अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
त्रिक॑द्रुकेभिःपवते॒ षडु॒र्वीरेक॒मिद्बृ॒हत्। त्रि॒ष्टुब्गा॑य॒त्री छन्दां॑सि॒ सर्वा॒ ता य॒मआर्पि॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिऽक॑द्रुकेभि: । प॒व॒ते॒ । षट् । उ॒र्वी: । एक॑म् । इत् । बृ॒हत् । त्रि॒ऽस्तुप:। गा॒य॒त्री । छन्दां॑सि । सर्वा॑ । ता । य॒मे । आर्पि॑ता ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिकद्रुकेभिःपवते षडुर्वीरेकमिद्बृहत्। त्रिष्टुब्गायत्री छन्दांसि सर्वा ता यमआर्पिता ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिऽकद्रुकेभि: । पवते । षट् । उर्वी: । एकम् । इत् । बृहत् । त्रिऽस्तुप:। गायत्री । छन्दांसि । सर्वा । ता । यमे । आर्पिता ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(एकम् इत्) एक ही (बृहत्) महा ब्रह्म, (त्रिकटुकेभिः) पृथिवी-सम्बन्धी तीन साधनों द्वारा, (षट् उर्वीः) पृथिवी के ६ भूखण्डों को (पवते) पवित्र कर रहा है। और उसी (यमे) जगन्नियामक में, (त्रिष्टुप्, गायत्री) त्रिष्टुप् और गायत्री, तथा (ता) वे अन्य (सर्वा छन्दांसि) सब छन्द (आर्पिता) समर्पित हैं।
टिप्पणी -
[कद्रूः= इयं पृथिवी कद्रूः (श० ब्रा० ३।६।२।२), त्रि= जल, वायु, सूर्य। षट् उर्वीः = भूमध्यरेखा के उत्तर तथा दक्षिण की ओर तीन-तीन खण्ड= उष्ण खण्ड, शीतोष्णखण्ड तथा शीतखण्ड। इन खण्डों को भूगोलशास्त्र में "कटिबन्ध" कहते है। त्रिष्टुप् आदि छन्दों का वर्णन यह दर्शाने के लिये किया है कि ये हमारे व्यावहारिक नैतिक तथा आत्मिक जीवनों को पवित्र करते हैं।]