अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 54
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
पू॒षात्वे॒तश्च्या॑वयतु॒ प्र वि॒द्वानन॑ष्टपशु॒र्भुव॑नस्य गो॒पाः। स त्वै॒तेभ्यः॒परि॑ ददत्पि॒तृभ्यो॒ऽग्निर्दे॒वेभ्यः॑ सुविद॒त्रिये॑भ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒षा । त्वा॒ । इ॒त: । च्य॒व॒य॒तु॒ । प्र । वि॒द्वान् । अन॑ष्टऽपशु: । भुव॑नस्य । गो॒पा: । स: । त्वा॒ । ए॒तेभ्य॑: । परि॑ । द॒द॒त् । पि॒तृऽभ्य॑: । अ॒ग्नि: । दे॒वेभ्य॑: । सु॒ऽवि॒द॒त्रिये॑भ्य: ॥२.५४॥
स्वर रहित मन्त्र
पूषात्वेतश्च्यावयतु प्र विद्वाननष्टपशुर्भुवनस्य गोपाः। स त्वैतेभ्यःपरि ददत्पितृभ्योऽग्निर्देवेभ्यः सुविदत्रियेभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठपूषा । त्वा । इत: । च्यवयतु । प्र । विद्वान् । अनष्टऽपशु: । भुवनस्य । गोपा: । स: । त्वा । एतेभ्य: । परि । ददत् । पितृऽभ्य: । अग्नि: । देवेभ्य: । सुऽविदत्रियेभ्य: ॥२.५४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 54
भाषार्थ -
(पूषा) पुष्टिकर्ता, (विद्वान्) सर्वज्ञ, (अनष्टपशुः) प्राणियों का अविनाशक, (भुवनस्य) उत्पन्न जगत् का रक्षक परमेश्वर, हे सद्गृहस्थी ! (त्वा) तुझे, निज प्रेरणा द्वारा, (इतः) इस गृहस्थ-कर्म से (प्रच्यावयतु) प्रच्युत करे, हटाए। (सः) वह (अग्निः) जगदग्रणी (त्वा) तुझे (सुविदत्रियेभ्यः) सुविज्ञ (एभ्यः) इन (पितृभ्यः देवेभ्यः) पितृदेवों के प्रति (परि ददत्) सुपुर्द करे।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह है कि गृहस्थ आदि के धन्धों से छुटकारा१, और अगले आश्रमों में जाकर सद्गुरुओं की प्राप्ति परमेश्वरीय कृपा और अनुग्रह का परिणाम है। अनष्टपशु = वेद में पशुओं के ५ विभाग किये हैं, -गावः, अश्वाः,पुरुषाः, अजावयः (अथर्व ११।२॥९), यथा "तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वा पुरुषा अजावयः"। जब तक मनुष्य का मोक्ष नहीं होता, तब तक वे पशुसमान होते हैं। आहार, निद्रा, भय, राग द्वेष आदि की दृष्टि से वे पशुसमान ही होते हैं। ऐसी अवस्था में इन की मत्यु और नए-नए जन्म होते रहते हैं। इन मृत्युओं में इन का विनाश न समझना चाहिए। जन्म-मरण-परम्परा जीवात्माओं की समुन्नति के लिये होती है, और इस परम्परा का अवसान मोक्ष में होता है।] [१. अथवा पुष्टिकर्ता परमेश्वर तुझे इस शरीर से छुटकारा सुविज्ञ पितृदेवों के घर तुझे नया जन्म दे।]