अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
अह्ने॑ च त्वा॒ रात्र॑ये चो॒भाभ्यां॒ परि॑ दद्मसि। अ॒राये॑भ्यो जिघ॒त्सुभ्य॑ इ॒मं मे॒ परि॑ रक्षत ॥
स्वर सहित पद पाठअह्ने॑ । च॒ । त्वा॒ । रात्र॑ये । च॒ । उ॒भाभ्या॑म् । परि॑ । द॒द्म॒सि॒ । अ॒राये॑भ्य: । जि॒घ॒त्सुऽभ्य॑: । इ॒मम् । मे॒ । परि॑ । र॒क्ष॒त॒ ॥२.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
अह्ने च त्वा रात्रये चोभाभ्यां परि दद्मसि। अरायेभ्यो जिघत्सुभ्य इमं मे परि रक्षत ॥
स्वर रहित पद पाठअह्ने । च । त्वा । रात्रये । च । उभाभ्याम् । परि । दद्मसि । अरायेभ्य: । जिघत्सुऽभ्य: । इमम् । मे । परि । रक्षत ॥२.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 20
भाषार्थ -
हे ब्रह्मचारिन् ! (त्वा) तुझे (अह्ने च रात्रये च) दिन के प्रति और रात्रि के प्रति (उभाभ्याम्) दोनों के प्रति (परिदद्मसि) हम सुरक्षार्थ समर्पित करते हैं। (अरायेभ्यः) शत्रुरूप रोगों से, (जिघत्सुभ्यः) और भक्षण कर लेने वाले रोगों से, (मे) मेरे (इमम्) इस ब्रह्मचारी को (परिरक्षत) सब प्रकार से सुरक्षित करो।
टिप्पणी -
[दिन में सूर्य के प्रकाश में रोगी को रखना और रात्रि में पूर्ण विश्राम, यह है दिन और रात्रि के प्रति समर्पण। "अराय" हैं अराति अर्थात् शत्रु। रोग सभी शत्रु होते हैं, कोई तो जीवन का न भक्षण करने वाले और कई जीवन का भक्षण करने वाले ! इन दोनों प्रकार के रोगों की निवृत्ति के लिये [वैद्यों से] प्रार्थना की गई है। (मे) "मेरे" द्वारा रोगी के प्रति आचार्य की आत्मीयता प्रकट की गई है। "जिघत्सुभ्यः" में अद् (भक्षणे) को घस्लृ आदेश हुआ है (अष्टा० २।४।३७)]।