अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
सर्वो॒ वै तत्र॑ जीवति॒ गौरश्वः॒ पुरु॑षः प॒शुः। यत्रे॒दं ब्रह्म॑ क्रि॒यते॑ परि॒धिर्जीव॑नाय॒ कम् ॥
स्वर सहित पद पाठसर्व॑: । वै । तत्र॑ । जी॒व॒ति॒ । गौ: । अश्व॑: । पुरु॑ष: । प॒शु॒: । यत्र॑ । इ॒दम् । ब्रह्म॑ । क्रि॒यते॑ । प॒रि॒ऽधि: । जीव॑नाय । कम् ॥२.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वो वै तत्र जीवति गौरश्वः पुरुषः पशुः। यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम् ॥
स्वर रहित पद पाठसर्व: । वै । तत्र । जीवति । गौ: । अश्व: । पुरुष: । पशु: । यत्र । इदम् । ब्रह्म । क्रियते । परिऽधि: । जीवनाय । कम् ॥२.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(तत्र) उस अवस्था में (वै) निश्चय से (जीवति) जीवित रहता है, (सर्व) सभी (गौः, अश्वः पुरुषः, पशुः) गौ अश्व तथा पुरुष और पशु, (यत्र) जिस अवस्था में (इदम् कम् ब्रह्म) इस सुखस्वरूप ब्रह्म को (जीवनाय) जीवन के लिये (परिधिः) परिधि (क्रियते) कर लिया जाता है ।।२५।।
टिप्पणी -
["गौः, अश्वः, पुरुषः, पशुः" के दो अभिप्राय सम्भव हैं (१) गौ, अश्व, पुरुष, इन में से प्रत्येक पशु है। यथा “तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः" (अथर्व० ११।२।९) में गौ आदि पांचों को पशु कहा है। (२) गौ, अश्व, पुरुष तथा तद्भिन्न पशु। पशु जात्येकवचन है। ब्रह्म के भी दो अर्थ हैं। (१) परमेश्वर (२) वेद। ये दोनों परिधि हैं। परमेश्वरार्थ में अभिप्राय है ब्रह्म को निज की परिधि मानना। अपने-आप को इस परिधि में केन्द्ररूप में जानकर यह समझना कि मैं ब्रह्म द्वारा घिरा हुआ हूं, जो कि कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता है, अतः सदा सत्कर्म करना। इससे जीवन पवित्र और सात्त्विक बन कर जीवनावधि से पूर्व नहीं मरता। जीवनावधि है १०० वर्ष। दूसरी परिधि है, वेद। जैसे कि कहा है कि "सप्तास्यासन् परिधयः" (यजु० ३१।१५) अर्थात् सप्तविध छन्दों वाला वेद परिधिरूप है। इस परिधि के भीतर अपने आप को रख कर वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलने से व्यक्ति जीवनावधि से पहले नहीं मरता, अपितु "शतात्" से भी “भूयः" जीवित रह सकता है। वेद भी "कम्" है, यतः वेद सुखी जीवन का मार्ग दर्शाता है]।