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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 36
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    बृह॑स्पते॒ परि॑ दीया॒ रथे॑न रक्षो॒हामित्राँ॑२ऽ अप॒बाध॑मानः। प्र॒भ॒ञ्जन्त्सेनाः॑ प्रमृ॒णो यु॒धा जय॑न्न॒स्माक॑मेद्ध्यवि॒ता र॒था॑नाम्॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते। परि॑। दी॒य॒। रथे॑न। र॒क्षा॒हेति॑ रक्षः॒ऽहा। अ॒मित्रा॑न्। अ॒प॒बाध॑मान॒ इत्य॑प॒ऽबाध॑मानः। प्र॒भ॒ञ्जन्निति॑ प्रऽभ॒ञ्जन्। सेनाः॑। प्र॒मृ॒ण इति॑ प्रऽमृ॒णः। यु॒धा। जय॑न्। अ॒स्माक॑म्। ए॒धि। अ॒विता। रथा॑नाम् ॥३६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते परिदीया रथेन रक्षोहामित्रानपबाधमानः । प्रभञ्जन्त्सेनाः प्रमृणो युधा जयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते। परि। दीय। रथेन। रक्षाहेति रक्षःऽहा। अमित्रान्। अपबाधमान इत्यपऽबाधमानः। प्रभञ्जन्निति प्रऽभञ्जन्। सेनाः। प्रमृण इति प्रऽमृणः। युधा। जयन्। अस्माकम्। एधि। अविता। रथानाम्॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 36
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে (বৃহস্পতে) ধার্মিকগণ, বৃদ্ধ বা সেনার রক্ষক! (রক্ষোহা) যে দুষ্ট দিগকে নিধন করিতে (অমিত্রান্) শত্রুদিগকে (অপবাঘমানঃ) দূর করিতে (প্রমৃণঃ) ভাল মত মারিতে এবং (সেনাঃ) তাহাদের সেনাকে (প্রভঞ্জন্) ভগ্ন করিতে তুমি (রথেন) রথসমূহ দ্বারা (য়ুধা) যুদ্ধে শত্রুদিগকে (পরি, দীয়া) সব দিক্ দিয়া কাটিয়া ফেল সুতরাং (জয়ন্) উৎকর্ষ অর্থাৎ জয় প্রাপ্ত হইয়া (অস্মাকম্) আমাদিগের (রথানাম্) রথগুলির (অবিতা) রক্ষাকারী (এধি) হও ॥ ৩৬ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–রাজা সেনাপতি এবং স্বীয় সেনাকে উৎসাহ প্রদান করিয়া তথা শত্রুসেনাকে নিধন করিয়া ধর্মাত্মা প্রজাগণের নিরন্তর উন্নতি করিবে ॥ ৩৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - বৃহ॑স্পতে॒ পরি॑ দীয়া॒ রথে॑ন রক্ষো॒হামিত্রাঁ॑২ऽ অপ॒বাধ॑মানঃ ।
    প্র॒ভ॒ঞ্জন্ৎসেনাঃ॑ প্রমৃ॒ণো য়ু॒ধা জয়॑ন্ন॒স্মাক॑মেদ্ধ্যবি॒তা রথা॑নাম্ ॥ ৩৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - বৃহস্পত ইত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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