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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वत्सार ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    221

    ब्रह्म॑ जज्ञा॒नं प्र॑थ॒मं पु॒रस्ता॒द्वि सी॑म॒तः सु॒रुचो॑ वे॒नऽआ॑वः। स बु॒ध्न्याऽ उप॒माऽ अ॑स्य वि॒ष्ठाः स॒तश्च॒ योनि॒मस॑तश्च॒ वि वः॑॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑। ज॒ज्ञा॒नम्। प्र॒थ॒मम्। पु॒रस्ता॑त्। वि। सी॒म॒तः। सु॒रुच॒ इति॑ सु॒ऽरुचः॑। वे॒नः। आ॒व॒रित्या॑वः। सः। बु॒ध्न्याः᳖। उ॒प॒मा इत्यु॑प॒ऽमाः। अ॒स्य॒। वि॒ष्ठाः। वि॒स्था इति॑ वि॒ऽस्थाः। स॒तः। च॒। योनि॑म्। अस॑तः। च॒। वि। व॒रिति॑ वः ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म जज्ञानम्प्रथमम्पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेनऽआवः । स बुध्न्याऽउपमाऽअस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म। जज्ञानम्। प्रथमम्। पुरस्तात्। वि। सीमतः। सुरुच इति सुऽरुचः। वेनः। आवरित्यावः। सः। बुध्न्याः। उपमा इत्युपऽमाः। अस्य। विष्ठाः। विस्था इति विऽस्थाः। सतः। च। योनिम्। असतः। च। वि। वरिति वः॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    किं स्वरूपं ब्रह्म जनैरुपास्यमित्याह॥

    अन्वयः

    यत्पुरस्ताज्जज्ञानं प्रथमं ब्रह्म यः सुरुचो वेनो यस्यास्य बुध्न्या विष्ठा उपमाः सन्ति, स सर्वभावः स विसीमतः सतश्चासतश्च योनिं विवस्तत्सर्वैरुपासनीयम्॥३॥

    पदार्थः

    (ब्रह्म) सर्वेभ्यो बृहत् (जज्ञानम्) सर्वस्य जनकं विज्ञातृ (प्रथमम्) विस्तृतं विस्तारयितृ (पुरस्तात्) सृष्ट्यादौ (वि) (सीमतः) सीमातो मर्य्यादातः (सुरुचः) सुप्रकाशमानः सुष्ठु रुचिविषयश्च (वेनः) कमनीयः। वेनतीति कान्तिकर्म्मा॥ (निघं॰२।६) (आवः) आवृणोति स्वव्याप्त्याच्छादयति (सः) (बुध्न्याः) बुध्ने जलसम्बद्धेऽन्तरिक्षे भवाः सूर्य्यचन्द्रपृथिवीतारकादयो लोकाः (उपमाः) उपमिमते याभिस्ताः (अस्य) जगदीश्वरस्य (विष्ठाः) या विविधेषु स्थानेषु तिष्ठन्ति ताः (सतः) विद्यमानस्य व्यक्तस्य (च) अव्यक्तस्य (योनिम्) स्थानमाकाशम् (असतः) अविद्यमानस्यादृश्यस्याव्यक्तस्य कारणस्य (च) महत्तत्त्वादेः (विवः) विवृणोति। अत्र मन्त्रे घस॰ [अष्टा॰२.४.८०] इति च्लेर्लुग[भावश्च॥३॥ अत्राह यास्कमुनिः—विसीमतः सुरुचो वेन आवरिति च व्यवृणोत् सर्वत आदित्यः सुरुच आदित्यरश्मयः सुरोचनादपि वा सीमेत्येतदनर्थकमुपबन्धमाददीत पञ्चमीकर्माणं सीम्नः सीमतः सीमातो मर्य्यादातः सीमा मर्य्यादा विषीव्यति देशाविति। निरु॰१। ७। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.१.१४ व्याख्यातः]॥३॥

