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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 22
    ऋषिः - इन्द्राग्नी ऋषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यास्ते॑ऽ अग्ने॒ सूर्य्ये॒ रुचो॒ दिव॑मात॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभिः॑। ताभि॑र्नोऽ अ॒द्य सर्वा॑भी रु॒चे जना॑य नस्कृधि॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः। ते॒। अ॒ग्ने॒। सूर्ये॑। रुचः॑। दिव॑म्। आ॒त॒न्वन्तीत्या॑ऽत॒न्वन्ति॑। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। ताभिः॑। नः॒। अ॒द्य। सर्वा॑भिः। रु॒चे। जना॑य। नः॒। कृ॒धि॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यास्तेश्अग्ने सूर्ये रुचो दिवमातन्वन्ति रश्मिभिः । ताभिर्ना अद्य सर्वाभी रुचे जनाय नस्कृधि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    याः। ते। अग्ने। सूर्ये। रुचः। दिवम्। आतन्वन्तीत्याऽतन्वन्ति। रश्मिभिरिति रश्मिऽभिः। ताभिः। नः। अद्य। सर्वाभिः। रुचे। जनाय। नः। कृधि॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    १. २२ से २५ तक मन्त्रों का ऋषि 'इन्द्राग्नी' है। इन्द्रियों का अधिष्ठाता जितेन्द्रिय पति ही यहाँ इन्द्र है। इसने निरन्तर कर्म द्वारा, गति द्वारा, गृह सञ्चालन के लिए धनार्जन करना है। निरन्तर गति के कारण इसे 'सूर्य' [सरति] कहा गया है। पत्नी यहाँ अग्नि है। घर की सब उन्नति का निर्भर इसी पर है। १९वें मन्त्र में इसी दृष्टिकोण से पति को भी अग्नि कहा गया था। यहाँ पति 'इन्द्र व सूर्य' है, पत्नी 'अग्नि' । २. पत्नी से कहते हैं कि हे अग्ने गृहोन्नति साधिके! (याः) = जो (ते) = तेरी (सूर्ये) = निरन्तर श्रमशील पति में (रुचः) = दीप्तियाँ हैं अथवा रुचियाँ या प्रीतियाँ हैं [तेरी रुचियाँ हैं - द०] वे प्रीतियाँ (रश्मिभिः) = ज्ञान की किरणों से [ रश्मि = किरण] तथा इन्द्रियों के नियन्त्रणों से [रश्मि - लगाम] (दिवम्) = स्वर्ग को (आतन्वन्ति) = विस्तृत करती हैं। स्पष्ट है कि घर स्वर्ग बन जाता है जब [क] पत्नी का सब प्रेम अपने पति के लिए ही हो। [ख] पति निरन्तर श्रम के द्वारा गृह सञ्चालन के लिए पर्याप्त धनार्जन करनेवाला हो। [ग] घर में ज्ञान का प्रकाश हो, सब ज्ञान - सम्पन्न हों। [घ] और सबने इन्द्रियाश्वों को मनरूप लगाम से काबू किया हुआ हो। ३. पति-पत्नी की परस्पर प्रीतियों का परिणाम घर में कल्याण-ही-कल्याण होता है। आचार्य दयानन्द प्रस्तुत मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं- 'यत्र स्त्रीपुरुषौ परस्परं प्रीतिमन्तौ स्यातां तत्र सर्वं कल्याणमेव ' पति-पत्नी के प्रीतिमान होने पर सब शुभ ही शुभ होता है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (ताभिः सर्वाभिः) = उन सब प्रीतियों से (नः) = हमें [अस्मान् ] रुचे शोभा के लिए (कृधि) = कीजिए। इन परस्पर प्रीतियों से सन्तानों के सब लक्षण शुभ ही शुभ होते हैं। उस प्रीति को (नः) = हमारी (जनाय) = शक्तियों के विकास के लिए कीजिए, अर्थात् माता-पिता का परस्पर ठीक प्रेम होने पर सन्तानों की शक्तियों का विकास होता है। एवं, पति-पत्नी की परस्पर प्रीति के दो परिणाम सन्तानों में दृष्टिगोचर होते हैं। [क] शुभ लक्षण व दीप्ति [रुच] । [ख] शक्तियों का विकास [जन] ।

    भावार्थ - भावार्थ- पति-पत्नी का कर्त्तव्य है कि अपने जीवनों को 'सूर्य व अग्नि' की भाँति बनाकर घर को स्वर्ग बनाने का प्रयत्न करें।

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