Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 13

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 30
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    124

    अ॒पां गम्भ॑न्त्सीद॒ मा त्वा॒ सूर्य्यो॒ऽभिता॑प्सी॒न्माग्निर्वै॑श्वान॒रः। अच्छि॑न्नपत्राः प्र॒जाऽ अ॑नु॒वीक्ष॒स्वानु॑ त्वा दि॒व्या वृष्टिः॑ सचताम्॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। गम्भ॑न्। सी॒द॒। मा। त्वा॒। सूर्य्यः॑। अ॒भि। ता॒प्सी॒त्। मा। अ॒ग्निः। वै॒श्वा॒न॒रः। अच्छि॑न्नपत्रा॒ इत्यच्छि॑न्नऽपत्राः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒नु॒वीक्ष॒स्वेत्य॑नु॒ऽवीक्ष॑स्व। अनु॑। त्वा॒। दि॒व्या। वृष्टिः॑। स॒च॒ता॒म् ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाङ्गम्भन्त्सीद मा त्वा सूर्याभि ताप्सीन्माग्निर्वैश्वानरः । अच्छिन्नपत्राः प्रजा अनुवीक्षस्वानु त्वा दिव्या वृष्टिः सचताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। गम्भन्। सीद। मा। त्वा। सूर्य्यः। अभि। ताप्सीत्। मा। अग्निः। वैश्वानरः। अच्िछन्नपत्रा इत्यच्िछन्नऽपत्राः। प्रजा इति प्रऽजाः। अनुवीक्षस्वेत्यनुऽवीक्षस्व। अनु। त्वा। दिव्या। वृष्टिः। सचताम्॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य! त्वं वसन्तेऽपां गम्भन्निव सीद यतः सूर्य्यस्त्वा माऽभिताप्सीत्। वैश्वानरोऽग्निस्त्वा माभिताप्सीदच्छिन्नपत्राः प्रजा अनु त्वा दिव्या वृष्टिः सचताम्, तथा त्वमनुवीक्षस्व॥३०॥

    पदार्थः

    (अपाम्) जलानाम् (गम्भन्) गम्भनि धारके मेघे। अत्र गमधातोरौणादिको बाहुलकाद् भनिन् प्रत्ययः सप्तम्या लुक् च (सीद) आस्स्व (मा) (त्वा) त्वाम् (सूर्य्यः) मार्तण्डः (अभि) (ताप्सीत्) तपेत् (मा) (अग्निः) (वैश्वानरः) विश्वेषु नरेषु राजमानः (अच्छिन्नपत्राः) अच्छिन्नानि पत्राणि यासां ताः (प्रजाः) (अनुवीक्षस्व) आनुकूल्येन विशेषतः संप्रेक्षस्व (अनु) (त्वा) त्वाम् (दिव्या) शुद्धगुणसम्पन्ना (वृष्टिः) (सचताम्) समवैतु। [अयं मन्त्रः शत॰७.५.२.८ व्याख्यातः]॥३०॥

    भावार्थः

    वसन्तग्रीष्मयोर्मध्ये मनुष्या जलाशयस्थं शीतलं स्थानं संसेवन्ताम्, येन तापाऽभितप्ता न स्युः, येन यज्ञेन पुष्कला वृष्टिः स्यात् प्रजानन्दश्च तं सेवध्वम्॥३०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य! तू वसन्त ऋतु में (अपाम्) जलों के (गम्भन्) आधारकर्त्ता मेघ में (सीद) स्थिर हो, जिससे (सूर्य्यः) सूर्य्य (त्वा) तुझ को (मा)(अभिताप्सीत्) तपावे (वैश्वानरः) सब मनुष्यों में प्रकाशमान (अग्निः) अग्नि बिजुली (त्वा) तुझ को (मा)(अभिताप्सीत्) तप्त करे (अच्छिन्नपत्राः) सुन्दर पूर्ण अवयवों वाली (प्रजाः) प्रजा (अनु त्वा) तेरे अनुकूल और (दिव्या) शुद्ध गुणों से युक्त (वृष्टिः) वर्षा (सचताम्) प्राप्त होवे, वैसे (अनुवीक्षस्व) अनुकूलता से विशेष करके विचार कर॥३०॥

