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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 27
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    उ॒तेव॑ प्र॒भ्वीरु॒त संमि॑तास उ॒त शु॒क्राः शुच॑यश्चा॒मृता॑सः। ता ओ॑द॒नं दंप॑तिभ्यां॒ प्रशि॑ष्टा॒ आपः॒ शिक्ष॑न्तीः पचता सुनाथाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽइ॑व । प्र॒ऽभ्वी: । उ॒त । सम्ऽमि॑तास: । उ॒त । शु॒क्रा: । शुच॑य: । च॒ । अ॒मृता॑स: । ता: । ओ॒द॒नम् । दंप॑तिऽभ्याम् । प्रऽशि॑ष्टा: । आ॒प॒: । शिक्ष॑न्ती: । प॒च॒त॒ । सु॒ऽना॒था॒: ॥३.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतेव प्रभ्वीरुत संमितास उत शुक्राः शुचयश्चामृतासः। ता ओदनं दंपतिभ्यां प्रशिष्टा आपः शिक्षन्तीः पचता सुनाथाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽइव । प्रऽभ्वी: । उत । सम्ऽमितास: । उत । शुक्रा: । शुचय: । च । अमृतास: । ता: । ओदनम् । दंपतिऽभ्याम् । प्रऽशिष्टा: । आप: । शिक्षन्ती: । पचत । सुऽनाथा: ॥३.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 27

    पदार्थ -
    (उत इव) और जैसी (प्रभ्वीः) प्रबल (उत) और (संमितासः) सन्मान की गयी, (च) और (शुक्राः) वीर्यवाली, (शुचयः) शुद्ध आचरणवाली, (च) और (अमृतासः) अमर [सदा पुरुषार्थयुक्त], (प्रशिष्टाः) बड़ी शिष्ट [वेदवाक्य में विश्वास करनेवाली वा सुबोध], (शिक्षन्तीः) उपकार करती हुई (ताः) वे तुम सब, (आपः) हे आप्त प्रजाओ ! (सुनाथाः) हे बड़ी ऐश्वर्यवालियो ! (दम्पतिभ्याम्) दोनों पति-पत्नी के लिये (ओदनम्) सुख बरसानेवाले [परमेश्वर] को (पचत) परिपक्व करो, [हृदय में दृढ़ करो] ॥२७॥

    भावार्थ - पति-पत्नी के हित के लिये अर्थात् गृहाश्रम की सिद्धि के लिये, तुम सब प्रकार से समर्थ और उपकारी होकर परमात्मा पर सदा विश्वास रक्खो ॥२७॥

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