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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 44
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    स नो॑ भुवनस्य पते प्रजापते॒ यस्य॑ तऽउ॒परि॑ गृ॒हा यस्य॑ वे॒ह। अ॒स्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राय॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ॒ स्वाहा॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः। नः॒। भु॒व॒न॒स्य॒। प॒ते॒। प्र॒जा॒प॒त॒ इति॑ प्रजाऽपते। यस्य॑। ते॒। उ॒परि॑। गृ॒हा। यस्य॑। वा॒। इ॒ह। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। महि॑। शर्म॑। य॒च्छ॒। स्वाहा॑ ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो भुवनस्य पते प्रजापते यस्य तऽउपरि गृहा यस्य वेह । अस्मै ब्रह्मणेस्मै क्षत्राय महि शर्म यच्छ स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। भुवनस्य। पते। प्रजापत इति प्रजाऽपते। यस्य। ते। उपरि। गृहा। यस्य। वा। इह। अस्मै। ब्रह्मणे। अस्मै। क्षत्राय। महि। शर्म। यच्छ। स्वाहा॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে (ভুবনস্য) গৃহের (পতে) স্বামী (প্রজাপতে) প্রজার রক্ষাকর্ত্তা পুরুষ! (ইহ) এই সংসারে (য়স্য) যে (তে) তোমার (উপরি) অতি উচ্চতা প্রদানকারী উত্তম ব্যবহারে (গৃহাঃ) পদার্থ গ্রহণকারী গৃহস্থ মনুষ্যাদি (বা) অথবা (য়স্য) যাহার সব উত্তম ক্রিয়া (সঃ) সেই তুমি (নঃ) আমাদের (অস্মৈ) এই (ব্রহ্মণে) বেদ ও ঈশ্বরের জ্ঞাতা মনুষ্য তথা (অস্মৈ) এই (ক্ষত্রায়) রাজধর্মে নিরন্তর স্থিত ক্ষত্রিয় হেতু (স্বাহা) সত্য ক্রিয়া দ্বারা (মহি) বহু (শর্ম) গৃহ ও সুখকে (য়াচ্ছ) দাও ॥ ৪৪ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–যে সব মনুষ্যগণ বিদ্বান্গণ ও ক্ষত্রিয়গণের কুলকে নিত্য বৃদ্ধি করে তাহার অত্যন্ত সুখ প্রাপ্ত হয় ॥ ৪৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - স নো॑ ভুবনস্য পতে প্রজাপতে॒ য়স্য॑ তऽউ॒পরি॑ গৃ॒হা য়স্য॑ বে॒হ ।
    অ॒স্মৈ ব্রহ্ম॑ণে॒ऽস্মৈ ক্ষ॒ত্রায়॒ মহি॒ শর্ম॑ য়চ্ছ॒ স্বাহা॑ ॥ ৪৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - স ন ইত্যস্য দেবা ঋষয়ঃ । প্রজাপতির্দেবতা । ভুরিগার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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