अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - त्रिपदानुष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
यत्क्षु॒रेण॑ म॒र्चय॑ता सुते॒जसा॒ वप्ता॒ वप॑सि केशश्म॒श्रु। शुभं॒ मुखं॒ मा न॒ आयुः॒ प्र मो॑षीः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । क्षु॒रेण॑ । म॒र्चय॑ता । सु॒ऽते॒जसा॑ । वप्ता॑ । वप॑सि । के॒श॒ऽश्म॒श्रु । शुभ॑म् । मुख॑म् । मा । न॒: । आयु॑: । प्र । मो॒षी॒: ॥२.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्क्षुरेण मर्चयता सुतेजसा वप्ता वपसि केशश्मश्रु। शुभं मुखं मा न आयुः प्र मोषीः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । क्षुरेण । मर्चयता । सुऽतेजसा । वप्ता । वपसि । केशऽश्मश्रु । शुभम् । मुखम् । मा । न: । आयु: । प्र । मोषी: ॥२.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 17
भाषार्थ -
(यत्) जो (मर्चयता) शुद्ध और (सुतेजसा) उत्तम प्रकार से तेज (क्षुरेण) उस्त्रे के द्वारा, (वप्ता) तू छेदन करने वाला नापित (केशश्मश्रु) केशों तथा मूंछ दाढ़ी को (वपसि) काटता है, तो (नः) हमारे (शुभम्, मुखम्) मुख की शोभा को बढ़ा, तथा (आयु) जीवनकाल को (मा) न (प्रमोषीः) नुकसान पहुंचा।
टिप्पणी -
[मर्चयता= "मर्च" धातु शब्दार्थक है। यथा “गज मार्ज शब्दार्थों, मर्च च (चुरादिः) परन्तु उणा० ३।४३ में "मर्च" को सौत्रधातु कहा है (दयानन्दः); "मर्च इति सौत्रो धातुरिति बहवः" (कौमुदी टीका, ज्ञानेन्द्र सरस्वती)। अतः इनके मत में मर्च धातु चुरादिगणी नहीं । मर्च= To cleanse (आप्टे), अर्थात् शोधन। यह अर्थ मन्त्र में सङ्गत प्रतीत होता है। क्षुर को शुद्ध अर्थात् स्वच्छ तथा तेज होना ही चाहिये। सभी क्षौर-कर्म ठीक सम्पन्न हो सकता है। मोषीः = मुष स्तेये। स्तेय द्वारा द्रव्यापहरण किया जाता है। हमारे मुख की शोभा और आयु को वपन द्वारा तू अपहृत न कर, यह भाव है। ब्रह्मचारी विद्याग्रहण के लिये उपनयन पूर्वक गुरु के आश्रय में जाता है। वैदिक विधि में उस समय उसका क्षौरकर्म होना चाहिये। विद्या के ग्रहण में आयु का विचार नहीं है। अल्पायु तथा युवा भी उपनयन पूर्वक विद्या ग्रहण कर सकता है। युवा की दृष्टि से "श्मश्रु" पद पठित है१]। [१. मन्त्र १७ की व्याख्या में सायणाचार्य ने 'देवसविता" का अध्याहार करके अर्थ किया है, "हे संस्कारक पुरुष !" यह अर्थ आधिभौतिक है, आधिदेविक नहीं। इसलिये प्रकरणानुसार "देव और सविता" आदि पदों के आधिभौतिक अर्थ भी सम्भव हैं, यह सायणाचार्य को भी अभिप्रत है। ऋषि दयानन्द ने अपने वैदिक भाष्यों में दैवत नामों के प्रायः आधिभौतिक अर्थ किये हैं। सायणाचार्य के अनुसार सविता है "वप्ता, केशानां छेता नापितः" अर्थात् नाई। वप्ता= वप बीजसन्ताने छेदने च (भ्वादिः)। मन्त्र में वप्ता पद छेदनार्थक है, नापित है।]