अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
प्रा॒णेन॑ त्वा द्वि॒पदां॒ चतु॑ष्पदाम॒ग्निमि॑व जा॒तम॒भि सं ध॑मामि। नम॑स्ते मृत्यो॒ चक्षु॑षे॒ नमः॑ प्रा॒णाय॑ तेऽकरम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णेन॑ । त्वा॒ । द्वि॒ऽपदा॑म् । चतु॑:ऽपदाम् । अ॒ग्निम्ऽइ॑व । जा॒तम् । अ॒भि । सम् । ध॒मा॒मि॒ । नम॑: । ते॒ । मृ॒त्यो॒ इति॑ । चक्षु॑षे । नम॑: । प्रा॒णाय॑ । ते॒ । अ॒क॒र॒म् ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणेन त्वा द्विपदां चतुष्पदामग्निमिव जातमभि सं धमामि। नमस्ते मृत्यो चक्षुषे नमः प्राणाय तेऽकरम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणेन । त्वा । द्विऽपदाम् । चतु:ऽपदाम् । अग्निम्ऽइव । जातम् । अभि । सम् । धमामि । नम: । ते । मृत्यो इति । चक्षुषे । नम: । प्राणाय । ते । अकरम् ॥२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(द्विपदां चतुष्पदाम्) दो पायों और चौपायों सम्बन्धी (प्राणेन) प्राण द्वारा (त्वा अभि) हे माणवक ! तुझ पर (संधमामि१) मैं आचार्य प्राण फुंकता हूँ, (इव) जैसे कि (जातम्) नवोत्पन्न (अग्निम्, अभि) अग्नि को [धौंकनी, मुख, पैसे आदि द्वारा फूंका जाता है]। (मृत्यो) हे मृत्यु नामक परमेश्वर [सूक्त १। मन्त्र १] (ते) तेरी (चक्षुषे) कृपादृष्टि के लिये (नमः) नमस्कार तथा (ते) तेरे (प्राणाय) प्राणप्रदस्वरूप के लिये (नमः) नमस्कार (अकरम्) मैं करता हूं, या मैंने किया है।
टिप्पणी -
[मूर्च्छित हुए माणवक के स्वास्थ्य के लिये, उसे निज मुख आदि द्वारा प्राण अर्थात् प्राणवायु के फूंकने का वर्णन हुआ है। द्विपद्-मनुष्यों तथा चतुष्पद्-पशुओं में जैसे स्वस्थ प्राण होते हैं, तत्सम्बन्धी स्वस्थ प्राण के फूंकने का कथन आचार्य ने किया है। इसलिये आचार्य रुग्ण माणवक को कहता है कि द्विपदों और चतुष्पदों की स्वस्थ प्राणवायु के सदृश प्राणवायु द्वारा मैं आचार्य हे माणवक ! तुझ में, फूंक कर प्राणवायु का संचार करता हूं। इस निमित्त आचार्य मृत्युनामक परमेश्वर की सहायता के लिये उसे नमस्कार करता है]। [१. "संधमामि" द्वारा धौंकनी सूचित होती है। अतः सम्भवतः धौंकनी द्वारा शनैः शनैः स्वच्छ वायु के संचार का कथन हुआ है। मुख द्वारा संचारित वायु स्वच्छ नहीं होती।]