अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
श॒तं ते॒ऽयुतं॑ हाय॒नान्द्वे यु॒गे त्रीणि॑ च॒त्वारि॑ कृण्मः। इ॑न्द्रा॒ग्नी विश्वे॑ दे॒वास्तेऽनु॑ मन्यन्ता॒महृ॑णीयमानाः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । ते॒ । अ॒युत॑म् । हा॒य॒नान् । द्वे इति॑ । यु॒गे इति॑ । त्रीणि॑ । च॒त्वारि॑ । कृ॒ण्म॒: । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । विश्वे॑ । दे॒वा: । ते । अनु॑ । म॒न्य॒न्ता॒म् । अहृ॑णीयमाना: ॥२.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं तेऽयुतं हायनान्द्वे युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः। इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामहृणीयमानाः ॥
स्वर रहित पद पाठशतम् । ते । अयुतम् । हायनान् । द्वे इति । युगे इति । त्रीणि । चत्वारि । कृण्म: । इन्द्राग्नी इति । विश्वे । देवा: । ते । अनु । मन्यन्ताम् । अहृणीयमाना: ॥२.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 21
भाषार्थ -
हे ब्रह्मचारिन् ! (ते) तेरे लिये (शतम्, हायनान्) सौ वर्ष (कृण्मः) हम निश्चित करते हैं। और (अयुतम्) दस हजार [१०,०००] वर्षों की संख्या (१) के स्थान में पूर्व पूर्व के क्रम में ४३२ रखकर ४३२००० कलियुग की संख्या का निर्माण करते हैं। (द्वे युगे) कलियुग की संख्या को द्विगुणित करके द्वापर की संख्या ८६४००० करते हैं। (त्रीणि युगानि) कलियुग की संख्या को त्रिगुणित करके त्रेता की संख्या १२९६००० करते हैं। (चत्वारि युगानि) कलियुग की संख्या को चार गुणा करके सतयुग की संख्या १७२८००० करते हैं। इस प्रकार चतुर्युगी की संख्या ४३२,०००० वर्ष करते हैं। (इन्द्राग्नी) इन्द्र अर्थात् राजा और अग्नि अर्थात् अग्रणी प्रधानमन्त्री तथा (विश्वे देवाः) तथा राष्ट्र के सब विद्वान् (ते) तेरे परिज्ञान के लिये (अहृणीयमानाः) क्रोध किये विना (अनुमन्यताम्) युगशिक्षा को अनुकूल मान लें अर्थात् इसे स्वीकृत कर लें।
टिप्पणी -
[अहृणीयमानाः, "हृणीयते क्रुध्यतिकर्मा" (निघं० २।१२), तथा "हृणीङ् रोषणे लज्जायाञ्च" (कण्ड्वादिः)। लज्जा= संकोच। ब्रह्मचारी को युगों की संख्यानिर्माण की शिक्षा दी गई है। मन्त्र में एक चतुर्युगी के काल का कथन किया है, जिसका कि परिज्ञान ब्रह्मचारी अर्थात् विद्यार्थी को करा देना चाहिये। जैसे विद्यार्थी को दिनांक, मास तथा संवत् या सन् का परिज्ञान वर्तमान में कराया जाता है, वैसे वैदिक विद्यार्थी को, एक चतुर्युगी के काल के परिज्ञान का कथन मन्त्र में हुआ है]। मन्त्र में युग शब्द युगार्थक है इसमें निम्नलिखित मन्त्र प्रमाण है। यथा - या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा। मनै नु वभ्रूणामह" शतं धामानि सप्त च ॥ यजु० १२।७५।। (याः) जो (ओषधीः) ओषधियाँ (पूर्वाः जाताः) प्रथम पैदा हुई हैं, (देवेभ्यः) देवों की अपेक्षया (त्रियुगम्, पुरा) तीन युग पहिले अर्थात् पुराकाल में उन (बभ्रूणाम्) भरण-पोषण करने वाली ओषधियों के (शत धामानि, सप्त च) सौ और सात धामों को (अहम्) मैं (नु) निश्चय से (मनै) जानता हूं। [इस मन्त्र में, देवों से तीन युग पुराकाल में उत्पन्न ओषधियों का कथन हुआ है। इसमें पुरातत्त्वविद्या का निर्देश हुआ है। सम्भवतः प्रथम ओषधियों के पुराकाल, तदनन्तर जलीय जन्तुओं के पुराकाल, तदनन्तर पृथिवी वासी जन्तुओं के पुराकाल का निर्देश मन्त्र में हुआ है। तत्पश्चात् देव अर्थात् मनुष्य देवों की उत्पत्ति निर्दिष्ट की है। ये तीन युग हैं कृतयुग [सत्ययुग], त्रेत्रा तथा द्वापरयुग। मनुष्य युग है कलियुग। यजुर्वेद में "तेवेभ्यः", तथा व्याख्येय मन्त्र में "विश्वेदेवाः" का कथन हुआ है। दोनों पदों में “देव" पद का एक ही अभिप्राय है]। "चतुर्युगी" का वर्णन भूमिसम्बन्धी पुरावृत्त के ज्ञान के लिये है। भूमि के पुरातत्त्व के सम्बन्ध में देखो (अथर्व० ११।८।७; १२।१।८,६०)।