    भावार्थः

    यस्य ब्रह्मणो विज्ञानाय प्रसिद्धाऽप्रसिद्धलोका दृष्टान्ताः सन्ति, तत्सर्वत्राभिव्याप्तं सत्सर्वमावृणोति, सर्वं विकासयति, सुनियमेन स्वस्वकक्षायां विचालयति, तदेवान्तर्य्यामि ब्रह्म सर्वैर्मनुष्यैरुपास्यम्, नातो पृथग्वस्तु भजनीयम्॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यों को किस स्वरूप वाला ब्रह्म उपासना के योग्य है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    जो (पुरस्तात्) सृष्टि की आदि में (जज्ञानम्) सब का उत्पादक और ज्ञाता (प्रथमम्) विस्तारयुक्त और विस्तारकर्ता (ब्रह्म) सब से बड़ा जो (सुरुचः) सुन्दर प्रकाशयुक्त और सुन्दर रुचि का विषय (वेनः) ग्रहण के योग्य जिस (अस्य) इस के (बुध्न्याः) जल सम्बन्धी आकाश में वर्तमान सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी और नक्षत्र आदि (विष्ठाः) विविध स्थलों में स्थित (उपमाः) ईश्वर ज्ञान के दृष्टान्त लोक हैं, उन सब को (सः) वह (आवः) अपनी व्याप्ति से आच्छादन करता है, वह ईश्वर (विसीमतः) मर्य्यादा से (सतः) विद्यमान देखने योग्य (च) और (असतः) अव्यक्त (च) और कारण के (योनिम्) आकाशरूप स्थान को (विवः) ग्रहण करता है, उसी ब्रह्म की उपासना सब लोगों को नित्य अवश्य करनी चाहिये॥३॥

    भावार्थ

    जिस ब्रह्म के जानने के लिये प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध सब लोक दृष्टान्त हैं, जो सर्वत्र व्याप्त हुआ सब का आवरण और सभी को प्रकाश करता है और सुन्दर नियम के साथ अपनी-अपनी कक्षा में सब लोकों को रखता है, वही अन्तर्य्यामी परमात्मा सब मनुष्यों के निरन्तर उपासना के योग्य है, इससे अन्य कोई पदार्थ सेवने योग्य नहीं॥३॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे महनीय परमेश्वर! आप (ब्रह्म) बड़ों से भी बड़े हो, आपसे बड़ा वा आपके तुल्य कोई नहीं है (जज्ञानम्) सब जगत् में व्यापक [प्रादुर्भूत] हो, सब जगत् के (प्रथमम्) प्रथम [आदिकारण] आप ही हो, सूर्यादि लोक (सीमतः) सीमा से युक्त [मर्यादासहित] (सुरुचः) आपसे प्रकाशित हैं, (पुरस्तात्) इनको पूर्व रचके आप ही धरण कर रहे हो, "वि आव: इन सब लोकों को विविध नियमों से पृथक्-पृथक् यथायोग्य वर्त्ता रहे हो, (वेन:)  आपके आनन्दस्वरूप होने से ऐसा कोई जन संसार में नहीं है जो आपकी कामना न करे, सब ही आपको मिलना चाहते हैं तथा आप अनन्त विद्यायुक्त हो, सब रीति से [आ समन्तात्] रक्षक आप ही हो। वही आप (बुध्न्याः) अन्तरिक्षान्तर्गत दिशादि पदार्थों को (विवः) विवृत= विभक्त करते हैं। वे अन्तरिक्षादि (उपमा) सब व्यवहारों में उपयुक्त होते हैं और में वे (विष्ठाः) इस विविध जगत् के निवासस्थान हैं। (सत्) विद्यमान स्थूलजगत् (असतः)  अविद्यामान [अव्यक्त], चक्षुरादि इन्द्रियों से अगोचर इस विविध जगत् के (योनिम्) आदिकारण आपको ही वेदशास्त्र और विद्वान् लोग कहते हैं, इससे इस जगत् के माता-पिता आप ही हैं, हम लोगों के भजनीय इष्टदेव भी हो ॥ २८ ॥

