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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 56
    ऋषिः - गालव ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    इ॒ष्टो य॒ज्ञो भृगु॑भिराशी॒र्दा वसु॑भिः। तस्य॑ न इ॒ष्टस्य॑ प्री॒तस्य॒ द्रवि॑णे॒हा ग॑मेः॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ष्टः। य॒ज्ञः। भृगु॑भि॒रिति॒ भृगु॑ऽभिः। आ॒शी॒र्दा इत्या॑शीः॒ऽदा। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। तस्य॑। नः। इ॒ष्टस्य॑। प्री॒तस्य॑। द्रवि॑ण। इ॒ह। आ। ग॒मेः ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इष्टो यज्ञो भृगुभिराशीर्दा वसुभिः । तस्य नऽइष्टस्य प्रीतस्य द्रविणेहागमेः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इष्टः। यज्ञः। भृगुभिरिति भृगुऽभिः। आशीर्दा इत्याशीःऽदा। वसुभिरिति वसुऽभिः। तस्य। नः। इष्टस्य। प्रीतस्य। द्रविण। इह। आ। गमेः॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 56
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে বিদ্বন্! (ভৃগুভিঃ) পরিপূর্ণ বিজ্ঞানযুক্ত (বসুভিঃ) প্রথম শ্রেণির বিদ্বান্গণ (আশীর্দাঃ) ইচ্ছাসিদ্ধি দাতা (য়জ্ঞঃ) যজ্ঞ (ইষ্টঃ) করিয়াছেন (তস্য) সেই (ইষ্টস্য) কৃত (প্রীতস্য) মনোহর যজ্ঞের সকাশে (ইহ) এই সংসারে আপনি (নঃ) আমাদিগের (দ্রবিণ) ধনকে (আ গমেঃ) প্রাপ্ত হউন ॥ ৫৬ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–যে সব বিদ্বান্দিগের তুল্য উত্তম যত্ন করে তাহারা এই সংসারে বহু ধন লাভ করিয়া থাকে ॥ ৫৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - ই॒ষ্টো য়॒জ্ঞো ভৃগু॑ভিরাশী॒র্দা বসু॑ভিঃ ।
    তস্য॑ ন ই॒ষ্টস্য॑ প্রী॒তস্য॒ দ্রবি॑ণে॒হা গ॑মেঃ ॥ ৫৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ইষ্ট ইত্যস্য গালব ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । আর্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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