Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 51
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक्कृतिः स्वरः - निषादः
    0

    अ॒जो ह्य॒ग्नेरज॑निष्ट॒ शोका॒त् सोऽ अ॑पश्यज्जनि॒तार॒मग्रे॑। तेन॑ दे॒वा दे॒वता॒मग्र॑मायँ॒स्तेन॒ रोह॑माय॒न्नुप॒ मेध्या॑सः। श॒र॒भमा॑र॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो निषी॑द। श॒र॒भं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒जः। हि। अ॒ग्नेः। अज॑निष्ट। शोका॑त्। सः। अ॒प॒श्य॒त्। ज॒नि॒तार॑म्। अग्रे॑। तेन॑। दे॒वाः। दे॒वता॑म्। अग्र॑म्। आ॒य॒न्। तेन॑। रोह॑म्। आ॒य॒न्। उप॑। मेध्या॑सः। श॒र॒भम्। आ॒र॒ण्यम्। अनु॑। ते॒। दि॒शा॒मि॒। तेन॑। चि॒न्वा॒नः। त॒न्वः᳖। नि। सी॒द॒। श॒र॒भम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥५१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकात्सोऽअपश्यज्जनितारमग्रे । तेन देवा देवतामग्रमायँस्तेन रोहमायन्नुप मेध्यासः । शरभमारण्यमनु ते दिशामि तेन चिन्वानस्तन्वो नि षीद । शरभन्ते शुगृच्छतु यन्द्विष्मस्तन्ते शुगृच्छतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अजः। हि। अग्नेः। अजनिष्ट। शोकात्। सः। अपश्यत्। जनितारम्। अग्रे। तेन। देवाः। देवताम्। अग्रम्। आयन्। तेन। रोहम्। आयन्। उप। मेध्यासः। शरभम्। आरण्यम्। अनु। ते। दिशामि। तेन। चिन्वानः। तन्वः। नि। सीद। शरभम्। ते। शुक्। ऋच्छतु। यम्। द्विष्मः। तम्। ते। शुक्। ऋच्छतु॥५१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 51
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. (अज:) = [अज गतिक्षेपणयोः] क्रियाशीलता के द्वारा सब बुराइयों को दूर निराकृत करनेवाला जीव (हि) = निश्चय से (अग्नेः शोकात्) = प्रभु की ज्ञान दीप्ति से (अजनिष्ट) = विकास को प्राप्त होता है, अर्थात् जब जीव निरन्तर कर्मों में लगा रहकर अपने से मलों को दूर रखता है तब उसके हृदय में प्रभु के ज्ञान का प्रकाश होता है, इस ज्ञान-प्रकाश से इसकी शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। २. (सः) = यह विकसित शक्तियोंवाला जीव (अग्रे) = अपने सामने (जनितारम्) = अपने पिता प्रभु को (अपश्यत्) = देखता है। इसे प्रभु का साक्षात्कार होता है । ३. (तेन) = उस प्रभु से ही (देवा:) = सब देव (अग्रे) = सृष्टि के प्रारम्भ में (देवताम्) = देवत्व को (आयन्) = प्राप्त होते हैं। सूर्यादि को वे प्रभु ही दीप्ति देते हैं। अग्नि आदि ऋषियों को भी प्रभु ही हैं । ४. (तेन) = उस प्रभु से ही (रोहम्) = वृद्धि को (आयन्) = प्राप्त होते हैं और उप उस प्रभु के समीप रहते हुए (मेध्यासः) = पवित्र बने रहते हैं। दूध प्रस्तुत प्रकरण में इस मन्त्र के पूर्वार्ध का अर्थ इस प्रकार है- १. (अज:) = यह उछलने-कूदनेवाली बकरी (अग्नेः शोकात्) = अग्नि की दीप्ति से प्रकट होती है इसके शरीर व दूध आदि में उष्णता होती है। इसका (सहवास) = इनके बीच में उठना-बैठना - क्षयरोगी को भी फिर से शक्ति प्रदान करा देता है। २. (सः) = यह (अजः) = बकरी का दूध (अग्रे जनितारम्) = उस सृष्टि के उत्पादक प्रभु को (अपश्यत्) = दिखाता है [अन्तर्भावितण्यर्थोऽत्र दृशि : ] । अत्यन्त सात्त्विक होने से यह दूध मानव-मन को बड़ा निर्मल कर देता है, उस निर्मल मन में प्रभुदर्शन सम्भव होता है। २. (तेन) इसी अजा पय से-बकरी के से (देवा:) = सब देव - विद्वान् (देवताम्) = ज्ञान-दीप्ति को (अग्रे आयन्) = सर्वप्रथम प्राप्त करते हैं। इससे बुद्धि तीव्र होती है। ४. (तेन) = इस दूध से (रोहम्) = शक्ति की वृद्धि को अथवा सर्वाङ्गीण उन्नति को (आयन्) = प्राप्त होते हैं और (मेध्यासः) = पवित्र बनकर उप उस प्रभु के समीप पहुँचते हैं। एवं अत्यन्त उपयोगी होने से यह बकरी तो अहन्तव्य है ही। प्रभु कहते हैं कि ५. (आरण्यं शरभम्) = इस वन्य शरभ को (ते) = तुझे (अनुदिशामि) = देता हूँ। (तेन) = उससे (तन्वः) = शरीर की शक्तियों का (चिन्वानः) = चयन करता हुआ (निषीद) = तू इस शरीर में स्थित हो। ६. (ते शुक्) = तेरा क्रोध (शरभम्) = कृषि-विनाशक शरभ को (ऋच्छतु) = प्राप्त हो, (तम्) = उसी शरभ को (ते शुक् ऋच्छतु) = तेरा क्रोध प्राप्त हो यं (द्विष्मः) = जिसे कृष्यादि विनाश के कारण हम अप्रिय समझते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - हम 'अज' की रक्षा करें। अप्रीतिकर हानिकर शरभ को दूर करें।

    - सूचना - परमं वै एतत् पयः यदजाक्षीरम् - तै० ५।१।७ = सबसे बढ़कर यह दूध है जो बकरी का दूध है। (आग्नेयी वा एषा यदजा) - तै० ३।७।३।१ - यह अजा अग्नितत्त्व प्रधान है। (सा अजायत् त्रिः संवत्सरस्य विजायते तेन परमः पशुः) = श० ३।३।३१८ यह अजा वर्ष में तीन बार जनती है, अतः परम पशु है। (अजा ह सर्वा ओषधीरत्ति)-श० ६ |५|४|१६ यह अजा सब ओषधियों का सेवन करती है, तभी इसका दूध 'सर्वरोगापह' होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top