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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 20
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - पत्नी देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    काण्डा॑त्काण्डात्प्र॒रोह॑न्ती॒ परु॑षःपरुष॒स्परि॑। ए॒वा नो॑ दूर्वे॒ प्रत॑नु स॒हस्रे॑ण श॒तेन॑ च ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    काण्डा॑त्काण्डा॒दिति॒ काण्डा॑त्ऽकाण्डात्। प्र॒रोह॒न्तीति॑ प्र॒ऽरोह॑न्ती। परु॑षःपरुष॒ इति॒ परु॑षःऽपरुषः। परि॑। ए॒व। नः॒। दू॒र्वे॒। प्र॒। त॒नु॒। स॒हस्रे॑ण। श॒तेन॑। च॒ ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषःपरुषस्परि । एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च॥


    स्वर रहित पद पाठ

    काण्डात्काण्डादिति काण्डात्ऽकाण्डात्। प्ररोहन्तीति प्रऽरोहन्ती। परुषःपरुष इति परुषःऽपरुषः। परि। एव। नः। दूर्वे। प्र। तनु। सहस्रेण। शतेन। च॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 20
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र में पति को 'अग्नि' कहा है। इस मन्त्र में यह अग्नि पत्नी को 'दूर्वा' नाम से सम्बोधित करके कहता है कि वह उसके वंश को सैकड़ों व हज़ारों पीढ़ियों तक ले जाने में सहायक हो, अतः मन्त्र का ऋषि 'अग्नि' ही है, जो वंश को आगे और आगे ले- चलना चाहता है, जो यह नहीं चाहता कि उसका वंश-दीप कभी बुझ जाए। '(प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम)' = 'प्रजाओं से मैं अमर बना रहूँ' यह उसकी कामना है। इसी कारण वह चाहता है कि उसके वंश में कोई रोग या अन्य कोई मानस विकार उत्पन्न न हो और उसका वंश चलता ही चले, इसीलिए वह पत्नी को 'दूर्वा' नाम से स्मरण करता है-' इति यदब्रवीद् धूर्वीन् मा इति तस्मात् धूर्वा । धूर्वा ह वै तां दूर्वा इत्याचक्षते परोक्षम्' - श० ७।४।२।१२। यह मुझे हिंसित मत करे [ धूर्वी हिंसायाम् ], अतः वह इसका नाम ही धूर्वा वा दूर्वा कह देता है। २. जैसे दूर्वा घास के काण्ड-तने हैं, उसी प्रकार यहाँ पत्नी के नर- सन्तान हैं, जिनसे घर 'कन दीप्तौ' चमकता है। इस दूर्वा के परु पर्व, जोड़ हैं, उसी प्रकार पत्नी के स्त्री सन्तान लड़कियाँ हैं। इनसे अन्य घरों के साथ सम्बन्ध जुड़ता है। दूर्वा घास प्रत्येक काण्ड पर अपने मूल जमाती हुई और प्रत्येक पोरु पर से अपनी जड़ पकड़ती हुई फैलती है, उसी प्रकार इस पत्नी के पुत्र अपने अगले सन्तानों को जन्म देनेवाले हों और पुत्रियाँ भी इस घर के सम्बन्ध को विस्तृत करनेवाली हों। ३. पति कहता है कि (काण्डात् काण्डात्) = वंश-वृक्ष के तनेरूप प्रत्येक (तनय) = पुत्र के द्वारा (प्ररोहन्ती) = इस वंश को आगे बढ़ाती हुई तथा (परुषः परुषः परि) = वंश-वृक्ष के प्रत्येक पर्व जोड़ के समान पुत्रियों से सम्बन्ध को चारों ओर फैलाती हुई हे (दुर्वे) = सब रोगों व अशुभवृत्तियों का ध्वंस करनेवाली पत्त्रि ! तू (एव) = इस प्रकार (नः) = हमें (प्रतनु) = विस्तृत कर । ४. (सहस्त्रेण) = हम हज़ारों पीढ़ियों से इस संसार में चलते चलें। (शतेन च) = और इस वंश में प्रत्येक व्यक्ति शतवर्ष के जीवनवाला हो।

    भावार्थ - भावार्थ- वंश के निर्दोष होने पर वंश हज़ारों पीढ़ियों तक चलता है तथा वंश में प्रायः शतायु पुरुष होते हैं। इसका बहुत-कुछ निर्भर पत्नी पर है जो 'दूर्वा' है, वंश के रोगों व बुराइयों का ध्वंस कर देती है।

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