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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    याऽइष॑वो यातु॒धाना॑नां॒ ये वा॒ वन॒स्पतीँ॒१ऽरनु॑। ये वा॑व॒टेषु॒ शेर॑ते॒ तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः। इष॑वः। या॒तु॒धाना॑ना॒मिति॑ यातु॒ऽधाना॑नाम्। ये। वा॒। वन॒स्पती॑न्। अनु॑। ये। वा॒। अ॒व॒टेषु॑। शेर॑ते। तेभ्यः॑। स॒र्पेभ्यः॑। नमः॑ ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याऽइषवो यातुधानानाँये वा वनस्पतीँरनु । ये वावटेषु शेरते तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    याः। इषवः। यातुधानानामिति यातुऽधानानाम्। ये। वा। वनस्पतीन्। अनु। ये। वा। अवटेषु। शेरते। तेभ्यः। सर्पेभ्यः। नमः॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 7
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र के 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक' में होनेवाले लोकों के अतिरिक्त कुछ वे लोक भी हैं जो ('असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः') = अन्ध-तमस् से आवृत हैं। इन लोकों में वे जाया करते हैं जो आत्मघाती हैं। (या:) = जो (यातुधानानाम्) = औरों में पीड़ा का आधान करनेवाले लोगों के (इषवः) = गति-स्थान हैं [इष्यते गम्यते येषु, इषवः गतयःद०] । २. (ये वा) = अथवा जो (वनस्पतीन् अनु) = वनस्पतियों के आश्रित हैं, अर्थात् घने जङ्गलों से जो लोक घिरे हैं। ३. (वा) = या (ये) = जो (अवटेषु) = गढों में (शेरते) = निवास करते हैं, अर्थात् सामान्य भाषा में जिन्हें पाताललोक व नागलोक कहते हैं (तेभ्यः सर्पेभ्यः) = उन सब लोकों के लिए (नमः) = हम नमस्कार करते हैं। ४. प्रभु ने राक्षसों-पिशाचों के हित के लिए इन 'असुर्य अन्धकारमय' लोकों का निर्माण किया है। मृत्यु के बाद ये इन अन्धतमस् लोकों में जाते हैं और वहाँ एक बार सब अशुभ संस्कारों को भूलकर फिर इस पृथिवी पर जन्म लेते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ-यातुधानों- राक्षसों के गतिरूप वे अन्धकारमय लोक हैं जहाँ घने जङ्गल व गर्त-ही-गर्त हैं। इनमें अन्य व्यक्तियों से दूर रहते हुए वे पीड़ा देने की वृत्ति को भूल रहे होते हैं।

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