अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
ये मृ॒त्यव॒ एक॑शतं॒ या ना॒ष्ट्रा अ॑तिता॒र्याः। मु॒ञ्चन्तु॒ तस्मा॒त्त्वां दे॒वा अ॒ग्नेर्वै॑श्वान॒रादधि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । मृ॒त्यव॑: । एक॑ऽशतम् । या: । ना॒ष्ट्रा: । अ॒ति॒ऽता॒र्या᳡: । मु॒ञ्चन्तु॑ । तस्मा॑त् । त्वाम् । दे॒वा: । अ॒ग्ने: । वै॒श्वा॒न॒रात् । अधि॑ ॥२.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
ये मृत्यव एकशतं या नाष्ट्रा अतितार्याः। मुञ्चन्तु तस्मात्त्वां देवा अग्नेर्वैश्वानरादधि ॥
स्वर रहित पद पाठये । मृत्यव: । एकऽशतम् । या: । नाष्ट्रा: । अतिऽतार्या: । मुञ्चन्तु । तस्मात् । त्वाम् । देवा: । अग्ने: । वैश्वानरात् । अधि ॥२.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(ये) जो (एकशतम्) एक सौ या एकाधिक सौ (मृत्यवः) मृत्युएं हैं, तथा (या) जो (अतितार्याः) सुगमता से तैरा जा सकने वाली अन्य (नाष्ट्राः) विनाशक शक्तियां हैं, (तस्मात्) उस द्विविध से, तथा (वैश्वानरात् अग्नेः) सब नर-नारियों सम्बन्धी अग्नि अर्थात् जो शवाग्नि है उस से (त्वाम्) तुझे (देवाः) देव आचार्य (अधि मुञ्चन्तु) छुड़ा दें।
टिप्पणी -
[१०० वर्षों में से प्रत्येक वर्ष में, एकैक की दृष्टि से सम्भाव्य मृत्युएं १०० हैं, तथा गर्भ में ही सम्भाव्य मृत्यु उन से एक पृथक है। इस प्रकार मृत्युओं की संख्या १०० भी है, और १०१ भी। नाष्ट्राः शक्तियां हैं, रोग रूप इनसे सुगमता पूर्वक तैर जाना सम्भव है, जैसे कि नौका द्वारा नदी या समुद्र को तैर जाना। देवाः= अध्यात्मशक्तिसम्पन्न व्यक्ति आचार्य]।