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यजुर्वेद अध्याय - 27

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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
    75

    अ॒ना॒धृ॒ष्यो जा॒तवे॑दा॒ऽ अनि॑ष्टृतो वि॒राड॑ग्ने क्षत्र॒भृद् दी॑दिही॒ह।विश्वा॒ऽ आशाः॑ प्रमु॒ञ्चन् मानु॑षीर्भि॒यः शि॒वेभि॑र॒द्य परि॑ पाहि नो वृ॒धे॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ना॒धृ॒ष्यः। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। अनि॑ष्टृतः। अनि॑स्तृत॒ इत्यनि॑ऽस्तृतः। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। अग्ने॑। क्ष॒त्र॒भृदिति॑ क्षत्र॒ऽभृत्। दी॒दिहि॒। इ॒ह ॥ विश्वाः॑। आशाः॑। प्र॒मु॒ञ्चन्निति॑ प्रऽमु॒ञ्चन्। मानु॑षीः। भि॒यः। शि॒वेभिः॑। अ॒द्य। परि॑। पा॒हि॒। नः॒। वृ॒धे ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनाधृष्यो जातवेदाऽअनाधृष्टो विराडग्ने क्षत्रभृद्दीदिहीह । विश्वाऽआशाः प्रमुञ्चन्मानुषीर्भयः शिवेभिरद्य परि पाहि नो वृधे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अनाधृष्यः। जातवेदा इति जातऽवेदाः। अनिष्टृतः। अनिस्तृत इत्यनिऽस्तृतः। विराडिति विऽराट्। अग्ने। क्षत्रभृदिति क्षत्रऽभृत्। दीदिहि। इह॥ विश्वाः। आशाः। प्रमुञ्चन्निति प्रऽमुञ्चन्। मानुषीः। भियः। शिवेभिः। अद्य। परि। पाहि। नः। वृधे॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! योऽद्येह मानुषीर्भियो नाशय, शिवेभिश्च सहानिष्टृतोऽनाधृष्यो जातवेदा विराट् क्षत्रभृदस्ति, स त्वं नो दीदिहि, विश्वा आशाः प्रमुञ्चँस्त्वं नो वृधे परि पाहि॥७॥

    पदार्थः

    (अनाधृष्यः) अन्यैर्धर्षितुमयोग्यः (जातवेदाः) जातविद्यः (अनिष्टृतः) दुःखात् पृथग्भूतः (विराट्) विशेषेण राजमानः (अग्ने) सुसंगृहीतराजनीते (क्षत्रभृत्) यः क्षत्रं राज्यं बिभर्ति सः (दीदिहि) कामय (इह) अस्मिन् राज्यव्यवहारे (विश्वाः) सकलाः (आशाः) दिशः (प्रमुञ्चन्) प्रकर्षेण मुक्ताः कुर्वन् (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धिनी (भियः) रोगदोषादिकाः (शिवेभिः) कल्याणकारिभिः सभ्यैः (अद्य) इदानीम् (परि) सर्वतः (पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् (वृधे) वर्धनाय॥७॥

    भावार्थः

    ये राजराजपुरुषाः प्रजाः सन्तोष्य मङ्गलाचरणाः सर्वविद्यान्यायप्रियाः सन्तः प्रजाः पालयेयुस्ते सर्वदिक्प्रवृत्तकीर्त्तयः स्युः॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अच्छे प्रकार राजनीति का संग्रह करने वाले राजन्! जो आप (अद्य) इस समय (इह) इस राजा के व्यवहार में (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धी (भियः) रोगशोकादि भयों को नष्ट कीजिये (शिवेभिः) कल्याणकारी सभ्य सज्जनों के साथ (अनिष्टृतः) दुःख से पृथक् हुए (अनाधृष्यः) अन्यों से नहीं धमकाने योग्य (जातवेदाः) विद्या को प्राप्त (विराट्) विशेषकर प्रकाशमान (क्षत्रभृत्) राज्य के पोषक हैं, सो आप (नः) हमारी (दीदिहि) कामना कीजिये (विश्वाः) सब (आशाः) दिशाओं को (प्रमुञ्चन्) अच्छे प्रकार मुक्त करते हुए हमारी (वृधे) वृद्धि के लिए (परि, पाहि) सब ओर से रक्षा कीजिये॥७॥

    भावार्थ

    जो राजा वा राजपुरुष प्रजाओं को सन्तुष्ट कर मङ्गलरूप आचरण करने और विद्याओं से युक्त न्याय में प्रसन्न रहते हुए प्रजाओं की रक्षा करें, वे सब दिशाओं में प्रवृत्त कीर्त्ति वाले होवें॥७॥