    भावार्थ

    मनुष्य वसन्त और ग्रीष्म ऋतु के जलाशयस्थ शीतल स्थान का सेवन करें, जिससे गर्मी से दुःखित न हों और जिस यज्ञ से वर्षा भी ठीक-ठीक हो और प्रजा आनन्दित हो, उसका सेवन करो॥३०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा का कर्तव्य प्रजा को सदा सुखी रखना ।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! प्रजापते ! राजन् ! तू (अपां गम्भन ) जलों को धारण करने वाले मेघ या सूर्य के समान प्रजाओं और आप्त पुरुषों को वश करने वाले राजपद पर ( सीद ) विराजमान हो। ( सूर्यः ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष तुझ से अधिक वलवान् पुरुष भी ( त्वा मा अभि- ताप्सीत् ) तुझे संतापित या पीड़ित न करे । ( वैश्वानरः ) समस्त विश्व का हितकारी नायक ( अग्निः ) प्रजा का अग्रणी नायक भी (मा) तुझे जत सतावे | तू केवल ( प्रजाः ) प्रजाओं को ( अच्छिन पत्राः ) बिना किसी प्रकार के आघात पाये, सर्वाङ्ग, हृष्ट पुष्ट ( अनुवीक्षस्व ) सुखी देख उनको कटे मुंडे वृक्ष लतादि के समान हीन, क्षीण, दुखी, पीड़ित मत होने दे । ( त्वा अनु ) तेरे अनुकूल ही ( दिव्या वृष्टिः ) आकाश से होने वाली वृष्टि और सुखदायी पदार्थों की वृष्टि भी ( सचताम् ) प्राप्त हो || शत० ७ । ५।१।८॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कूर्मः प्रजापतिर्देवता । आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कर्म व्यापृति

    पदार्थ

    १. (अपाम्) कर्मों की (गम्भन्) = [गम्भीरे] गम्भीरता में (सीद) = तू स्थित हो, अर्थात् सदा गम्भीरता से कर्मों में व्यापृत रह । गम्भीरता का अभिप्राय प्रसन्नता का अभाव नहीं है। इसका तात्पर्य है तेरे जीवन में उथलापन व विलास न आ जाए। २. गम्भीरता से कर्मों में लगे रहने पर (सूर्य:) = सूर्य (त्वा) = तुझे (मा अभिताप्सीत्) = समाप्त करनेवाला न हो। वस्तुतः क्रियाशून्य- आराम से लेटनेवाले को ही सर्दी-गर्मी लगा करती है। कार्यव्यापृत मनुष्य इनसे इतना व्याकुल नहीं होता । ३. (वैश्वानरः अग्निः) = देह में स्थित जाठराग्नि भी तुझे (मा) = सन्तप्त न करे। कर्म में लगे हुए व्यक्ति का अमाशय भी स्वस्थ रहता है। पाचनशक्ति की कमी आलसियों को ही सताती है। ४. कार्यव्यापृतता से पूर्ण स्वस्थ बनकर तू (अच्छिन्नपत्रा:) = [अच्छिनानि पत्राणि अक्षयं वा यासाम्] अखण्डित अवयवोंवाली (प्रजाः) = सन्तानों को अनुवीक्षस्व - निरन्तर अपने पीछे आता हुआ देख, अर्थात् यह कर्मव्यापृति माता-पिता को पूर्ण स्वस्थ बनाकर अति सुन्दर सर्वांग सन्तानों को प्राप्त कराती है। ५. (अनु) = पीछे, अर्थात् अन्त में (त्वा) = तुझे (दिव्या वृष्टिः) = धर्ममेघ समाधि में प्राप्त होनेवाली आनन्द की वृष्टि (सचताम्) = सेवन करे। इस कार्यव्यापृति से तू चित्त की एकाग्रता के द्वारा चित्तवृत्तिनिरोधरूपी योग को प्राप्त होनेवाला हो और यह कर्म - कुशलतारूपी योग का अभ्यास तुझे अद्भुत आनन्द देनेवाला हो।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रतिक्षण प्रसन्नता से स्वधर्म में लगे रहने से, आलस्य को त्यागकर मूर्त्तिमान् कर्म बन जाने से मनुष्य १. सर्दी-गर्मी को सहन कर पाता है। २. उसकी पाचनशक्ति ठीक बनी रहती है। ३. उसकी सन्तानें स्वस्थ, सर्वाङ्ग होती हैं । ४. उसे एक अद्भुत आनन्द प्राप्त होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी वसंत व ग्रीष्म ऋतूंमध्ये जलाशयाजवळच्या थंड ठिकाणी जावे. त्यामुळे उष्णतेचा त्रास होणार नाही. ज्या यज्ञाने वृष्टी यथायोग्य होईल व प्रजा आनंदित होईल अशा गोष्टींचा स्वीकार करावा.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुढील मंत्रातदेखील तोच विषय (वसंत ऋतूचे लाभ) वर्णिला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (मनुष्यास उपदेश केला आहे) हे मनुष्य, तू वसंत ऋतूत (अपाम्‌) जलाचा जो आधार वा स्थान (गम्भन्‌) म्हणजे मेघ (अशा जलमय प्रदेशाचा वा मेघाच्या दित स्थानाचा आश्रय घे) (सीद) त्याठिकाणी जाऊन रहा. तिथे (सूर्य:) सूर्य (त्वा) तुला (मा) (अभिताप्सीत्‌) अति उष्णता वा दाह देणार नाही. (वैश्‍वानर:) सर्व मनुष्यांना प्रकाश देणारी (अग्नि:) आग अथवा विद्युत यांनी (त्वा) तुला (मा) (अभिताप्सीत्‌) साह वा ताप देऊ नये (तुला उन्हाचा, उन्हाळ्याचा त्रास होऊ नये) (अच्छिन्नपत्रा:) अभिन्न वा पूर्ण स्वस्थ अवयव असलेली तुझी (प्रजा:) मुलें-मुली (अनु त्या) तुला अनुकूल वा आज्ञाकारी राहील आणि (दिव्या) दिव्य उत्तम गुणांनी परिपूर्ण (वृष्टि:) वृष्टी (सचताम्‌) तुला निरंतर प्राप्त व्हावी. (अशी माझी (विद्वानाची) कामना आहे) आणि तू (अनुवीक्षस्व) असे होण्यासाठी यत्न कर (वसंत ऋतूतील जल, अग्नी, वृष्टी तुला कशी अनुकूल होईल, त्यांचे लाभ तुला कसे मिळतील, याविषयी विचार कर) ॥30॥

