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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 15
    ऋषिः - त्रिशिरा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    88

    भुवो॑ य॒ज्ञस्य॒ रज॑सश्च ने॒ता यत्रा॑ नि॒युद्भिः॒ सच॑से शि॒वाभिः॑। दि॒वि मू॒र्द्धानं॑ दधिषे स्व॒र्षां जि॒ह्वाम॑ग्ने चकृषे हव्य॒वाह॑म्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुवः॑। य॒ज्ञस्य॑। रज॑सः। च॒। ने॒ता। यत्र॑। नि॒युद्भि॒रिति॑ नि॒युत्ऽभिः॑। सच॑से। शि॒वाभिः॑। दि॒वि। मू॒र्द्धान॑म्। द॒धि॒षे॒। स्व॒र्षाम्। स्वः॒सामिति॑ स्वः॒ऽसाम्। जि॒ह्वाम्। अ॒ग्ने॒। च॒कृ॒षे॒। ह॒व्य॒वाह॒मिति॑ हव्य॒ऽवाह॑म् ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भिः सचसे शिवाभिः । दिवि मूर्धानन्दधिषे स्वर्षाञ्जिह्वामग्ने चक्रिषे हव्यवाहम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भुवः। यज्ञस्य। रजसः। च। नेता। यत्र। नियुद्भिरिति नियुत्ऽभिः। सचसे। शिवाभिः। दिवि। मूर्द्धानम्। दधिषे। स्वर्षाम्। स्वःसामिति स्वःऽसाम्। जिह्वाम्। अग्ने। चकृषे। हव्यवाहमिति हव्यऽवाहम्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशो भवेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन्! यथाऽग्निर्नियुद्भिः सह वायू रजसो नेता सन् दिवि मूर्द्धानं धरति, तथा यत्र शिवाभिः सह भुवो यज्ञस्य सचसे राज्यं दधिषे, हव्यवाहं स्वर्षां जिह्वाञ्चकृषे, तत्र सर्वाणि सुखानि वर्द्धन्त इति विजानीहि॥१५॥

    पदार्थः

    (भुवः) पृथिव्याः (यज्ञस्य) राजधर्मस्य (रजसः) लोकस्यैश्वर्यस्य वा (च) पश्वादीनाम् (नेता) नयनकर्त्ता (यत्र) राज्ये। अत्र निपातस्य च [अष्टा॰६.३.१३६] इति दीर्घः (नियुद्भिः) वायोर्वेगादिगुणैः सह (सचसे) समवैषि (शिवाभिः) कल्याणकारिकाभिर्नीतिभिः (दिवि) न्यायप्रकाशे (मूर्द्धानम्) शिरः (दधिषे) धरसि (स्वर्षाम्) स्वः सुखानि सनन्ति भजन्ति यया ताम् (जिह्वाम्) जोहवीति यया तां वाचम् (अग्ने) विद्वन् (चकृषे) करोषि (हव्यवाहम्) हव्यानि होतु दातुमर्हाणि प्रज्ञानानि यया ताम्। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.१.४२ व्याख्यातः]॥१५॥

    भावार्थः

    यस्मिन् राज्ये राजादयः सर्वे धार्मिका मङ्गलचारिणो धर्मेण प्रजाः पालयेयुस्तत्र विद्यासुशिक्षाजानि सुखानि कुतो न वर्द्धेरन्॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष! (यत्र) जिस राज्य में आप जैसे (नियुद्भिः) वेग आदि गुणों के साथ वायु (रजसः) लोकों वा ऐश्वर्य्य का (नेता) चलाने हारा (दिवि) न्याय के प्रकाश में (मूर्द्धानम्) शिर को धारण करता है, वैसे (यत्र) जहां (शिवाभिः) कल्याणकारक नीतियों के साथ (भुवः) अपनी पृथिवी के (यज्ञस्य) राजधर्म्म के पालन करनेहारे होके (सचसे) संयुक्त होता, अच्छे पुरुषों से राज्य को (दधिषे) धारण और (हव्यवाहम्) देने योग्य विद्वानों की प्राप्ति का हेतु (स्वर्षाम्) सुखों का सेवन करानेहारी (जिह्वाम्) अच्छे विषयों की ग्राहक वाणी को (चकृषे) करते हो, वहाँ सब सुख बढ़ते हैं, यह निश्चित जानिये॥१५॥

