यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 5
ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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द्र॒प्सश्च॑स्कन्द पृथि॒वीमनु॒ द्यामि॒मं च॒ योनि॒मनु॒ यश्च॒ पूर्वः॑। स॒मा॒नं योनि॒मनु॑ सं॒चर॑न्तं द्र॒प्सं जु॑हो॒म्यनु॑ स॒प्त होत्राः॑॥५॥
स्वर सहित पद पाठद्र॒प्सः। च॒स्क॒न्द॒। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। द्याम्। इ॒मम्। च॒। योनि॑म्। अनु॑। यः। च॒। पूर्वः॑। स॒मा॒नम्। योनि॑म्। अनु॑। सं॒चर॑न्त॒मिति॑ स॒म्ऽचर॑न्तम्। द्र॒प्सम्। जु॒हो॒मि। अनु॑। स॒प्त। होत्राः॑ ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रप्सश्चस्कन्द पृथिवीमनु द्यामिमञ्च योनिमनु यश्च पूर्वः । समानँयोनिमनु सञ्चरन्तन्द्रप्सञ्जुहोम्यनु सप्त होत्राः ॥
स्वर रहित पद पाठ
द्रप्सः। चस्कन्द। पृथिवीम्। अनु। द्याम्। इमम्। च। योनिम्। अनु। यः। च। पूर्वः। समानम्। योनिम्। अनु। संचरन्तमिति सम्ऽचरन्तम्। द्रप्सम्। जुहोमि। अनु। सप्त। होत्राः॥५॥
विषय - 'द्रप्सोपासना'
पदार्थ -
१. द्रप्स:- [दृप= हर्ष] वे आनन्दमय प्रभु पृथिवीम् अनु = इस सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में [महीधर] व्याप्त होकर (चस्कन्द) = गति कर रहे हैं। (द्याम्) = द्युलोक में व्याप्त होकर गति कर रहे हैं। (इमं च योनिं अनु) = और इस सम्पूर्ण संसार के मिश्रण व अमिश्रण, संयोग और वियोग की कारणभूत पृथिवी में व्याप्त होकर गति कर रहे हैं। २. (यः च पूर्व:) = वे प्रभु इन सबसे पहले हैं, वे प्रभु सृष्टि बनने से भी पहले हैं, उनकी कभी उत्पत्ति नहीं हुई। सदा से वर्त्तमान वे प्रभु इन लोकों का निर्माण करते हैं और इनमें व्याप्त होकर गति कर रहे हैं। ३. उस (समानं योनिम्) = सब प्राणियों को प्राणित करनेवाले [ सम् आनयति इति समान :] सबके उत्पत्ति-स्थान (अनुसञ्चरन्तम्) = सब लोकों में व्याप्त होकर गति करते हुए (द्रप्सम्) = उस आनन्दमय प्रभु को (जुहोमि) = अपने अन्दर आहुत करता हूँ। जैसे अग्नि घृत को धारण करती है और उस घृत से दीप्त होती है, इसी प्रकार मैं प्रभु को धारण करता हूँ और उससे मेरा हृदयाकाश जगमगा उठता है। ४. हे प्रभो! आपकी कृपा से (सप्त होत्रा:) = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, छठा मन और सातवीं बुद्धि, ये सातों मुझमें ज्ञान की आहुति देनेवाले होकर (अनु) = मेरे अनुकूल हों। इनसे ज्ञान का भोजन ग्रहण करता हुआ मैं अपने ज्ञान को दीप्त कर सकूँ।
भावार्थ - भावार्थ- वे प्रभु द्रप्स हैं, आनन्दमय हैं। सब लोकों में व्याप्त होकर गति कर रहे हैं। सभी प्राणियों को प्राणित करनेवाले हैं। उस प्रभु को मैं अपने अन्दर धारण करता हूँ, जिससे सब ज्ञानेन्द्रियाँ, मन व बुद्धि मेरे अनुकूल हों और मेरा ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता चले।
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