अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
अ॒मुत्रै॑न॒मा ग॑च्छताद्दृ॒ढा न॒द्धा परि॑ष्कृता। यस्या॑स्ते विचृ॒ताम॒स्यङ्ग॑मङ्गं॒ परु॑ष्परुः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मुत्र॑ । ए॒न॒म् । आ । ग॒च्छ॒ता॒त् । दृ॒ढा । न॒ध्दा । परि॑ष्कृता । यस्या॑: । ते॒ । वि॒ऽचृ॒ताम॑सि । अङ्ग॑म्ऽअङ्गम् । परु॑:ऽपरु: ॥३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अमुत्रैनमा गच्छताद्दृढा नद्धा परिष्कृता। यस्यास्ते विचृतामस्यङ्गमङ्गं परुष्परुः ॥
स्वर रहित पद पाठअमुत्र । एनम् । आ । गच्छतात् । दृढा । नध्दा । परिष्कृता । यस्या: । ते । विऽचृतामसि । अङ्गम्ऽअङ्गम् । परु:ऽपरु: ॥३.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शाला बनाने की विधि का उपदेश।[इस सूक्त का मिलान अथर्व काण्ड ३ सूक्त १२ से करो]
पदार्थ
(दृढा) दृढ़ बनी हुई, (नद्धा) छायी हुई और (परिष्कृता) सजी हुई तू (अमुत्र) वहाँ पर (एनम्) इस [पुरुष] को (आ गच्छतात्) प्राप्त हो। (यस्याः ते) जिस तेरे (अङ्गमङ्गम्) अङ्ग-अङ्ग और (परुष्परुः) पोरुये-पोरुये को (विचृतामसि) हम अच्छे प्रकार ग्रन्थित करते हैं ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्य शाला को दृढ़ बना कर सुसज्जित करें ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(अमुत्र) तत्र निर्दिष्टे स्थाने (एनम्) गृहिणम् (आगच्छतात्) आगच्छ। प्राप्नुहि (दृढा) (नद्धा) अवनद्धा। आच्छादिता (परिष्कृता) परि+कृ-क्त। संपर्युषेभ्यः करोतौ भूषणे। पा० ६।१।१३७। इति सुट्। परिनिविभ्यः०। पा० ८।३।७०। इति षत्वम्। अलङ्कृता (यस्याः) (ते) तव (विचृतामसि) (अङ्गमङ्गम्) प्रत्यङ्गम् (परुष्परुः) प्रतिपर्व ॥
विषय
दृढ़ा, नद्धा, परिष्कृता
पदार्थ
१.हे शाले! (यस्याः ते) = जिस तेरे (अङ्गम् अङ्गम्) = एक-एक अङ्गको तथा (परुः परु:) = एक एक जोड़ को (विचृतामसि) = विशेषरूप से ग्रथित करते हैं, वह तू (दुढा) = बड़ी दृढ़, (नद्धा) = सुम्बद्ध व (परिष्कृता) = सम्यक् अलंकृत हुई-हुई तेरा निर्माण करनेवाले गृहपति को (अमुत्र) = भविष्य में अगले समय में (आगच्छन्तात्) = प्राप्त हो, अर्थात् तू प्रतिदिन टूटती-फूटती न रह ।
भावार्थ
घर के एक-एक अङ्ग व पर्व को सुग्नथित किया जाए। यह दृक, सुबद्ध व परिष्कृत घर भविष्य में गृहपति को सुखी करनेवाला हो।
भाषार्थ
हे शाला ! (यस्याः) जिस तेरे (अङ्गम् अङ्गम्) प्रत्येक अंङ्ग को, (परुष्परुः) और प्रत्येक जोड़ को (वि चृतामसि) विशेषतया हम दृढ़ ग्रथित करते हैं, ताकि (एनम्) इस ग्रहण करने वाले को तू (दृढा नद्धा) दृढ़-बद्ध हुई, (परिष्कृता) सजी-सजाई (अमुत्र) उस दूसरे स्थान में (आगच्छात्) पहुंच सके।
टिप्पणी
[मन्त्र के वर्णन द्वारा तो यह प्रतीत होता है कि परिग्रह करने वाले को शाला, दृढ़-बद्ध हुई तथा सजी-सजाई भेंट की जा रही है, न कि तोड़-फोड़ करके, और उसके अंङ्गों और जोड़ों को अलग-अलग करके। वह अमुत्र अर्थात् दूसरे स्थान में बिना तोड़े कैसे जायगी, इसके लिये देखो मन्त्र १७, २४)]
विषय
शाला, महाभवन का निर्माण और प्रतिष्ठा।
भावार्थ
हे शाले ! (यस्याः) जिस तेरे चारों और लगे बन्धन के (अङ्गम् अङ्गम्) अंग अंग और (परुः परुः) पोरु पोरु तक को अब हम (वि चृतामसि) विशेष रूप से जुदा कर रहे हैं (अमुत्र) भविष्य काल में तू वही (दृढ़ा) खूब मजबूत (नद्धा) सुबद्ध (परिष्कृता) सुन्दर, सुसज्जित होकर (एनम्) इस स्वामी को (आगच्छतात्) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। शाला देवता। १, ५ , ८, १४, १६, १८, २०, २२, २४ अनुष्टुभः। ६ पथ्यापंक्तिः। ७ परा उष्णिक्। १५ त्र्यवसाना पञ्चपदातिशक्वरी। १७ प्रस्तारपंक्तिः। २१ आस्तारपंक्तिः। २५, ३१ त्रिपादौ प्रजापत्ये बृहत्यौ। २६ साम्नी त्रिष्टुप्। २७, २८, २९ प्रतिष्ठा नाम गायत्र्यः। २५, ३१ एकावसानाः एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Good House
Meaning
Strongly built, tightly secured, beautifully finished and decorated, O house, be taken over by this master resident there where we have completed you part by part at every stage in detail.
Translation
May you come to this person there firmly tied and polished, on whose each and every part, on each and every joint we put light.
Translation
Let this building strongly fastened and prepared and of which limbs and parts I loose (when I am demolishing it to make new one) again come to this man (when it is built up newly).
Translation
Welcome this man to live in thee for future, O house, firm, strongly built and well decorated art thou whose several limbs andjoints we strengthen one by one.
Footnote
This man: The owner of the house.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(अमुत्र) तत्र निर्दिष्टे स्थाने (एनम्) गृहिणम् (आगच्छतात्) आगच्छ। प्राप्नुहि (दृढा) (नद्धा) अवनद्धा। आच्छादिता (परिष्कृता) परि+कृ-क्त। संपर्युषेभ्यः करोतौ भूषणे। पा० ६।१।१३७। इति सुट्। परिनिविभ्यः०। पा० ८।३।७०। इति षत्वम्। अलङ्कृता (यस्याः) (ते) तव (विचृतामसि) (अङ्गमङ्गम्) प्रत्यङ्गम् (परुष्परुः) प्रतिपर्व ॥
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