अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अव॑ सृज॒पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धावा॑न्। आयु॒र्वसा॑न॒ उप॑ यातु॒शेषः॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा सु॒वर्चाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । सृ॒ज॒ । पुन॑: । अ॒ग्ने॒ । पि॒तृऽभ्य॑: । य: । ते॒ । आऽहु॑त: । चर॑ति । स्व॒धाऽवा॑न् । आयु॑: । वसा॑न: । उप॑ । या॒तु॒ । शेष॑: । सम् । ग॒च्छ॒ता॒म् । त॒न्वा᳡ । सु॒ऽवर्चा॑: ॥२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अव सृजपुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुतश्चरति स्वधावान्। आयुर्वसान उप यातुशेषः सं गच्छतां तन्वा सुवर्चाः ॥
स्वर रहित पद पाठअव । सृज । पुन: । अग्ने । पितृऽभ्य: । य: । ते । आऽहुत: । चरति । स्वधाऽवान् । आयु: । वसान: । उप । यातु । शेष: । सम् । गच्छताम् । तन्वा । सुऽवर्चा: ॥२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(अग्ने) हे जगदग्रणी परमेश्वर ! (यः) जिसने अपने आप को (ते) आप के प्रति (आहुतः) समर्पित कर दिया था, और जो अब (स्वधावान्) निज धारणाशक्ति से सम्पन्न हुआ, मोक्ष पाकर (चरति) आप में विचर रहा है, उसे (पितृभ्यः) मातृशक्ति और पितृशक्ति के प्रति (पुनः) फिर (अवसृज) भेजिये। (शेषः) शरीर के पश्चात् शेष रहा वह अजन्मा जीवात्मा, (आयुः वसानः) आयु धारण कर, (उप यातु) हमारे पास प्राप्त हो। (तन्वा) शरीर के साथ (सं गच्छताम्) संगत हो, (सुवर्चाः) और उत्तम वर्चस्वी हो।
टिप्पणी -
[मुक्ति के पश्चात् पुनर्जन्म का वर्णन इस मन्त्र में है। मन्त्र में अल्पकालिक मुक्ति का वर्णन है। अल्पकालिक मुक्ति में लिङ्ग शरीर जीवात्मा के साथ रहता है, जो कि पुनर्जन्म के लिये बीजरूप होता है। स्वधावान् = उणा० ४। १७६ में "स्वधा" का व्युत्पादन बाहुलकात् "स्वद्" धातु से किया है, जिस का अर्थ है "आस्वादन"। इस अर्थ में "स्वधावान्" का अर्थ होगा - "आनन्दरस का आस्वादन करनेवाला"।]