अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
उ॑रूण॒साव॑सु॒तृपा॑वुदुम्ब॒लौ य॒मस्य॑ दू॒तौ च॑रतो॒ जनाँ॒ अनु॑। ताव॒स्मभ्यं॑दृ॒शये॒ सूर्या॑य॒ पुन॑र्दाता॒मसु॑म॒द्येह भ॒द्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रु॒ऽन॒सौ । अ॒सु॒ऽतृपौ॑ । उ॒दु॒म्ब॒लौ । य॒मस्य॑ । दू॒तौ । च॒र॒त॒:। जना॑न् । अनु॑ । तौ । अ॒स्मभ्य॑म् । दृ॒शये॑ । सूर्या॑य । पुन॑: । दा॒ता॒म् । असु॑म् । अ॒द्य । इ॒ह । भ॒द्रम् ॥२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
उरूणसावसुतृपावुदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु। तावस्मभ्यंदृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठउरुऽनसौ । असुऽतृपौ । उदुम्बलौ । यमस्य । दूतौ । चरत:। जनान् । अनु । तौ । अस्मभ्यम् । दृशये । सूर्याय । पुन: । दाताम् । असुम् । अद्य । इह । भद्रम् ॥२.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(यमस्य) जगन्नियामक के (दूतौ) दो दूत, अर्थात् दो परितापक कुत्ते - जो कि (उरूणसौ) महानासिकावाले वा महाविनाशी, (असुतृपौ) प्राण-भक्षण करके तृप्त होनेवाले, (उदुम्बलौ) महाबली हैं, जो कि (जनान् अनु) सर्वसाधारण जनों में निरन्तर (चरतः) विचर रहे हैं, (तौ) वे दो कुत्ते, (अद्य इह) आज इस जगत् में (अस्मभ्यम्) हमें (भद्रम्) सांसारिक सुखदायक (असुम्) प्राण प्रज्ञा बल (पुनः) फिर (दाताम्) प्रदान करें, (सूर्याय दृशये) ताकि हम सूर्य का दर्शन कर सकें।
टिप्पणी -
[संसारी लोग सांसारिक-जीवन से विमुख नहीं होना चाहते, चाहे वे जानते हैं कि रजःप्रधान तमोमय जीवन, तथा तमःप्रधान रजोमय जीवन महाविनाशी तथा प्राणभक्षक हैं। सूर्यास्त होने पर भोगमय जीवन के पश्चात् भोगी जब निद्रा की गोद में विश्राम पाने लगते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थनाएं करते हैं कि आज की रात्रि के पश्चात् हमें फिर प्राण प्रज्ञा और बल प्रदान कीजिये, ताकि जागरित होकर हम पुनः सूर्य का दर्शन कर निज सुखमय जीवन व्यतीत कर सकें। उरूणसौ= उरु+नस (= नासिका, तथा नस् कौटिल्ये)। महानासिका द्वारा कुत्तों की तेज सूंघने की शक्ति का वर्णन किया है। ये दो कुत्ते अपनी भोगसामग्री को सूंघ कर सर्वसाधारण को भोगों में प्रवृत्त करते रहते हैं, और व्यक्तियों को कुटिल मार्ग पर चलाते रहते हैं। उदुम्बलौ = तैतिरीय आरण्यक ६।३।२ की ऋचा में उलुम्बलौ पाठ है, और इस का अर्थ किया है - "प्रभूतबलयुक्तौ”। सम्भवतः उलुम् = उरुम्। अतः उदुम्=उलुम् = उरुम्, अर्थात् " उरु”। दूतौ=दू उपतापे।]