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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वत्सार ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ब्रह्म॑ जज्ञा॒नं प्र॑थ॒मं पु॒रस्ता॒द्वि सी॑म॒तः सु॒रुचो॑ वे॒नऽआ॑वः। स बु॒ध्न्याऽ उप॒माऽ अ॑स्य वि॒ष्ठाः स॒तश्च॒ योनि॒मस॑तश्च॒ वि वः॑॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑। ज॒ज्ञा॒नम्। प्र॒थ॒मम्। पु॒रस्ता॑त्। वि। सी॒म॒तः। सु॒रुच॒ इति॑ सु॒ऽरुचः॑। वे॒नः। आ॒व॒रित्या॑वः। सः। बु॒ध्न्याः᳖। उ॒प॒मा इत्यु॑प॒ऽमाः। अ॒स्य॒। वि॒ष्ठाः। वि॒स्था इति॑ वि॒ऽस्थाः। स॒तः। च॒। योनि॑म्। अस॑तः। च॒। वि। व॒रिति॑ वः ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म जज्ञानम्प्रथमम्पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेनऽआवः । स बुध्न्याऽउपमाऽअस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म। जज्ञानम्। प्रथमम्। पुरस्तात्। वि। सीमतः। सुरुच इति सुऽरुचः। वेनः। आवरित्यावः। सः। बुध्न्याः। उपमा इत्युपऽमाः। अस्य। विष्ठाः। विस्था इति विऽस्थाः। सतः। च। योनिम्। असतः। च। वि। वरिति वः॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र के अनुसार जिस प्रभु की महिमा का गायन जल, अग्नि व समुद्र कर रहे हैं, वह (ब्रह्म) = [बृहि वृद्धौ] सदा वृद्ध हैं, सदा से बढ़े हुए हैं, उनमें कोई वृद्धि नहीं होती रहती, क्योंकि वे तो पहले से ही पूर्ण हैं । २. (पुरस्तात् जज्ञानम्) = वे सृष्टि बनने से पहले ही जायमान हैं, अर्थात् वे कभी उत्पन्न नहीं हुए। यही भावना अगले मन्त्र में ‘हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे' शब्दों से कही जाएगी। ३. (प्रथमम्) = वे प्रभु सर्वत्र विस्तृत हैं, सर्वव्यापक हैं। एवं, प्रभु पूर्ण हैं, अनादि व आजन्मा है और सर्वव्यापक हैं। ४. इस प्रभु को (सुरुच:) = उत्तम रुचिवाला अथवा उत्तम ज्ञान-दीप्तिवाला (वेन:) = मेधावी पुरुष (सीमतः) = [ मर्यादात : - उ० ] सीमा में, मर्यादा में रहने के द्वारा (वि आवः) = अपने हृदयाकाश में प्रकट करता है, अर्थात् उस प्रभु के दर्शन कर पाता है । ५. (सः) = यह मेधावी पुरुष (बुध्न्या:) = [बुध्न= अन्तारेक्ष] अन्तरिक्ष में होनेवाली भूमियों को, प्राणियों के निवास स्थानों को भी (विवः) = अपने मस्तिष्क में प्रकाशित करता है, अर्थात् इन सब भूमियों के ज्ञान को प्राप्त करता है। इनके ज्ञान से ही तो वह इनमें प्रभु की महिमा व रचना - कुशलता को देख पाता है। ये मेधावी (विष्ठाः) = अन्तरिक्ष के विविध स्थानों लोकों में स्थित (अस्य) = इस दृश्य कारणजगत् के (योनिम्) = आधारभूत उस प्रभु को (विवः) = अपने हृदय देश में प्रकाशित करता है। 'इदं सर्वं ' तस्योपव्याख्यानम्' यह सारा जगत् तो उस प्रभु का उपव्याख्यान ही है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु पूर्ण, अनादि व अजन्मा है। प्रभु का दर्शन परिष्कृत इच्छाओंवाले, ज्ञान से दीप्त मेधावी को होता है। वह मेधावी प्रभु के बनाये लोक-लोकान्तरों का ज्ञान प्राप्त करता है और उन लोकों की अद्भुत रचना में परमेश्वर की महिमा को अनुभव करता है।

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