अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - शाला
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - शाला सूक्त
59
तृणै॒रावृ॑ता पल॒दान्वसा॑ना॒ रात्री॑व॒ शाला॒ जग॑तो नि॒वेश॑नी। मि॒ता पृ॑थि॒व्यां ति॑ष्ठसि ह॒स्तिनी॑व प॒द्वती॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतृणै॑: । आऽवृ॑ता । प॒ल॒दान् । वसा॑ना । रात्री॑ऽइव । शाला॑ । जग॑त: । नि॒ऽवेश॑नी । मि॒ता । पृ॒थि॒व्याम् । ति॒ष्ठ॒सि॒। ह॒स्तिनी॑ऽइव । प॒त्ऽवती॑ ॥३.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
तृणैरावृता पलदान्वसाना रात्रीव शाला जगतो निवेशनी। मिता पृथिव्यां तिष्ठसि हस्तिनीव पद्वती ॥
स्वर रहित पद पाठतृणै: । आऽवृता । पलदान् । वसाना । रात्रीऽइव । शाला । जगत: । निऽवेशनी । मिता । पृथिव्याम् । तिष्ठसि। हस्तिनीऽइव । पत्ऽवती ॥३.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शाला बनाने की विधि का उपदेश।[इस सूक्त का मिलान अथर्व काण्ड ३ सूक्त १२ से करो]
पदार्थ
(तृणैः) तृण आदि से (आवृता) छाई हुई, (पलदान्) पल [अर्थात् सुवर्ण आदि की तोल और विघटिका मुहूर्त आदि] देनेवाले [यन्त्रों] को (वसाना) पहिने हुए (शाला) शाला तू (जगतः) संसार की (निवेशनी) सुख प्रवेश करनेवाली (रात्री इव) रात्रि के समान [होकर] (पद्वती) पैरोंवाली [चारों पैरों पर दृढ़ खड़ी हुई] (हस्तिनी इव) हथिनी के समान (पृथिव्याम्) उचित भूमि पर (मिता) बनाई हुई (तिष्ठसि) (स्थित) है ॥१७॥
भावार्थ
मनुष्य शाला को सुदृढ़ बनाकर अनेक कला-कौशल आदि के यन्त्रों से उपयोगी करे ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(तृणैः) तृणादिपदार्थैः (आवृता) आच्छादिता (पलदान्) म० ५। पलस्य सुवर्णादितोलनस्य विघटिकादिकालस्य च दातॄन् ज्ञापकान् पदार्थान् (वसाना) अ० ३।१२।५। आच्छादयन्ती (रात्री) सुखदात्री निशा (इव) यथा (शाला) (जगतः) चराचरस्य (निवेशनी) सुखस्य प्रवेशयित्री (मिता) निर्मिता (पृथिव्याम्) उचितभूमौ (तिष्ठसि) स्थिता भवसि (हस्तिनी) गजस्त्री (इव) यथा (पद्वती) पादैर्युक्ता। पादचतुष्टयेन दृढं स्थिता ॥
विषय
पद्धती हस्तिनी इव तृणैः
पदार्थ
१. यह (शाला) = गृह (तृणैः आवृता) = तृणों से आच्छादित है, (पलदान् वसाना) = चटाईयों को ओढ़े हुए है-इसकी छत तथा दीवारें तृणों व पलदों से बनी हुई हैं। यह (रात्री: इव) = रात्रि के समान (जगतः निवेशनी) = गतिशील प्राणियों को अपने में निवास देनेवाली है। दिनभर कार्य करके थके हुए लोग रात्रि में घर में आश्रय पाते हैं। २. हे शाले! तू (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (मिता) = मापकर बनाई हुई (तिष्ठसि) = इसप्रकार स्थित है (इव) = जैसेकि पद्धती (हस्तिनी) = प्रशस्त [सुदृढ़] पाँवोंवाली हथिनी स्थित होती है।
भावार्थ
इस घर पर घास का छप्पर रक्खा है, चारों ओर चटाईयों के वेष्टन हैं। सब स्थान प्रमाण से बने हैं। इसप्रकार का यह घर सुदृढ़ स्तम्भों पर इसप्रकार सुरक्षित रहता है, जिस प्रकार हथिनी अपने चार पाँवों पर।
भाषार्थ
(तृणैः) फूस द्वारा (आवृता) [छत्त पर] ढकी हुई, (पलदान् वसाना) पलदों की ओढ़नी ओढ़े हुई (शाला) शाला (रात्रीव) रात्री के सदृश, (जगतः) जङ्गम प्राणिसमूह को (निवेशनी) आश्रय देती है। हे शाला ! (मिता) निर्मित हुई तू (पृथिव्याम्) पृथिवी में (तिष्ठसि) स्थित हुई है, (पद्धती) पैरों वाली (हस्तिनी) हथिनी (इव) के सदृश।
टिप्पणी