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    विषय

    अग्नि नाम विद्वान् नायक के कर्तव्य और लक्षण ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! राजन् ! सभापते ! तू (अनाधृष्यः) दूसरे से कभी हारने वाला न हो । तू (जातवेदा ) विद्यावान् ऐश्वर्यवान्, (अनि- स्तृत:) अहिंसित (विराट्) विशेष रूप से तेजस्वी, (क्षत्रभृत् ) क्षात्र-बल को पालन और धारण करने हारा होकर (इह) इस राष्ट्र में (दीदिह) हमें प्रकाशमान हो । और (मानुषी: भियः) समस्त मनुष्यों से होने वाले भयों को ( प्र मुञ्चन् ) छोड़ कर और अन्यों को भी भय से मुक्त करता हुआ (नः) हमारी (विश्वाः आशाः) सब आशाओं, मनोरथों और दिशाओं और उनमें रहने वाली प्रजाओं को (अद्य) अब, निरन्तर (न: वृधे ) हमारी वृद्धि के लिये (परि पाहि) पालन कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः । निचृज्जगती । निषादः ॥

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    विषय

    प्रभुभक्त का जीवन

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (इह) = इस कर्म में वर्त्तमान हुआ हुआ तू, अर्थात् गतमन्त्र के अनुसार उत्तम मार्ग में चलता हुआ तू (विश्वाः आशाः) = सब दिशाओं को (दीदिहि) = प्रकाशमय कर दे। २. तू स्वयं [क] (अनाधृष्यः) = काम-क्रोध आदि भावनाओं से धर्षित न होनेवाला बन, [ख] जातवेदाः = [ जातं वेदो धनं ज्ञानम् यस्मात्] ज्ञानी बन तथा संसार के लिए आवश्यक धन को कमानेवाला बन, [ग] (अनिष्टृतः) = तू किन्ही भी रोगादि से हिंसित न हो। तेरे मन में क्रोधादि न आएँ और शरीर में रोग न हों, [घ] इस प्रकार तू (विराट्) = विशेषरूप से चमकनेवाला हो, और [ङ] अपने में क्(षत्रभृत्) = बल को धारण करनेवाला हो। उस बल का तू पोषण कर जो तुझे सब क्षतों से बचानेवाला हो। ३. इस प्रकार सुन्दर जीवनवाला बनकर (मानुषी:) = मनुष्य-सम्बन्धिनी नीतियों को 'जन्म, जरा, मृति, दैन्य, शोक' आदि मनुष्य को प्राप्त होनेवाले भयों से ऊपर उठकर (नः) = हमारे दिये हुए इस शरीरादि को (अद्य) = आज (शिवेभिः) = कल्याणों के द्वारा, शुभकर्मों के द्वारा (परिपाहि) = सर्वतः सुरक्षित करनेवाला हो । और (नः वृधे) = तू हमारे वर्धन के लिए हो, अर्थात् अपने आदर्श जीवन से लोगों पर यह प्रभाव डालनेवाला बन कि 'प्रभुभक्तों का जीवन इस प्रकार सुन्दर हुआ करता है'।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुभक्त अपने सुन्दर जीवन से प्रभु के यश का वर्धन करनेवाला होता है। वह क्रोधादि से धर्षित नहीं होता, ज्ञानी बनता है, रोगों से अहिंसित होता है, चमकता है, बल का धारण करता है, सब दिशाओं को चमकानेवाला बनता है, मनुष्य के जीवन में आनेवाले भयों से ऊपर उठता है, शिव भावनाओं से युक्त होता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे राजे किंवा राजपुरुष प्रजेला संतुष्ट करून चांगले आचरण करतात व विद्येने युक्त होऊन न्यायाने आणि प्रसन्नतेने प्रजेचे रक्षण करतात त्यांची कीर्ती दिगदिगंतरी पसरते.