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    विषय

    ब्रह्म शक्ति का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( पुरस्तात्) सब से प्रथम (जज्ञानम् ) प्रकट हुई। (प्रथमम् ) सब से प्रथम एंव सबसे अधिक विस्तृत (ब्रह्म) सत्र से महान् ब्रह्म रूप में परमात्मा की शक्ति को (वेनः ) वही कान्तिमान्, प्रकाश स्वरूप परमेश्वर ( सीमत : ) समस्त लोकों के बीच में व्यवस्था रूप से व्याप्त होकर ( सुरुचः ) समस्त रुचिकर तेजस्वी सूर्यो को ( विआवः ) विविध रूप से प्रकट करता है | ( सः ) वही परमेश्वर ( अस्य ) इस महानूशक्ति के (उपमाः) बतलानेवाले निदर्शक ( विष्ठाः ) नाना स्थलों में और नाना रूपों में स्थित ( बुध्न्याः ) आकाशस्थ लोकों को भी ( विआवः) विविध रूप से प्रकट करता है । और वही परमेश्वर ( सत: च ) इस व्यक्त जगत् के और ( असतः च योनिम् ) अव्यक्त मूल कारण के भी आश्रयस्थान आकाश को भी ( विवः ) प्रकट करता है । राष्ट्र पक्ष में-- सब से प्रथम ब्रह्मशक्ति उत्पन्न होती है। वही मर्यादा से ( सुरुचः ) तेजस्वी क्षत्रियों को भी प्रकट करती है । वही ( अस्य विष्ठाः उपमा ) इस राष्ट्र के विशेष स्थितिवाले ज्ञानी ( बुध्न्या ) आश्रय भूत वैश्यवर्ग को उत्पन्न करता है। और वही ( सतः असतः च योनिम् विवः ) सत् और असत् के आश्रय सामान्य प्रजा को भी उत्पन्न करता है॥ शत० ७।४।१।१४॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः । आर्ची त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    ब्रह्म-दर्शन

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार जिस प्रभु की महिमा का गायन जल, अग्नि व समुद्र कर रहे हैं, वह (ब्रह्म) = [बृहि वृद्धौ] सदा वृद्ध हैं, सदा से बढ़े हुए हैं, उनमें कोई वृद्धि नहीं होती रहती, क्योंकि वे तो पहले से ही पूर्ण हैं । २. (पुरस्तात् जज्ञानम्) = वे सृष्टि बनने से पहले ही जायमान हैं, अर्थात् वे कभी उत्पन्न नहीं हुए। यही भावना अगले मन्त्र में ‘हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे' शब्दों से कही जाएगी। ३. (प्रथमम्) = वे प्रभु सर्वत्र विस्तृत हैं, सर्वव्यापक हैं। एवं, प्रभु पूर्ण हैं, अनादि व आजन्मा है और सर्वव्यापक हैं। ४. इस प्रभु को (सुरुच:) = उत्तम रुचिवाला अथवा उत्तम ज्ञान-दीप्तिवाला (वेन:) = मेधावी पुरुष (सीमतः) = [ मर्यादात : - उ० ] सीमा में, मर्यादा में रहने के द्वारा (वि आवः) = अपने हृदयाकाश में प्रकट करता है, अर्थात् उस प्रभु के दर्शन कर पाता है । ५. (सः) = यह मेधावी पुरुष (बुध्न्या:) = [बुध्न= अन्तारेक्ष] अन्तरिक्ष में होनेवाली भूमियों को, प्राणियों के निवास स्थानों को भी (विवः) = अपने मस्तिष्क में प्रकाशित करता है, अर्थात् इन सब भूमियों के ज्ञान को प्राप्त करता है। इनके ज्ञान से ही तो वह इनमें प्रभु की महिमा व रचना - कुशलता को देख पाता है। ये मेधावी (विष्ठाः) = अन्तरिक्ष के विविध स्थानों लोकों में स्थित (अस्य) = इस दृश्य कारणजगत् के (योनिम्) = आधारभूत उस प्रभु को (विवः) = अपने हृदय देश में प्रकाशित करता है। 'इदं सर्वं ' तस्योपव्याख्यानम्' यह सारा जगत् तो उस प्रभु का उपव्याख्यान ही है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु पूर्ण, अनादि व अजन्मा है। प्रभु का दर्शन परिष्कृत इच्छाओंवाले, ज्ञान से दीप्त मेधावी को होता है। वह मेधावी प्रभु के बनाये लोक-लोकान्तरों का ज्ञान प्राप्त करता है और उन लोकों की अद्भुत रचना में परमेश्वर की महिमा को अनुभव करता है।

