अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
वाता॑त्ते प्रा॒णम॑विदं॒ सूर्या॒च्चक्षु॑र॒हं तव॑। यत्ते॒ मन॒स्त्वयि॒ तद्धा॑रयामि॒ सं वि॒त्स्वाङ्गै॒र्वद॑ जि॒ह्वयाल॑पन् ॥
स्वर सहित पद पाठवाता॑त् । ते॒ । प्रा॒णम् । अ॒वि॒द॒म् । सूर्या॑त् । चक्षु॑: । अ॒हम् । तव॑ । यत् । ते । मन॑: । त्वयि॑ । तत् । धा॒र॒या॒मि॒ । सम् । वि॒त्स्व॒ । अङ्गै॑: । वद॑ । जि॒ह्वया॑ । अल॑पन् ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वातात्ते प्राणमविदं सूर्याच्चक्षुरहं तव। यत्ते मनस्त्वयि तद्धारयामि सं वित्स्वाङ्गैर्वद जिह्वयालपन् ॥
स्वर रहित पद पाठवातात् । ते । प्राणम् । अविदम् । सूर्यात् । चक्षु: । अहम् । तव । यत् । ते । मन: । त्वयि । तत् । धारयामि । सम् । वित्स्व । अङ्गै: । वद । जिह्वया । अलपन् ॥२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(वातात्) वायु से (ते) तेरे (प्राणम्) प्राण को (अविदम) मैंने पाया है, (सूर्यात्) सूर्य से (तव) तेरी (चक्षुः) चक्षु प्रर्थात् दृष्टिशक्ति को (अहम्) मैंने पाया है। (यत्) जो (ते) तेरा (मनः) मन है (तत्) उसे (त्वयि) तुझ में (धारयामि) मैं स्थापित करता हूं, (अङ्गैः) समग्र अङ्गों से सम्पन्न हुआ तु (संवित्स्व) सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर, और (जिह्वया) जिह्वा द्वारा (अलपन्) प्रलाप न करता हुआ (वद) बोला कर।
टिप्पणी -
[माणवक को खुली अन्तरिक्षीय वायु में रखना चाहिये, तथा अन्धेरे कमरों में उसके अध्ययन के स्थान में सूर्य के प्रकाश में उसका अध्ययन अध्यापन होना चाहिये। उसके मन में स्थिरता पैदा करनी चाहिये, मन की चञ्चलता का निरोध करना चाहिये ताकि वह सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर सके। दण्ड प्रदान द्वारा उसका कोई अङ्ग विकृत नहीं करना चाहिये। व्यर्थ की बातचीत से उसे रोकना चाहिये। उसे ठीक प्रकार बोलना सिखाना चाहिये। अथवा मूर्छा तथा रोग के कारण माणवक के प्राण तथा चक्षुः आदि इन्द्रियों में जो क्षति आ गई है, और मनोविकार हो गया है, तथा अङ्ग विकृत हो गया है, और बोलने में जिह्वा का पक्षाघात हो गया है; इन सब को स्वस्थ करने का कथन मन्त्र में हुआ है]