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    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (अग्ने) राजनीतीचे मर्मज्ञ हे राजन्, आपण (अद्य) यावेळी (इह) या राज्य-कारभारात (आमानुषीः) मनुष्य विषयी वा प्रजेचे (भियः) रोग, शोक आदी दुःख आणि भय आहेत, ते नष्ट करा. आपण (शिवभिः) आपल्या कल्याणकारी कार्यामुळे (अनिहतः) दुःखापासून दूर आहात (प्रजेलाही दुःखमुक्त केले आहे. (अनादृष्टः) आपण शत्रु वा अन्य विरोधकांच्या धमकावण्याला न भिणारे असून (जातवेदाः) विद्यावान आहात (विराट) विशेषत्वाने प्रकाशमान वा कीर्तिमान आहात व (क्षत्रभृत्) राज्याचे पोषक-रक्षक आहात. आपण (नः) आमचे (दीदिहि) कल्याण ध्यानी असू द्या. राज्याच्या (विश्‍वा) सर्व (आशा) दिशा व सीमा (प्रमुञ्चन्) शत्रूपासून मुक्त करून आपण आमच्या (वृधे) वृद्धी म्हणजे सर्वांगीण उन्नतीसाठी (परि, पाहि) सर्वतः आमची रक्षा करा. ॥7॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे राजा वा राजपुरूष प्रजेला सुखी समाधानी करून पवित्राचरण करीत, सर्व विद्यापारंगत होत न्यायाने लागतात, अत्यंत आनंदाने प्रजेची रक्षा करतात, त्या राजा वा राजपुरूषांचे यश दशदिशांतून प्रसार पावते. ॥7॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O king, invincible, full of knowledge, free from misery, refulgent, and an able administrator, be dear to us in this task of government. Illumine all regions. Chase human ills and grieves with the help of philanthropic persons. Guard us for prosperity.

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    Meaning

    Agni, lord and ruler of the world, undaunted, omniscient, inviolable, self-refulgent, holder and sustainer of the world-order, remove all human fear, hate, disease etc. , shine and illuminate all the regions of the world, and now protect us for advancement with peace and benevolence.

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    Translation

    O adorable Lord, may you shine here always unconquerable, omniscient, uninjurable; refulgent, and holder of protective power. Making all the regions free from human terrors, may you today protect us from all sides with propitious means, so that we may prosper. (1)

    Notes

    Aniştrtah, uninjured; unconquered. Kşatrabhṛt, holder of protective power. Jätavedä, omniscient. जातं जातं वेत्ति य: स: । Manuşirbhiyah, from human terrors; from fear created by men. Pramuñcan, making free; liberating from; releasing. Vrdhe, for prosperity.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) উত্তমপ্রকার রাজনীতির সংগ্রহকারী রাজন্! আপনি (অদ্য) এই সময় (ইহ) এই রাজার ব্যবহারে (মানুষীঃ) মনুষ্যসম্পর্কীয় (ভিয়ঃ) রোগ-শোকাদি ভয়সমূহকে নষ্ট করিয়া দিন (শিবেভিঃ) কল্যাণকারী সভ্য সজ্জনদিগের সহিত (অনিষ্টতঃ) দুঃখ হইতে পৃথগ্ভূত (অনাধৃষ্যঃ) অন্য দ্বারা ভৎর্সিত হওয়ার যোগ্য নহে (জাতবেদাঃ) বিদ্যাকে প্রাপ্ত (বিরাট্) বিশেষ করিয়া প্রকাশমান (ক্ষত্রভৃৎ) রাজ্যের পোষক, সুতরাং আপনি (নঃ) আমাদের (দীদিহি) কামনা করুন (বিশ্বাঃ) সকল (আশাঃ) দিক্গুলিকে (প্রমুঞ্চন্) উত্তম প্রকার যুক্ত করিয়া আমাদের (বৃধৈ) বৃদ্ধির জন্য (পরি, পাহি) সকল দিক দিয়া রক্ষা করুন ॥ ৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যাহারা রাজা বা রাজপুরুষ প্রজাদিগকে সন্তুষ্ট করিয়া মঙ্গলরূপ আচরণ করিয়া এবং বিদ্যাযুক্ত ন্যায়ে প্রসন্ন থাকিয়া প্রজাদিগের রক্ষা করেন তাঁহারা সর্ব দিকে প্রবৃত্ত কীর্ত্তিযুক্ত হইবেন ॥ ৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒না॒ধৃ॒ষ্যো জা॒তবে॑দা॒ऽ অনি॑ষ্টৃতো বি॒রাড॑গ্নে ক্ষত্র॒ভৃদ্ দী॑দিহী॒হ । বিশ্বা॒ऽ আশাঃ॑ প্রমু॒ঞ্চন্ মানু॑ষীর্ভি॒য়ঃ শি॒বেভি॑র॒দ্য পরি॑ পাহি নো বৃ॒ধে ॥ ৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অনাধৃষ্য ইত্যস্যাগ্নির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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