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    मराठी (3)

    भावार्थ

    ज्या ब्रह्माला जाणण्यासाठी या जगात व्यक्त व अव्यक्त अनेक प्रकारचे दृष्टांत आहेत, असा तो सर्वत्र व्याप्त असून सर्वांचे आच्छादन आहे व सर्वांना प्रकाश देणारा आहे. उत्तम नियमांनी सर्व ग्रह व गोलांना (चंद्र, सूर्य इत्यादींना) आपल्या कक्षेत ठेवणारा आहे. तोच अंतर्यामी परमात्मा (सर्व माणसांनी) सदैव उपासना करण्यायोग्य आहे. याशिवाय इतर कोणताही पदार्थ उपासना करण्यायोग्य नाही.

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    विषय

    मनुष्यांसाठी कोणत्या स्वरूपाचे ब्रह्म (ईश्‍वर) उपासनेस योग्य आहे, पुढील मंत्रात हा विषय कथित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - परमात्मा (पुरस्तात्‌) सृष्टीच्या प्रारंभ होताना (जज्ञानम्‌) सर्व जगाचा उत्पादक होता आणि सर्वज्ञानी होता व आहे, (प्रथमम्‌) तोच सृष्टीचा विस्तार करणारा आणि त्या विस्तारापेक्षा महान होता व आहे जो (ब्रह्म) सर्वांहून महान असून (सुरूच:) तोच जगातील सुंदर प्रकाशाचे आणि सौंदर्याचे कारण आहे वा जो तेजोमय आणि प्रियतम आहे, तो (वेन:) सर्वांसाठी ग्रहणीय (उपासनीय) आहे, (अस्म) त्याच्याद्वारा निर्मित (बुध्नया:) जलपूरित अंतरिक्षात सूर्य, चंद्र, पृथ्वी आणि अनेकानेक नक्षत्रादी जे (विष्ठा:) आपापल्या विशिष्ट स्थानात (कक्षेत) स्थित आहेत, ते (उपमा:) त्या ईश्‍वराच्या अस्तित्वाचे द्योदक वा प्रत्येक उदाहरणें आहेत. त्या सर्व ग्रह-नक्षत्रांना (स:) तोच (आव:) आपल्या व्यापकत्वामुळे आच्छादित करून विद्यमान आहे. तो (बिसीमत:) आपल्या (गुण, कर्म, स्वभावाच्या) मर्यादेत विद्यमान आहे (त्या अव्यक्ताचे अस्तित्व पदार्थाच्या विद्यमानतेत पाहता येते) (च) आणि तो (असत:) अव्यक्त (च) कारण असून (योनिम्‌) आकाशरुप स्थानावत्ता (विव:) धारण वा व्याप्त करीत आहे. अशा ब्रह्माची उपासना सर्वांनी अवश्‍य केली पाहिजे. ॥3॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्या ब्रह्माला जाणण्यासाठी दृश्‍यमान लोक आणि अतिदूवर्ती अदृश्‍यमान लोकालोकांतर प्रत्यक्ष दृष्टांत वा साक्ष आहेत (त्या प्रत्यक्ष लोक-नक्षत्रादींना पाहून त्याची प्रचीती येते) जो सर्वत्र व्याप्त असून सर्वांचे आवरणरूप आहे, जो सर्वांना प्रकाश देतो आणि सर्व ग्रह-नक्षत्रादी लोकांना नियमत: त्या त्या कक्षेत ठेवत आहे, तोच सर्वान्तर्यामी परमात्मा सर्व मनुष्यांसाठी उपासनीय आहे. त्याच्या व्यक्तिरिक्त कोणताही पदार्थ सेवनीय वा उपासनीय नाही. ॥3॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे महान परमेश्वरा! तू मोठ्यात मोठा आहेस. तुझ्या एवढा मोठा व तुम्यातून मोठा दुसरा कोणीही नाही. (जज्ञानम्) तू सर्व जगात व्याप्त आहेस. सर्व जागचे आदिकरण तूच आहेस. (सीमतः) सूर्यादि गोल सीमित आहेत. (सुरुचः) ते तुझ्या प्रकाशामुळे प्रकाशित होतात. (पुरस्तात्) आधी त्यांना त् निर्माण करतोस व मग धारण करतोस. (वि आवः) या सर्व गोलांना विविध नियमांनी बंधित करून त् यथायोग्य वेगवेगळे ठेवले आहेस. (वेनः) तू आनंदस्वरूप आहेस. म्हणून एकही व्यक्ति अशी आढळणार नाही जी तुझी कामना करीत नाही. तुला भेटावे म्हणून सर्वजण धडपडत असतात. तू अनंत विद्यायुक्त आहेस. सर्व प्रकारे रक्षक आहेस. (बुध्न्याः) असा जो परमेश्वर अंतरिक्षातील विशा इत्यादींना (विवः) वेगवेगळे करतो. (उपमा) दिशा या अंतरिक्षातील व्यवहारात उपयुक्त ठरतात. त्या या विविध जगाचे निवासस्थान आहेत. (सत्) विद्यमान स्थूल जगात् (असत्), (अविद्या) नेत्रांना न दिसणारे अदृश्य जगत् यांचे (योनि) आदिकरण म्हणून तुलाच वेदशाख व विद्वान लोक मानतात. त्यामुळे या जगाचा माता पिता तूच आहेस. आम्ही भजन करावे असा इष्टदेव तूच आहेस.॥२८॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    That God alone is Adorable, Who, in the beginning of the universe, created everything, is wide in expansion, Highest of all, Effulgent, and Worthy of worship. The sun, moon and other worlds in the atmosphere, stationed in their orbits, testify to His knowledge. He pervades them all through His Omnipresence and comprehends the visible and the invisible in space.

