अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अति॑ द्रव॒श्वानौ॑ सारमे॒यौ च॑तुर॒क्षौ श॒बलौ॑ सा॒धुना॑ प॒था। अधा॑पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॒ अपी॑हि य॒मेन॒ ये स॑ध॒मादं॒ मद॑न्ति ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ । द्र॒व॒ । श्वानौ॑ । सा॒र॒मे॒यौ । च॒तु॒:ऽअ॒क्षौ । श॒बलौ॑ । सा॒धुना॑ । प॒था । अध॑ । पि॒तॄन् । सु॒ऽवि॒दत्रा॑न् । अपि॑ । इ॒हि॒ । य॒मेन॑ । ये । स॒ध॒ऽमाद॑म् । मद॑न्ति ॥२.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अति द्रवश्वानौ सारमेयौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा। अधापितॄन्त्सुविदत्राँ अपीहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठअति । द्रव । श्वानौ । सारमेयौ । चतु:ऽअक्षौ । शबलौ । साधुना । पथा । अध । पितॄन् । सुऽविदत्रान् । अपि । इहि । यमेन । ये । सधऽमादम् । मदन्ति ॥२.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
हे आत्मोन्नति चाहनेवाले ! तू (साधुना पथा) सुपथ द्वारा, (सारमेयौ) चञ्चल लक्ष्मी के मानो पुत्रों को, -अर्थात् (चतुरक्षी) चार-चार आंखोंवाले, तथा (शबलौ) संस्काररूप में शयनकारी और बलशाली (श्वानौ) दो कुत्तों को (अति द्रव) द्रुतगति से अतिक्रमण कर जा, लांघ जा। (अधा) तदनन्तर तू (सुविदत्रान्) सुविज्ञ (पितॄन्) पितरों को (अपीहि) प्राप्त हो, (ये) जो पितर कि (यमेन) जगन्नियामक परमेश्वर के साथ (सधमादं मदन्ति) पारस्परिक मोद अर्थात् हर्ष में हर्षित रहते हैं।
टिप्पणी -
[सारमेयौ = सरमापुत्रौ। सरमा = सर (=सरण करनेवाली, चञ्चल) + मा (= लक्ष्मी)। शबलौ = श (=शयन) + बल। श्वानौ= "रजःप्रधान तमस्" और "तमःप्रधान रजस्" ये दो कुत्ते हैं। "रजःप्रधान तमस्" अर्थोन्मुखी होता है, और "तमःप्रधान रजस्" कामोन्मुखी होता है। वस्तुतः ये दोनों ही "अर्थ और कामप्रधान" होते हैं। लक्ष्मी के लालची पुत्र हैं- "रजःप्रधान तमोगुणी" व्यक्ति, तथा "तमःप्रधान रजोगुणी" व्यक्ति। ये दोनों दो कुत्तों के सदृश हैं। कुत्ते लोभी और कामी होते हैं। अंग्रेजी शब्द "conine-appetite - कुत्ते के लोभ को दर्शाता है। तथा "श्वेवैकः कपिरिवैकः कुमारः सर्वकेशकः। प्रियो दृश इव भूत्वा गन्धर्वः सचते स्त्रियस्तमितो नाशयामसि ब्रह्मणा वीर्यावता॥" (अथर्व० ४।३७।११) में श्व-वृत्ति व्यक्ति को स्त्रीभोगी अर्थात् कामी कहा है। चतुरक्षौ= श्व-प्रवृत्तिवाले दो प्रकार के व्यक्ति अर्थात् रजःप्रधान तमोगुणी व्यक्ति और तमःप्रधान रजोगुणी व्यक्ति यद्यपि होते हैं - अर्थोन्मुखी और कामोन्मुखी, तब भी इन की दृष्टियों में धर्म अर्थ काम मोक्ष ये चारों रहते हैं। इस दृष्टि से इन्हें चतुरक्षौ कहा है। "साधुना पथा"-इन कुत्तों से बचने का उपाय है "सुपथ" का अवलम्बन। अर्थात् धर्मानुसार अर्थ कमाना, और त्यागपूर्वक उस का भोग करना। यथा-"अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान्” (यजु० ४०।१६); तथा "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः” (यजु० ४०।१)। सुपथ के अवलम्बन का परिणाम यह होता है कि सुपथगामी भी उस स्थान को पाने का अधिकारी बन जाता है, जिस स्थान को "सुविदत्र" पितरों ने प्राप्त किया हुआ है।]