अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
शि॒वास्ते॑ स॒न्त्वोष॑धय॒ उत्त्वा॑हार्ष॒मध॑रस्या॒ उत्त॑रां पृथि॒वीम॒भि। तत्र॑ त्वादि॒त्यौ र॑क्षतां सूर्याचन्द्र॒मसा॑वु॒भा ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वा: । ते॒ । स॒न्तु॒ । ओष॑धय: । उत् । त्वा॒ । अ॒हा॒र्ष॒म् । अध॑रस्या: । उत्त॑राम् । पृ॒थि॒वीम् । अ॒भि । तत्र॑ । त्वा॒ । आ॒दि॒त्यौ । र॒क्ष॒ता॒म् । सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ । उ॒भा ॥२.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवास्ते सन्त्वोषधय उत्त्वाहार्षमधरस्या उत्तरां पृथिवीमभि। तत्र त्वादित्यौ रक्षतां सूर्याचन्द्रमसावुभा ॥
स्वर रहित पद पाठशिवा: । ते । सन्तु । ओषधय: । उत् । त्वा । अहार्षम् । अधरस्या: । उत्तराम् । पृथिवीम् । अभि । तत्र । त्वा । आदित्यौ । रक्षताम् । सूर्याचन्द्रमसौ । उभा ॥२.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 15
भाषार्थ -
(ते) तेरे लिये (ओषधयः) ओषधियां (शिवाः सन्तु) कल्याणकारिणी हों, (त्वा) तुझे (अधरस्याः) नीचे की भूमि से (उत्तराम् पृथिवीम् अभि) ऊपर की पृथिवी की ओर (उत् अहार्षम्) मैं उठा लाया हूं। (तत्र) वहां अर्थात् पृथिवी पर (उभौ सूर्याचन्द्रमसौ) दोनों सूर्य और चन्द्रमा (आदित्यौ) जो कि निज प्रकाशों द्वारा प्रदीप्त हैं, (त्वा) तुझे (रक्षन्तु) सुरक्षित करें।
टिप्पणी -
[अधर की पृथिवी है, समतल भूमि; और उत्तरा पृथिवी है पर्वतभूमि, पर्वत भूमि स्वास्थ्यप्रद होती है। पर्वत भूमि स्वास्थ्यकरी होती है, चूंकि वहां वायु स्वच्छ होती है, और सूर्य की गर्मी कम होती है, चन्द्रमा भी पृथिवी की अशुद्ध वायु से अमिश्रित हुआ प्रकाश देता है। तथा ताजी और विविध प्रकार की ओषधियां भी सुगमता से प्राप्त हो सकती हैं। आदित्यौ। आदित्यः "आदीप्तो भासा" इति वा (निरुक्त २।४।१३), अर्थात् जो सूर्य और चन्द्रमा दीप्ति द्वारा आदीप्त होते हैं]।