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    Meaning

    Brahma, infinite spirit of the universe, all-creator and omniscient, is the first and greatest reality of existence. Worthy of love and adoration, It is the highest object of desire for the wise. The great and glorious objects (such as the sun, the moon, the earth) which fill the skies in various regions of space are exemplary revelations of Its creative power In the beginning of creation, that Brahma, from the potential and law of Its own existence, invokes Prakriti, the original Nature which is the cause of all that is come into existence and also that which is yet to come into existence. .

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    Purport

    Exceedingly great O Supreme Soul! You are The Greatest among the great. There is none who may be superior or equal to you. You are Omnipresent. You are the primitive cause of the whole world. The sun and the other planets, with their orbital limits are illumined by Youthey are shining by your lustre. After creating these planets you are upholding and sustaining these. You are regulating-rotating each one of them properly in their own course by your various laws. You being embodiment of bliss, there is none in the world who does not wish to realise you. Everyone wants to have a vision of Yoursall beings, in all directions, in every way. You are extremely full of knowledge and protector from every angle. The Supreme Soul divides all the directions and things existing in the vast space in the middle and other regions. These natural entities are useful in our transaction daily, because You they are dwelling places of this multifarious creation. Yo are reliever of our ignorance. T The Vedas the sacred books, the learned and the wise declare that you are the prime cause of this visible and invisible vast multifarious and gross world, hence you are the Father and Mother of this world and our most desirable Deity.

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    Translation

    The supreme Lord was the first knower, pre-existing all. That beautiful one, from the summit enlightens the beautiful worlds. He illuminates the regions, midregions, the worlds existing therein, and the womb of the existent and the non-existent. (1)

    Notes

    Jajüünam, विज्ञातृ, knower of all. Vi ауаһ, व्यावृणोत्, exposes; illuminates. Surucah, सुष्ठु रोचंते शोभंते तान्, that look beautiful. Brahma, the Supreme Lord; greatest of all (Daya. ),ब्रह्म बृहत् रुक्मरूपोऽयमादित्य: , sun in the form of a large rukma, a piece of gold hung round the neck as an ornament. Venah, कांत: beautiful; loving one; the rising morning sun (Griffith). Simatah, from the summit, i. e. the highest point. Budhnyah, getafe,बुध्नमंतरिक्षं तत्र भवा दिशो बुध्न्या:, regions, because these are in the mid-space (अंतरिक्ष = बुध्न): East, South, West and North; the quarters. Upamah, उपमीयंते स्थितानि भूतानि इति उपमा: दिश:, mid-regions, residing where-in all the beings are measured, or compared; Vayavya, Nairrtya, Agneya and ISana. Visthah, विशेषेण तिष्ठंति इति विष्ठा:, the worlds, that exist in the regions and in the mid-regions. Sat and asat, existing and non-existing. Also, good and evil. मूर्तस्य अमूर्तस्य च, that which has a definite shape such as a tree or a mountain, and that which does not have any shape, such as air etc. (Uvata).