    भावार्थ

    जिस राज्य में राजा आदि सब राजपुरुष मंगलाचरण करनेहारे धर्मात्मा होके धर्मानुकूल प्रजाओं का पालन करें, वहां विद्या और अच्छी शिक्षा से होने वाले सुख क्यों न बढ़ें॥१५॥

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    विषय

    सूर्य के समान सेनापति का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) राजन् ! तेजस्विन् ! सूर्य और अग्नि जिस प्रकार ( भुवः यज्ञस्य रजसः च नेता ) पृथिवी, वायु और लोकों का नायक है और वह ( नियुद्धि: शिवाभिः ) मङ्गलकारिणी वायु की शक्तियों से युक्त होता है और (दिधि मूर्धानम् मेदधिषे ) द्यौलोक में शिरो भाग के समान सर्वोच्च स्थिति को धारण करता है और अग्नि जिस प्रकार (हव्यवाहं जिह्वां चकृषे) हवि को खाने वाली ज्वाला को भी प्रकट करता है उसी प्रकार (यत्र) जिस राष्ट्र में तू ( भुवः ) समस्त पृथिवी का ( नेता ) नायक और ( यज्ञस्य नेता ) समस्त राष्ट्र - व्यवस्था का नायक और ( रजसः च नेता ) समस्त लोकसमूह, जन समूह और समस्त ऐश्वर्यों का नेता, प्राप्त करनेवाला होकर ( शिवाभिः ) मङ्गलकारिणी ( नियुद्भिः ) वायु के समान तीव्र वेगवाली शत्रु को छेदन भेदन करनेवाली सेनाओं से भी ( सचसे ) युक्त होकर रहता है और दिवि )न्यायप्रकाशयुक्त श्रेष्ठ व्यवहार में ( मूर्धानं ) शिरोभाग, सर्वोच्च पद को ( दधिषे ) धारण करता है और ( हव्यवाहम् ) प्रहण करने योग्य ज्ञान से पूर्ण आज्ञा वचनों को प्राप्त करानेवाली (स्पर्णाम्) सुखदायिनी ( जिह्वाम् ) वाणी, आज्ञा को भी ( चकृपे )प्रकट करता है ॥शत० ७ । ४ । १।१५ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशिरा ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    तीनों दृष्टिकोणों से शिखर पर

