अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
दे॒वानां॑ हे॒तिः परि॑ त्वा वृणक्तु पा॒रया॑मि त्वा॒ रज॑स॒ उत्त्वा॑ मृ॒त्योर॑पीपरम्। आ॒राद॒ग्निं क्र॒व्यादं॑ नि॒रूहं॑ जी॒वात॑वे ते परि॒धिं द॑धामि ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । हे॒ति: । परि॑ । त्वा॒ । वृ॒ण॒क्तु॒ । पा॒रया॑मि । त्वा॒ । रज॑स: । उत् । त्वा॒ । मृ॒त्यो: । अ॒पी॒प॒र॒म् । आ॒रात् । अ॒ग्निम् । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । नि॒:ऽऊह॑न् । जी॒वात॑वे । ते॒ । प॒रि॒ऽधिम् । द॒धा॒मि॒ ॥२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानां हेतिः परि त्वा वृणक्तु पारयामि त्वा रजस उत्त्वा मृत्योरपीपरम्। आरादग्निं क्रव्यादं निरूहं जीवातवे ते परिधिं दधामि ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । हेति: । परि । त्वा । वृणक्तु । पारयामि । त्वा । रजस: । उत् । त्वा । मृत्यो: । अपीपरम् । आरात् । अग्निम् । क्रव्यऽअदम् । नि:ऽऊहन् । जीवातवे । ते । परिऽधिम् । दधामि ॥२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(देवानाम्) इन्द्रियों का (हेतिः) आयुध (त्वा) तुझे (परि वृणक्तु) छोड़ दे, (त्वा) तुझे (रजसः) रजोगुण से (पारयामि) में पार करता हूं, और (मृत्योः) मृत्यु से (उत् अपीपरम् त्वा) तुझे उठाकर पालन किया है। (क्रव्यादम् अग्निम्) हिंसाप्राप्त-मांसभक्षक शवाग्नि को (आरात्) दूर (निरूहम्) मैंने निकाल दिया है, (ते) तेरे (जीवातवे) जीवन के लिये (परिधिम्) परिधि को (दधामि) में स्थापित करता हूं।
टिप्पणी -
[इन्द्रियों का आयुध है, विषयों में विचरना। रजोगुण, इन्द्रियों को विषयों की ओर प्रेरित करता है। रजोगुण मृत्यु का कारण है। क्रव्याद= कच्चे१ मांस का भक्षण करने वाली शवाग्नि । निरूहम्= निर् + वह। परिधि का अर्थ है घेरा। जीवन को जिस घेरे के भीतर रहना चाहिये वह जीवन की परिधि "ब्रह्म" (८।२।२५)] | [१. कच्चे मांस का अभिप्राय है अल्पावस्था तथा युवावस्था के ब्रह्मचारियों का शरीर। आचार्य रोगोपचार द्वारा यह अभिलाषा प्रकट करता है कि ब्रह्मचारी का शरीर शवाग्नि के भेंट न होने पाए। वृद्धावस्था में शरीर परिपक्व हो जाता है। इस अवस्था में शवाग्नि के प्रति शरीर की भेंट तो स्वाभाविक है। कच्चा मांस है बिना पकाया मांस, जिसे कि हिंस्र प्राणी खाते हैं।]