    भावार्थ

    भावार्थ - लोकांनी वसंत आणि ग्रीष्म ऋतूच्या मधल्या काळात जलाशय जवळ असलेल्या थंड हवेच्या ठिकाणी जाऊन राहिलेली ज्यायोगे त्यांना उन्हाळ्याचा त्रास होऊ नये. तसेच या ऋतूंत असा यज्ञ करावा की ज्यायोगे यथोचित प्रमाणाला वृष्टी होईल आणि सर्व प्रजा आनंदित राहील. ॥30॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O man, in spring, seat thyself in the deepness of waters, lest sun, lest heat burning in all men, should afflict thee. Let well-built subjects be under thy control. Let highly useful rain pour. Think deeply and favourably over these points.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Be in the centre of the waters deep as in the clouds so that the heat of the sun may not injure you nor the earthly heat, Vaishwanara, hurt you. Look round so that the people, free and fully protected from heat, are favourable to you. May the showers of celestial rain bless you.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Be seated in the depth of the waters. May the sun not scorch you there, nor fire which is existent everywhere. May you always oversee your creatures uninjured and undistressed. May the celestial rain drench and please you. (1)

    Notes

    Арат gambhan, जलानां गम्भीरे प्रदेशे, in the depth of waters, Vaisvanarah, विश्वहितोऽग्नि: fiге which exists everywhere. Also,विश्वेभ्यो नरेभ्यो हित: हितकारी, beneficial for all people. Acchinnapatrah, अनवखण्डिता: अवयवा: यासां ता: those whose parts are not injured or mutilated.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনরায় সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্য ! তুমি বসন্ত ঋতুতে (অপাম্) জলের (গম্ভন্) আধারকর্তা মেঘে (সীদ) স্থির হও যাহাতে (সূর্য়্যঃ) সূর্য্য (ত্বা) তোমাকে (মা) না (অভিতাপ্সীদ্) তপ্ত করে, (বৈশ্বানরঃ) সকল মনুষ্যে প্রকাশমান (অগ্নিঃ) অগ্নি বিদ্যুৎ (ত্বা) তোমাকে (মা) না (অভিতাপ্সীৎ) তপ্ত করে, (অচ্ছিন্নপত্রাঃ) সুন্দর পূর্ণ অবয়বযুক্তা (প্রজাঃ) প্রজা (অনু ত্বা) তোমার অনুকূল এবং (দিব্যা) শুদ্ধ গুণযুক্ত (বৃষ্টিঃ) বর্ষা (সচতাম্) প্রাপ্ত হউক, সেইরূপ (অনুবীক্ষস্ব) আনুকূল্যের সহিত বিশেষ করিয়া বিচার কর ॥ ৩০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্য বসন্ত ও গ্রীষ্ম ঋতুর মধ্যে জলাশয়স্থ শীতল স্থানের সেবন করিবে যাহাতে গরমে কষ্ট না হয় এবং যজ্ঞে বর্ষাও ঠিক ঠিক হয় এবং প্রজা আনন্দিত হইয়া উহার সেবন করে ॥ ৩০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒পাং গম্ভ॑ন্ৎসীদ॒ মা ত্বা॒ সূর্য়্যো॒ऽভি তা॑প্সী॒ন্মাগ্নির্বৈ॑শ্বান॒রঃ ।
    অচ্ছি॑ন্নপত্রাঃ প্র॒জাऽ অ॑নু॒বীক্ষ॒স্বানু॑ ত্বা দি॒ব্যা বৃষ্টিঃ॑ সচতাম্ ॥ ৩০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অপামিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । আর্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top