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में शिखर पर पहुँचने का उल्लेख था। प्रस्तुत मन्त्र में उसी का विस्तार से उल्लेख करते हुए कहते हैं कि [क] यह स्वस्थ शरीर में उत्तम रचनात्मक कर्मों का करनेवाला होता है, [ख] मस्तिष्क को ज्ञान-प्रकाश में स्थापित करता है, [ग] वाणी से प्रभु के नाम का भजन करता है और इस प्रकार 'त्रिशिरा:' त्रिविध उन्नति करनेवाला होता है। २. प्रभु कहते हैं कि हे त्रिशिरः ! तू (भुवः) = इस पार्थिव शरीर से (यज्ञस्य) = लोकहित के लिए किये जानेवाले कर्मों का, और उन कर्मों के द्वारा (रजसः) = लोकरञ्जन का, लोकों के प्रसादन का (नेता) = प्राप्त करानेवाला होता है। संक्षेप में कहें तो यह कि तू शरीर को स्वस्थ बनाता है, उस स्वस्थ शरीर से तू यज्ञों को करता है और यज्ञों से लोकों के आनन्द को सिद्ध करनेवाला होता है। ३. यह वह मार्ग है (यत्र) = जिसमें तू (शिवाभिः) = कल्याणकर, मङ्गलमय (नियुद्भिः) = इन्द्रियरूप घोड़ों से (सचसे) = युक्त होता है, अर्थात् यज्ञों में प्रवृत्ति तेरी इन्द्रियों को बड़ा सुन्दर बनाये रखती है । ४. इस मार्ग पर चलता हुआ तू (मूर्धानम्) = अपने मस्तिष्क को (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश में (दधिषे) = धारण करता है। तू अपने मस्तिष्क को ज्ञान-दीप्ति से अधिक-से-अधिक उज्ज्वल बनाता है। ५. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (स्वर्षाम्) = [स्व: समोति भजति] उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को प्रभु के नाम को भजनेवाली (जिह्वाम्) = जिह्वा को (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों का ही वहन करनेवाली (चकृषे) = बनाता है, अर्थात् यज्ञिय सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करता है। ६. एवं त्रिशिरा के जीवन में [क] उसका स्वस्थ शरीर तथा स्वस्थ शरीर रथ में जुती हुई कल्याणमयी इन्द्रियरूपी घोड़ियाँ सदा यज्ञ द्वारा, लोकहितकारी कार्यों के द्वारा, लोकरञ्जन में लगी रहती हैं। [ख] उसका मस्तिष्क सदा ज्ञान में अवस्थित होता है। [ग] उसकी जिह्वा पर प्रभु का नाम होता है और उसकी जिह्वा सात्त्विक भोजनों का ही स्वाद लेती है। एवं त्रिशिरा का नाम पूर्णतया अन्वर्थक ही होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे हाथ यज्ञात्मक कर्मों में लगे हों, मस्तिष्क ज्ञान में, तथा जिह्वा प्रभु नामोच्चारण में और सात्त्विक अन्न के सेवन में।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्या राज्यात राजा इत्यादी सर्व राजपुरुष कल्याण करणारे धर्मात्मा असून धर्मानुकूल वागून प्रजेचे पालन करतात तेथे विद्या व उत्तम शिक्षणाने सुख वाढले तर त्यात नवल कसले?

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    विषय

    पुनश्‍च, तो राजपुरूष कसा असावा, याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान (राजा वा राजपुरुष), (यत्र) ज्या राज्यात आपणासारखा (नियुद्भि:) वायूच्या वेगाप्रमाणे शीघ्र कार्य करणारा, (रजस:) लोक (समाज) अथवा ऐश्‍वर्याचा (नेता) मार्गदर्शक असणारा आणि (दिवि) न्यायाचा प्रकाश (वा न्याय्यवृत्ती) (मूद्धनिम्‌) मस्तिष्कामधे धारण करणारा (गतिशील, मार्गदर्शक व त्याचा विचार असलेला) राजा असते, (तिथे सर्वप्रकारे सुख नांदते). तसेच (यंत्र) ज्या राज्यात (शिवाभि:) कल्याणकारी नीतीचा अंमल असून (भुव:) आपल्या भूमीचे पालन (यज्ञस्य) राजधर्माप्रमाणे (सचसे) होत असते जिथे श्रेष्ठ पुरुष राज्य (दधिषे) धारण करतात (वा राज्य चालवितात) तसेच (हव्यवाहनम्‌) जिथे विद्वानांना आवश्‍यक वस्तू आणि (स्वर्पाभू) सुखसोयी देणारी (व्यवस्था आहे) चांगले बोलणारी वाणी (आदर-सम्मानाची वागणूक) (चकृषे) बोलली व केली जातो, (त्या आपल्या अशा या राज्यात) सुख आणि आनंदाची वर्षा का होऊ नये! (अर्थात अवश्‍य होते) ॥15॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्या राज्यात राजा आणि राजपुरुष मंगलमय आचरण करणारे, धर्मात्मा असून धर्माप्रमाणे प्रजेचे पालन करणारे असतील तिथे विद्या आणि उत्तम शिक्षणादीमुळे उत्पन्न होणारे सुख का वाढू नये? (अर्थात त्या राज्यात सुख आणि आनंद अवश्‍य नांदणार.) ॥15॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, know, that country flourishes, in which, there are men like thee active as air, leaders of supremacy, and heads of justice ; where there are men to carry on the administration of the land with good statesmanship; where ~the country is preserved by efficient officials ; and where the wisdom-inspiring and pleasure-giving speech is used.