[शाला को पैरों वाली हथिनी से उपमित किया है। इस द्वारा सम्भवतः यह सूचित किया है कि शाला के भी पैर हैं। ये पैर सम्भवतः चक्र है, पहिये हैं, जिन पर शाला खड़ी की गई है, ताकि जहां चाहें शाला को चला कर ले जाया जा सके (२४)। अन्यथा "हस्तिनीव" इतना कहना ही पर्याप्त था। "पद्धति"१ द्वारा हथिनी, तथा शाला की गति को सूचित किया है। पलदान् मन्त्र ५ में "पलदानाम्" को बांधने का वर्णन हुआ है (नद्धानि) और मन्त्र १७ में “पलदान" का वर्णन आच्छादनार्थ है (वसाना), अतः इन दो स्थानों में "पलद" शब्द भिन्नार्थक है। वसाना= अथवा पलदों का वस्त्र पहने हुई] [१. इस द्वारा सम्भवतः यह भी सूचित किया है कि शाला चार खम्भों पर खड़ी करनी चाहिये जैसे कि हथिनी चार टांगों पर खड़ी होती है। तथा गति के लिये शाला के खम्भों के नीचे पैर भी होने चाहिये। इस शाला के निर्माण में ईंट का प्रयोग नहीं हुआ।]
विषय
शाला, महाभवन का निर्माण और प्रतिष्ठा।
भावार्थ
(तृणैः) तृण, घास फूस से (आवृता) ढकी हुई और (पलदान्) पलद, फूस के बने टाटियों या चटाइयों को (वसा ना) ओढ़े हुई, (रात्री इव) रात्रि के समान (जगतः निवेशनी) जगत् को अपने भीतर सुख से वास देने हारी (पृथिव्यां) पृथिवी पर (मिता) मापकर बनाई गई, (पद्वती) स्थूल पैरों वाली (हस्तिनी इव) हथिनी के समान (पद्वती) स्थूल स्तम्भों से युक्त होकर (तिष्ठसि) खड़ी है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। शाला देवता। १, ५ , ८, १४, १६, १८, २०, २२, २४ अनुष्टुभः। ६ पथ्यापंक्तिः। ७ परा उष्णिक्। १५ त्र्यवसाना पञ्चपदातिशक्वरी। १७ प्रस्तारपंक्तिः। २१ आस्तारपंक्तिः। २५, ३१ त्रिपादौ प्रजापत्ये बृहत्यौ। २६ साम्नी त्रिष्टुप्। २७, २८, २९ प्रतिष्ठा नाम गायत्र्यः। २५, ३१ एकावसानाः एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Good House
Meaning
Covered with grass against heat, wainscoted with thatch for insulation, nestling all immates of the house as soothing night is for the living world, you stay strong and gracious like a splendid elephant, secured as you are on earth.
Translation
Enclosed with grass, clothed in mats, the mansion, like the night, is the place of rest for living ones. Constructed on the earth, (O mansion), you stand like a cow-eléphant (hastini) supported on large feet.
Translation
This house covered with grass, thatched with straw, comfort- giving to persons like the night, founded on the earth— stands (on the pillars) like a she-elephant on her foot.
Translation
Grass-covered, clad with straw, the house like Night, gives rest to man and beast. Built upon a beautiful plot, thou standest upon the massive pillars as a she-elephant does upon her firm, heavy feet.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(तृणैः) तृणादिपदार्थैः (आवृता) आच्छादिता (पलदान्) म० ५। पलस्य सुवर्णादितोलनस्य विघटिकादिकालस्य च दातॄन् ज्ञापकान् पदार्थान् (वसाना) अ० ३।१२।५। आच्छादयन्ती (रात्री) सुखदात्री निशा (इव) यथा (शाला) (जगतः) चराचरस्य (निवेशनी) सुखस्य प्रवेशयित्री (मिता) निर्मिता (पृथिव्याम्) उचितभूमौ (तिष्ठसि) स्थिता भवसि (हस्तिनी) गजस्त्री (इव) यथा (पद्वती) पादैर्युक्ता। पादचतुष्टयेन दृढं स्थिता ॥
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