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    बंगाली (2)

    विषय

    কিং স্বরূপং ব্রহ্ম জনৈরুপাস্যমিত্যাহ ॥
    মনুষ্যদিগের কী স্বরূপযুক্ত ব্রহ্ম উপাসনার যোগ্য, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যিনি (পুরস্তাৎ) সৃষ্টির আদিতে (জজ্ঞানম্) সকলের উৎপাদক ও জ্ঞাতা (প্রথমম্) বিস্তারযুক্ত ও বিস্তারকর্ত্তা (ব্রহ্ম) সর্ববৃহৎ, যিনি (সুরুচঃ) সুন্দর প্রকাশযুক্ত এবং সুন্দর রুচির বিষয় (বেনঃ) গ্রহণীয় (অস্য) ইহার (বুধ্ন্যাঃ) জল সম্বন্ধীয় আকাশে বর্ত্তমান সূর্য্য, চন্দ্র, পৃথিবী ও নক্ষত্রাদি (বিষ্ঠাঃ) বিবিধ স্থলে স্থিত (উপমাঃ) ঈশ্বর জ্ঞানের দৃষ্টান্ত লোক, উহাদিগের সকলকে (সঃ) তিনি (আবঃ) নিজ ব্যাপ্তি দ্বারা আচ্ছাদিত করেন সেই ঈশ্বর (বিসীমিতঃ) মর্য্যাদাপূর্বক (সতঃ) বিদ্যমান দর্শনীয় (চ) এবং (অসতঃ) অব্যক্ত (চ) তথা কারণের (য়োনিম্) আকাশরূপ স্থানকে (বিবঃ) গ্রহণ করেন । সেই ব্রহ্মার উপাসনা সমস্ত লোকদিগকে নিত্য অবশ্য করা উচিত ॥ ৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে ব্রহ্মকে জানিবার জন্য প্রসিদ্ধ ও অপ্রসিদ্ধ সমস্ত লোক দৃষ্টান্ত হইয়া আছে, যিনি সর্বত্র ব্যাপ্ত হইয়া সকলের আবরণ এবং সকলকে প্রকাশিত করেন এবং সুন্দর নিয়ম সহ নিজ নিজ কক্ষে সমস্ত লোককে স্থাপন করেন । সেই অন্তর্য্যামী পরমাত্মা সর্ব মনুষ্যের নিরন্তর উপাসনার যোগ্য, ইহা ব্যতীত অন্য কোন পদার্থ সেবনীয় নহে ॥ ৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ব্রহ্ম॑ জজ্ঞা॒নং প্র॑থ॒মং পু॒রস্তা॒দ্বি সী॑ম॒তঃ সু॒রুচো॑ বে॒নऽআ॑বঃ ।
    স বু॒ধ্ন্যা᳖ऽ উপ॒মাऽ অ॑স্য বি॒ষ্ঠাঃ স॒তশ্চ॒ য়োনি॒মস॑তশ্চ॒ বি বঃ॑ ॥ ৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ব্রহ্ম জজ্ঞানমিত্যস্য বৎসার ঋষিঃ । আদিত্যো দেবতা । নিচৃৎত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

     

    ব্রহ্ম জজ্ঞানং প্রথমং পুরস্তাদ্বিসীমতঃ সুরুচো বেন আবঃ।

    স বুধ্ন্যাঽউপমাঽঅস্য বিষ্টাঃ সতশ্চ যোনিমসতশ্চ বি বঃ।।১৪।।

    (যজুর্বেদ ১৩।৩)

