अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 51
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
इ॒दमिद्वा उ॒नाप॑रं ज॒रस्य॒न्यदि॒तोऽप॑रम्। जा॒या पति॑मिव॒ वास॑सा॒भ्येनं भूम ऊर्णुहि॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । इत् । वै । ऊं॒ इति॑ । न । अप॑रम् । ज॒रसि॑ । अ॒न्यत् । इ॒त: । अप॑रम् । जा॒या । पति॑म्ऽइव । वास॑सा । अ॒भि । ए॒न॒म् । भू॒मे॒ । ऊ॒र्णु॒हि॒ ॥२.५१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमिद्वा उनापरं जरस्यन्यदितोऽपरम्। जाया पतिमिव वाससाभ्येनं भूम ऊर्णुहि॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । इत् । वै । ऊं इति । न । अपरम् । जरसि । अन्यत् । इत: । अपरम् । जाया । पतिम्ऽइव । वाससा । अभि । एनम् । भूमे । ऊर्णुहि ॥२.५१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 51
भाषार्थ -
(इदम् इत्) यह भूमण्डल ही (वै उ) निश्चय से तेरे लिये है, (अपरम्) इससे भिन्न लोक तेरे लिये (न) नहीं है। (जरसि) जरावस्था में (इतः) इस गृहस्थाश्रम से (अन्यद्) भिन्न (अपरम्) दूसरा आश्रम तेरे लिये है। (जाया) पत्नी (इव) जैसे (वाससा) वस्त्रों के निर्माण द्वारा (पतिम्) पति को आच्छादित करती है, वैसे (भूमे) हे मातृभूमि ! तू (एनम्) इस नवजात को (वाससा) वस्त्र आदि द्वारा (अभि ऊर्णुहि) आच्छादित करती रह।
टिप्पणी -
[मन्त्र ५० और ५१ का यह अभिप्राय है कि सौर-मण्डल के जीवात्मा मृत्यु के पश्चात्, पुनः इस भूमण्डल पर ही जन्म लेते रहते हैं, जब तक कि उनका मोक्ष नहीं होता। गृह्यवस्त्रों का निर्माण करना पत्नी का कर्तव्य है, यह वेदोक्त विधि है, यथा- (अथर्व १४।१।४५, १४।२।५१)। जरसि– ५० वर्षों की आयु के पश्चात्।]