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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 50
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - कृतिः स्वरः - निषादः
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    इ॒ममू॑र्णा॒युं वरु॑णस्य॒ नाभिं॒ त्वचं॑ पशू॒नां द्वि॒पदां॒ चतु॑ष्पदाम्। त्वष्टुः॑ प्र॒जानां॑ प्रथ॒मं ज॒नित्र॒मग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्। उष्ट्र॑मार॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो निषी॑द। उष्ट्रं॑ ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम्। ऊ॒र्णा॒युम्। वरु॑णस्य। नाभि॑म्। त्वच॑म्। प॒शू॒नाम्। द्वि॒पदा॒मिति द्वि॒ऽपदा॑म्। चतु॑ष्पदाम्। चतुः॑ऽपदा॒मिति॒ चतुः॑ऽपदाम्। त्वष्टुः॑। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। प्र॒थ॒मम्। ज॒नित्र॑म्। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन्। उष्ट्र॑म्। आ॒र॒ण्यम्। अनु॑। ते॒। दि॒शा॒मि॒। तेन॑। चि॒न्वा॒नः। त॒न्वः᳖। नि। सी॒द॒। उष्ट्र॑म्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥५० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममूर्णायुँवरुणस्य नाभिन्त्वचम्पशूनान्द्विपदाञ्चतुष्पदाम् । त्वष्टुः प्रजानाम्प्रथमञ्जनित्रमग्ने मा हिँसीः परमे व्योमन् । उष्ट्रमारण्यमनु ते दिशामि तेन चिन्वानस्तन्वो नि षीद । उष्ट्रन्ते शुगृच्छतु यन्द्विष्मस्तन्ते शुगृच्छतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। ऊर्णायुम्। वरुणस्य। नाभिम्। त्वचम्। पशूनाम्। द्विपदामिति द्विऽपदाम्। चतुष्पदाम्। चतुःऽपदामिति चतुःऽपदाम्। त्वष्टुः। प्रजानामिति प्रऽजानाम्। प्रथमम्। जनित्रम्। अग्ने। मा। हिꣳसीः। परमे। व्योमन्निति विऽओमन्। उष्ट्रम्। आरण्यम्। अनु। ते। दिशामि। तेन। चिन्वानः। तन्वः। नि। सीद। उष्ट्रम्। ते। शुक्। ऋच्छतु। यम्। द्विष्मः। तम्। ते। शुक्। ऋच्छतु॥५०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 50
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    पदार्थ -
    १. (इमम्) = इस (ऊर्णायुम्) = [ऊर्णावन्तं] ऊनवाली भेड़ को भी (मा हिंसी:) = मत मार । यह (वरुणस्य नाभिम्) = [वृ to cover] आच्छादक साधनों का केन्द्र है। सर्दी के निवारण के लिए तुझे इसी से उत्तम आच्छादक वस्त्र प्राप्त होने हैं। यह भेड़ तो इस प्रकार (द्विपदाम्) = दो पाँववाले व (चतुष्पदाम्) = चार पाँववाले (पशूनाम्) = पशुओं के लिए (त्वचम्) = त्वचा की भाँति रक्षण करनेवाली है। मनुष्य तो इन ऊनी वस्त्रों को धारण करके शीत से अपनी रक्षा करते ही हैं-घोड़े आदि की पीठ पर भी मार्दव के लिए ऊनी वस्त्र डाला जाता है। २. यह भेड़ वस्तुतः (प्रजानां त्वष्टुः) = प्रजाओं के निर्माता उस प्रभु की (प्रथमं जनित्रम्) = बड़ी उत्तम रचना है [of the first water ] । यह मानव हित के लिए अत्यन्त आवश्यक वस्त्रों का साधन बनती है । ३. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! यह भेड़ भी तुझे (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट आकाश में स्थापित करनेवाली है, स्वास्थ्य की रक्षिका होकर सचमुच कल्याण करनेवाली है। ४. भेड़ को तो तूने मारना ही नहीं, मैं (आरण्यं उष्ट्रम्) = इस वन्य उष्ट्र को ते तुझे अनुदिशामि देता हूँ। (तेन) = उससे अपने हलों, कूओं व गाड़ियों को चलाता हुआ तू (तन्वः चिन्वानः) = अपने शरीर की शक्तियों को बढ़ाता हुआ निषीद इस शरीर में निवास कर। ५. हाँ, (उष्ट्रम्) = उस आरण्य ऊँट को (ते शुक्) = तेरा क्रोध (ऋच्छतु) = प्राप्त हो, परन्तु (तम्) = उसी आरण्य उष्ट्र को (ते शुक् ऋच्छतु) = तेरा क्रोध प्राप्त हो (यं द्विष्मः) = जिसे हम नाशक होने से अप्रीतिकर समझते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम भेड़ की उपयोगिता समझें। ऊँट भी कितना उपयोगी है, परन्तु यदि वह पागल होकर ध्वंसक हो जाता है तब तो उसे समाप्त करना ही होता है।

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