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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 33
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    वन॑स्पते स्ती॒र्णमा सी॑द ब॒र्हिर॑ग्निष्टो॒मैः संमि॑तो दे॒वता॑भिः। त्वष्ट्रे॑व रू॒पं सुकृ॑तं॒ स्वधि॑त्यै॒ना ए॒हाः परि॒ पात्रे॑ ददृश्राम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन॑स्पते । स्ती॒र्णम् । आ । सी॒द॒ । ब॒र्हि: । अ॒ग्नि॒ऽस्तो॒मै: । सम्ऽमि॑त: । दे॒वता॑भि: । त्वष्ट्रा॑ऽइव । रू॒पम् । सुऽकृ॑तम् । स्वऽधि॑त्या । ए॒ना । ए॒हा: । परि॑ । पात्रे॑ । द॒ह॒श्रा॒म् ॥३.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनस्पते स्तीर्णमा सीद बर्हिरग्निष्टोमैः संमितो देवताभिः। त्वष्ट्रेव रूपं सुकृतं स्वधित्यैना एहाः परि पात्रे ददृश्राम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनस्पते । स्तीर्णम् । आ । सीद । बर्हि: । अग्निऽस्तोमै: । सम्ऽमित: । देवताभि: । त्वष्ट्राऽइव । रूपम् । सुऽकृतम् । स्वऽधित्या । एना । एहा: । परि । पात्रे । दहश्राम् ॥३.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 33

    पदार्थ -
    (वनस्पते) हे सेवनीय शास्त्र के रक्षक विद्वान् ! तू (स्तीर्णम्) फैले हुए (बर्हिः) आसन पर (आ सीद) बैठ जा, तू (अग्निष्टोमैः) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर की स्तुतियों से और (देवताभिः) व्यवहारकुशल पुरुषों से (संमितः) सन्मान किया गया है। (एना) इस [पुरुष] करके (एहाः) चेष्टाएँ (पात्रे) पात्र में [चित्त में] (परि) सब ओर से (ददृश्राम्) देखी जावें, (त्वष्ट्रा इव) जैसे शिल्पी करके (स्वधित्या) वसूले आदि से (सुकृतम्) सुन्दर बनाया गया (रूपम्) वस्तु [देखा जाता है] ॥३३॥

    भावार्थ - जब मनुष्य ईश्वर के यथार्थ ज्ञान से और विद्वानों के सत्सङ्ग से संसार में मान्य और स्वस्थ होकर बैठता है, वह चित्त की वृत्तियों को ऐसा स्पष्ट देखता है, जैसे शिल्पी अपने बनाये पदार्थ को निरखता है ॥३३॥

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