यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 14
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽ अ॒यम्। अ॒पा रेता॑सि जिन्वति। इन्द्र॑स्य॒ त्वौज॑सा सादयामि॥१४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः। मू॒र्द्धा। दि॒वः। क॒कुत्। पतिः॑। पृ॒थि॒व्याः। अ॒यम्। अ॒पाम्। रेता॑सि। जि॒न्व॒ति॒। इन्द्र॑स्य। त्वा॒। ओज॑सा। सा॒द॒या॒मि॒ ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपाँ रेताँसि जिन्वति । इन्द्रस्य त्वौजसा सादयामि ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः। मूर्द्धा। दिवः। ककुत्। पतिः। पृथिव्याः। अयम्। अपाम्। रेतासि। जिन्वति। इन्द्रस्य। त्वा। ओजसा। सादयामि॥१४॥
विषय - शिखर पर
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्रों के अनुसार राष्ट्र-व्यवस्था के उत्तम होने पर प्रत्येक पुरुष को चाहिए कि वह अपने अन्दर दिव्य गुणों को उपजाने के लिए यत्नशील हो। वह कैसा बने ? इसका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (अग्निः) = यह अग्रेणी हो, निरन्तर उन्नति पथ पर आगे बढ़नेवाला हो। २. यह उन्नति करते-करते (मूर्धा) = शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न करे। 'आरोहणमाक्रमणम्' ऊपर चढ़ना, ऊपर उठना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। ३. (दिवः ककुत्) = ज्ञान से यह महान् बनता है [ ककुत्-महान्] । ज्ञान को प्राप्त करते हुए यह ऊँचा और ऊँचा उठता चलता है। ४. ज्ञान-प्राप्ति के साथ (अयम्) = यह (पृथिव्याः) = शरीर का (पतिः) = रक्षक बनता है। शरीर के स्वास्थ्य का भी यह पूरा ध्यान रखता है। वस्तुतः सब उन्नतियों का आधार यह शारीरिक स्वास्थ्य ही है। ५. शरीर का पति यह क्यों न बने ? यह तो (अपां रेतांसि) = जल-सम्बन्धी रेतस् का (जिन्वति) = [पुष्णाति -म० ] पोषण करता है। 'आपो रेतो भूत्वा = जल शरीर में रेतस् के रूप में रहते हैं। यह वामदेव इन रेतःकणों का पोषण करता है, उन्हें विनष्ट नहीं होने देता । ६. इस रेतस् का पोषण करनेवाले वामदेव से प्रभु कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (इन्द्रस्य ओजसा) = इन्द्र के ओज से (सादयामि) = इस शरीर में स्थापित करता हूँ। इन रेत: कणों की रक्षा से इन्द्रशक्ति का विकास होता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम आगे बढ़ें, शिखर तक पहुँचें, ज्ञान से महान् बनें, शरीर के स्वास्थ्य की रक्षा करें और इस प्रकार इन्द्रशक्ति के विकास के लिए रेतःकणों का अपने में पोषण करें।
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