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    Meaning

    Agni is the leader and mover of the earth and its life, of the motions of wind and energy in the middle sphere, and of the cosmic yajna of creation. And there everywhere it is one with the blissful dynamics of existence. As it sends up its flames of fire bearing the light and fragrance of yajna, it holds its head high and wields the light of the sun in heaven. (Similarly, O king, be the leader of the nation’s life on earth and the dignity and dynamics of the polity. Be the path-maker of the policies of peace, justice and happiness and hold your head high with words of enlightenment, creativity and joy for the people. )

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    Translation

    О fire divine, you are the leader of this world, of this sacrifice, and of the mid-space, which you look after with your auspicious teams. You hold your head high in the sky and make your pleasure-seeking tongue the bearer of oblations. (1)

    Notes

    Bhuvah, of this world; of Earth. भुव: भवसि, you become. (Mahidhara). Rajasah, अंतरिक्षस्य , of the mid-space. रजस: उदकस्य यज्ञपरिणाम भूतस्य, of rain water caused by the sacrifice, (यज्ञात्भवति पर्जन्य: clouds are formed due to the sacrifice performed). Niyudbhih, with the teams of horses; with mares; with vdyu (wind), नियुतो नाम वायोरश्वा:, niyuts are the mares of the wind (in legend). Svarsam, सुखानि सनंति भजंति यया ताम्, with which the pleasures are enjoyed; pleasure-seeking. Jihvà, tongue; flames are the tongues of fire as if.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স কীদৃশো ভবেদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সে কেমন হইবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) বিদ্বান্ পুরুষ ! (য়ত্র) যে রাজ্যে আপনার মত (নিয়ুদ্ভিঃ) বেগাদি গুণ সহ বায়ু (রজসঃ) লোকান্তরসকলের বা ঐশ্বর্য্যের (নেতা) পরিচালক (দিবি) ন্যায়ের প্রকাশে (মুর্দ্ধানম্) শিরকে ধারণ করেন, সেইরূপ (য়ত্র) যেখানে (শিবাভিঃ) কল্যাণকারক নীতিসহ (ভুবঃ) স্বীয় পৃথিবীর (য়জ্ঞস্য) রাজ ধর্ম্মের পালনকারী হইয়া (সচসে) সংযুক্ত হওয়া উত্তম পুরুষদিগের দ্বারা রাজ্যকে (দধিষে) ধারণ ও (হব্যবাহম্) দেওয়ার যোগ্য বিদ্বান্দিগের প্রাপ্তির হেতু (স্বর্ষাম্) সুখ সেবনকারী (জিহ্বাম্) উত্তম বিষয়ের গ্রাহক বাণীকে (চকৃষে) করেন সেখানে সমস্ত সুখ বৃদ্ধি পায় ইহা নিশ্চিত জানিবেন ॥ ১৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে রাজ্যে রাজাদি সব রাজপুরুষ মঙ্গলাচরণকারী ধর্মাত্মা হইয়া ধর্মানুকূল প্রজাদিগের পালন করিবে সেখানে বিদ্যা ও সুশিক্ষা দ্বারা সম্পন্ন সুখ কেন বর্দ্ধিত হইবে না? ॥ ১৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ভুবো॑ য়॒জ্ঞস্য॒ রজ॑সশ্চ নে॒তা য়ত্রা॑ নি॒য়ুদ্ভিঃ॒ সচ॑সে শি॒বাভিঃ॑ ।
    দি॒বি মূ॒র্দ্ধানং॑ দধিষে স্ব॒র্ষাং জি॒হ্বাম॑গ্নে চকৃষে হব্য॒বাহ॑ম্ ॥ ১৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ভুবো য়জ্ঞস্যেত্যস্য ত্রিশিরা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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