    পদার্থঃ (পুরস্তাৎ) সৃষ্টির আদিতে (জজ্ঞানম্) সবার উৎপাদক, (প্রথমম্) বিস্তারযুক্ত, (ব্রহ্ম) সবার চেয়ে মহান, (বেনঃ) কান্তিময় পরমেশ্বর (সীমতঃ) সমস্ত লোকে ব্যাপ্ত হয়ে (সুরুচঃ) সমস্ত রুচিকর বিষয় [সূর্যকে] (বি আবঃ) বিশেষরূপে প্রকট করেছেন। (স) পরমেশ্বর (অস্য) এই মহান শক্তির  (উপমা) নিদর্শক (বিষ্টাঃ) বিবিধ স্থানে স্থিত (বুধ্ন্যা) আকাশস্থ সূর্য, চন্দ্রমানক্ষত্র সহ সমস্ত (সত) ব্যক্ত  জগত (চ) এবং  (অসত) অব্যক্ত মূল কারণকে (চ) এবং (যোনিম্) আশ্রয়স্থানরূপ আকাশকেও (বি বঃ) প্রকট করেন।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ জগৎ নির্মাতা পরমেশ্বর জীবের জন্য সম্পূর্ণ সৃষ্টি রচনা করেছেন। আকাশে সূর্য সুষ্টি করেছেন, অন্ধকার দূর করার জন্য। সমগ্র প্রাণী, উদ্ভিদজগৎ সেই সূর্যের মাধ্যমে পুষ্টিগুণ অর্জন করে। যিনি আমাদের বাসস্থানের উপযোগী পৃথিবী নির্মাণ করে সূর্য, চন্দ্রমা, নক্ষত্রসহ সকল নির্দিষ্ট স্থানে স্থিত করেছেন, সেই পরমেশ্বরকে বারবার নমস্কার।।১৪।।

     

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे महनीय परमेश्वर ! तपाईं ब्रह्म = महान् हरु भन्दा पनि महान् हुनुहुन्छ, तपाईं भन्दा महान् अथवा तपाईंका तुल्यकोहि पनि छैन । जज्ञानम् = सम्पूर्ण जगत् मा व्यापक [प्रादुर्भूत ] हुनुहुन्छ । सम्पूर्ण जगत् का प्रथमम्=प्रथम [आदि कारण] तपाईं नै हुनुहुन्छ । सूर्यादि लोक सीमतः=सिमाना सम्म [ मर्यादा सहित] सुरुचः = तपाईंबाटै प्रकाशित छन् । पुरस्तात्=ई सबै लोक हरु लाई अगाडि नै रचना गरेरे आफु स्वयं ले धारण गरि रहनुभएको छ । वि आवः = ई सबै लोक हरु लाई थरि थरि का नियम हरु ले छुट्टा छुट्टै यथायोग्य चलाई रहनु भएको छ । वेनः= तपाईं आनन्दस्वरूप हुनाले एस्तो कुनै जन संसार मा छैन जसले तपाईंको कामना न गरोस् सबै नै तपाईंलाई भेट्न चाहन्छन् तथा तपाईं अनन्त विद्यायुक्त हुनुहुन्छ । सबै प्रकार ले [आसमन्तात्] रक्षक तपाईं नै हुनुहुन्छ । उही तपाईं बुध्न्याः = अन्तरिक्षान्तर्गत पूर्वादि दिशा पदार्थ हरु लाई विवः=विवृत अर्थात् विभक्त गर्नु हुन्छ । ती अन्तरिक्षादि उपमा= सबै व्यवहार हरु मा उपयुक्त हुन्छन् । अरू ती विष्टा:= एस विविध जगत् का निवासस्थान हुन् । सत् = विद्यमान स्थूल जगत् असतः=अविद्यमान् अर्थात् अव्यक्त, चक्षुरादि इन्द्रिय बाट अगोचर एस विविध जगत् का योनिम् = आदिकारण तपाईं लाई नै वेदशास्त्र र विद्वान् हरु भन्दछन्, एसर्थ एस जगत् का माता-पिता तपाईं नै हुनुहुन्छ, हामी सबै का भजनीय इष्टदेव पनि तपाईं नै हुनुहुन्छ ॥ २८ ॥

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