अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
यास्ते॑ शो॒चयो॒रंह॑यो जातवेदो॒ याभि॑रापृ॒णासि॒ दिव॑म॒न्तरि॑क्षम्। अ॒जं यन्त॒मनु॒ ताःसमृ॑ण्वता॒मथेत॑राभिः शि॒वत॑माभिः शृ॒तं कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ते॒ । शो॒चय॑: । रंह॑य: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । याभि॑: । आ॒ऽपृ॒णासि॑ । दिव॑म् । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒जम् । यन्त॑म् । अनु॑ । ता: । सम् । ऋ॒ण्व॒ता॒म् । अथ॑ । इत॑राभि: । शि॒वऽत॑माभि: । शृ॒तम् । कृ॒धि॒ ॥२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यास्ते शोचयोरंहयो जातवेदो याभिरापृणासि दिवमन्तरिक्षम्। अजं यन्तमनु ताःसमृण्वतामथेतराभिः शिवतमाभिः शृतं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठया: । ते । शोचय: । रंहय: । जातऽवेद: । याभि: । आऽपृणासि । दिवम् । अन्तरिक्षम् । अजम् । यन्तम् । अनु । ता: । सम् । ऋण्वताम् । अथ । इतराभि: । शिवऽतमाभि: । शृतम् । कृधि ॥२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(जातवेदः) हे समग्र पदार्थों में विद्यमान सर्वव्यापक जगदीश्वर ! (ते) आप की (याः) जो (शुचयः) पवित्र करनेवाली (रहयः) अनुग्रहात्मक प्रवृत्तियां हैं, (याभिः) जिनके द्वारा आप (दिवम्) द्युलोक की ओर (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षलोक को (आपृणासि) परिपालित तथा परिपूर्ण कर रहे हैं, (ताः) आप की वे अनुग्रहात्मक प्रवृत्तियां (यन्तम्) मोक्ष की ओर जाते हुए (अजम्) अजन्मा जीवात्मा के (अनु) अनुकूल (सम् ऋण्वताम्) सुसङ्गत हो जाय। और यदि जीवात्मा ने पुनर्जन्म ग्रहण करना हो, तब आप की (इतराभिः शिवतमाभिः) अनुग्रहात्मक प्रवृत्तियों से भिन्न जो निग्रहात्मक अत्यन्त कल्याणकारिणी प्रवृत्तियाँ हैं, उनके द्वारा, (शृतम्) इस जीवात्मा को जन्म देकर आप मोक्ष के निमित्त इसका परिपाक (कृधि) कीजिये।
टिप्पणी -
[अन्त्येष्टि के पश्चात् या मृत्यु के पश्चात्, अज जीवात्मा की दो गतियां हो सकती हैं–या तो जीवात्मा मोक्ष को प्राप्त हो और परमेश्वर की अनुग्रहात्मक प्रवृत्तियों का पात्र बने, या कर्मानुसार पुनः जन्म ग्रहण करे और अपने कर्मों का परिपाक प्राप्त करे। परमेश्वर की यह निग्रहात्मक प्रवृत्तियां भी जीवात्मा का कल्याण करनेवाली होती हैं। कर्मों का परिपाक भुगतकर जीवात्मा पवित्र होकर मोक्ष के अधिकारी बन सकते हैं। कर्मपरिपाक = सुख और दुःख।]