवड केली जाते, तसा वायूदेखील स्वीकारणीय असतो ॥34॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O powerful learned person, Lord of Truth, beloved like a son-in-law, wonderful in deeds, renowned for learning, we welcome thy efforts for our protection.

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    Meaning

    Vayu, sustainer of truth and the laws of nature, wonderful power, maker of new forms and shaper of the new generations for Tvashta, lord creator, we pray for your gifts of protection, sustenance and advancement.

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    Translation

    O divine wind, Lord of cosmic sacrifice, and wonderful son-in-law of the sun, we solicit your protection. (1) (Tvastr the sun, whose daughter Usa is wedded to the wind, Vayu).

    Notes

    Tvaṣṭurjāmātaḥ, O son-in-law of the Sun. How the wind is called the son-in-law of the Sun? आदित्यादप आदाय वायुर्गर्भयति ततो वृष्टिर्भवति, इति वायुरादित्यस्य जामाता, the wind taking waters from the Sun impregnates them; therefrom comes the rain; therefore the wind is the son-in-law of the Sun.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ কিংবদ্বায়ুঃ স্বীকর্তব্য ইত্যাহ ॥
    এখন কাহার তুল্য বায়ুকে স্বীকার করিবে এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (ঋতস্পতে) সত্যের রক্ষক (জামাতঃ) জামাতা তুল্য বর্ত্তমান (অদ্ভুত) আশ্চর্যরূপ কর্ম সম্পাদনকারী (বায়ো) বহু বলযুক্ত বিদ্বন্ আমরা যাহারা (ত্বষ্টুঃ) বিদ্যা দ্বারা প্রকাশিত (তব) আপনার (অবাংসি) রক্ষাদি কর্মসকলের (আ, বৃণীমহে) স্বীকার করি তাহাকে আপনিও স্বীকার করুন ॥ ৩৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ– যেমন জামাই উত্তম আশ্চর্য্য গুণযুক্ত সত্য ঈশ্বরের সেবক স্বীকৃতির যোগ্য হয় সেইরূপ বায়ুও স্বীকার করিবার যোগ্য ॥ ৩৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    তব॑ বায়বৃতস্পতে॒ ত্বষ্টু॑র্জামাতরদ্ভুত ।
    অবা॒ᳬंস্যা বৃ॑ণীমহে ॥ ৩৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তব বায় ইত্যস্যাऽঙ্গিরস ঋষিঃ । বায়ুর্দেবতা । নিচৃদ্ গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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