यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 33
विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥३३॥
स्वर सहित पद पाठविष्णोः॑। कर्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॑। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥
स्वर रहित पद पाठ
विष्णोः। कर्माणि। पश्यत। यतः। व्रतानि। पस्पशे। इन्द्रस्य। युज्यः। सखा॥३३॥
विषय - विष्णु बनना
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में यज्ञों पर बल दिया है। प्रस्तुत मन्त्र में सारे ब्रह्माण्ड का धारण करनेवाले प्रभु की ओर ध्यान दिलाते हैं और कहते हैं कि (विष्णोः) = [विष्णुर्वाव यज्ञः] उस यज्ञरूप प्रभु के कर्माणि धारण के लिए किये जाते हुए कर्मों को (पश्यत) = देखो। २. (यतः) = प्रभु के कर्मों को देखने से मनुष्य (व्रतानि) = अपने कर्मों को भी (पस्पशे) = देखता है। उदाहरणार्थ- प्रभु दयालु हैं - यह भी दयालु बनने का ध्यान करता है। प्रभु न्यायकारी हैं - यह भी न्याय को अपनाता है। ३. इस प्रकार यह प्रभु के कर्मों से अपने कर्मों का निश्चय करनेवाला - प्रभु को ही अपना पुरोहित [model] बनानेवाला 'गोतम' उस (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली - सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु का (युज्यः सखा) = सदा साथ रहनेवाला मित्र बनता है अथवा प्रभु को आदर्श मानकर कर्म करनेवाले (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष का वह विष्णु (युज्यः सखा) = सदा साथ रहनेवाला-अटूट मित्र बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु के कर्मों को देखकर हम अपने कर्त्तव्यों का निर्धारण करें। ऐसा करने पर वे प्रभु सदा हमारे पूर्ण मित्र होते हैं।
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