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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 34
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - विराड्गर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    ष॒ष्ट्यां श॒रत्सु॑ निधि॒पा अ॒भीच्छा॒त्स्वः प॒क्वेना॒भ्यश्नवातै। उपै॑नं जीवान्पि॒तर॑श्च पु॒त्रा ए॒तं स्व॒र्गं ग॑म॒यान्त॑म॒ग्नेः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ष॒ष्ट्याम् । श॒रत्ऽसु॑ । नि॒धि॒ऽपा: । अ॒भि । इ॒च्छा॒त् । स्व᳡: । प॒क्वेन॑ । अ॒भि । अ॒श्न॒वा॒तै॒ । उप॑ । ए॒न॒म् । जी॒वा॒न् । पि॒तर॑: । च॒ । पु॒त्रा: । ए॒तम् । स्व॒:ऽगम् । ग॒म॒य॒ । अन्त॑म् । अ॒ग्ने: ॥३.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात्स्वः पक्वेनाभ्यश्नवातै। उपैनं जीवान्पितरश्च पुत्रा एतं स्वर्गं गमयान्तमग्नेः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    षष्ट्याम् । शरत्ऽसु । निधिऽपा: । अभि । इच्छात् । स्व: । पक्वेन । अभि । अश्नवातै । उप । एनम् । जीवान् । पितर: । च । पुत्रा: । एतम् । स्व:ऽगम् । गमय । अन्तम् । अग्ने: ॥३.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 34

    पदार्थ -
    (षष्ठ्याम्) साठ [बहुत] (शरत्सु) बरसों में (निधिपाः) निधियों का रक्षक [मनुष्य] (स्वः) सुख को (पक्वेन) परिपक्व [ज्ञान] के साथ (अभि इच्छात्) सब ओर खोजे और (अभि) सब प्रकार (अश्नवातै) प्राप्त करे। (पितरः) पितर [रक्षक ज्ञानी] (च) और (पुत्राः) पुत्र [कष्ट से बचानेवाले लोग] (एनम्) इस [वीर] के (उप जीवान्) आश्रय से जीवते रहें, [हे परमेश्वर !] (एतम्) इस [वीर] को (अग्नेः) ज्ञान के (अन्तम्) अन्त [सीमा], (स्वर्गम्) सुख समाज में (गमय) पहुँचा ॥३४॥

    भावार्थ - जो मनुष्य बड़े अभ्यास से परिपक्व ज्ञानी होकर मोक्षसुख पाता है, उस विद्वान् वीर पुरुष का सब विद्वान् लोग आश्रय लेते हैं, और वह परमेश्वर के अनुग्रह से सब का अग्रगामी होकर आनन्दित होता है ॥३४॥ इस मन्त्र का प्रथम पाद आगे मन्त्र ४१ में है ॥

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