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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 49
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - कृतिः स्वरः - निषादः
    312

    इ॒मꣳ सा॑ह॒स्रꣳ श॒तधा॑र॒मुत्सं॑ व्य॒च्यमा॑नꣳ सरि॒रस्य॒ मध्ये॑। घृ॒तं दुहा॑ना॒मदि॑तिं॒ जना॒याग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्। ग॒व॒यमा॑र॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो निषी॑द। ग॒व॒यं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम्। सा॒ह॒स्रम्। श॒तधा॑र॒मिति॑ श॒तऽधा॑रम्। उत्स॑म्। व्य॒च्यमा॑न॒मिति॑ विऽअ॒च्यमा॑नम्। स॒रि॒रस्य॑। मध्ये॑। घृ॒तम्। दुहा॑नाम्। अ॒दि॑तिम्। जना॑य। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन्। ग॒व॒यम्। आ॒र॒ण्यम्। अनु॑। ते॒। दि॒शा॒मि॒। तेन॑। चि॒न्वा॒नः। त॒न्वः᳖। नि। सी॒द॒। ग॒व॒यम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥४९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमँ साहस्रँ शतधारमुत्सँव्यच्यमानँ सरिरस्य मध्ये । घृतन्दुहानामदितिञ्जनायाग्ने मा हिँसीः परमे व्योमन् । गवयमारण्यमनु ते दिशामि तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद । गवयन्ते शुगृच्छतु यन्द्विष्मस्तन्ते शुगृच्छतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। साहस्रम्। शतधारमिति शतऽधारम्। उत्सम्। व्यच्यमानमिति विऽअच्यमानम्। सरिरस्य। मध्ये। घृतम्। दुहानाम्। अदितिम्। जनाय। अग्ने। मा। हिꣳसीः। परमे। व्योमन्निति विऽओमन्। गवयम्। आरण्यम्। अनु। ते। दिशामि। तेन। चिन्वानः। तन्वः। नि। सीद। गवयम्। ते। शुक्। ऋच्छतु। यम्। द्विष्मः। तम्। ते। शुक्। ऋच्छतु॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 49
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः के पशवो नो हिंसनीया हिंसनीयाश्चेत्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! त्वं जनायेमं साहस्रं शतधारं व्यच्यमानमुत्समिव वीर्य्यसेचकं वृषभं घृतं दुहानामदितिं धेनुं च मा हिंसीः, स ते तुभ्यमपरमारण्यं गवयमनुदिशामि तेन परमे व्योमन् सरिरस्य मध्ये चिन्वानः संस्तन्वो निषीद। तं गवयं ते शुगृच्छतु यन्ते शत्रुं वयं द्विष्मस्तमति शुगृच्छतु शोकः प्राप्नोतु॥४९॥

    पदार्थः

    (इमम्) (साहस्रम्) सहस्रस्यासंख्यातानां सुखानामयं साधकस्तम् (शतधारम्) शतमसंख्याता दुग्धधारा यस्मात् तम् (उत्सम्) कूपमिव पालकं गवादिकम् (व्यच्यमानम्) विविधप्रकारेण पालनीयम् (सरिरस्य) अन्तरिक्षस्य (मध्ये) (घृतम्) आज्यम् (दुहानाम्) प्रपूरयन्तीम् (अदितिम्) अखण्डनीयां गाम् (जनाय) मनुष्याद्याय प्राणिने (अग्ने) विवेकप्राप्तोपकारप्रकाशक राजन् (मा) (हिंसीः) (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) व्योम्नि व्याप्तेऽन्तरिक्षे वर्त्तमानाम् (गवयम्) गोसदृशम् (आरण्यम्) (अनु) (ते) (दिशामि) (तेन) (चिन्वानः) पुष्टः सन् (तन्वः) (नि) (सीद) (गवयम्) (ते) (शुक्) शोकः (ऋच्छतु) (यम्) (द्विष्मः) (तम्) (ते) (शुक्) (ऋच्छतु)। [अयं मन्त्रः शत॰७.५.२.३४ व्याख्यातः]॥४९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजमनुष्या येभ्यो वृषादिभ्यः कृष्यादिनि कर्माणि भवन्ति, याभ्यो गवादिभ्यो दुग्धादिपदार्था जायन्ते, यैः सर्वेषां रक्षणं भवति ते कदाचिन्नैव हिंसनीयाः। य एतान् हिंस्युस्तेभ्यो राजादिन्यायेशा अतिदण्डं दद्युः, ये च जाङ्गला गवयादयो प्रजाहानिं कुर्युस्ते हन्तव्याः॥४९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कौन पशु न मारने और कौन मारने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) दया को प्राप्त हुए परोपकारक राजन्! तू (जनाय) मनुष्यादि प्राणी के लिये (इमम्) इस (साहस्रम्) असंख्य सुखों का साधन (शतधारम्) असंख्य दूध की धाराओं के निमित्त (व्यच्यमानम्) अनेक प्रकार से पालन के योग्य (उत्सम्) कुए के समान रक्षा करनेहारे वीर्य्यसेचक बैल और (घृतम्) घी को (दुहानाम्) पूर्ण करती हुई (अदितिम्) नहीं मारने योग्य गौ को (मा हिंसीः) मत मार और (ते) तेरे राज्य में जिस (आरण्यम्) वन में रहने वाले (गवयम्) गौ के समान नीलगाय से खेती की हानि होती हो तो उस को (अनुदिशामि) उपदेश करता हूँ, (तेन) उसके मारने से सुरक्षित अन्न से (परमे) उत्कृष्ट (व्योमन्) सर्वत्र व्यापक परमात्मा और (सरिरस्य) विस्तृत व्यापक आकाश के (मध्ये) मध्य में (चिन्वानः) वृद्धि को प्राप्त हुआ तू (तन्वः) शरीर मध्य में (निषीद) निवास कर (ते) तेरा (शुक्) शोक (तम्) उस (गवयम्) रोझ को (ऋच्छतु) प्राप्त होवे और (यम्) जिस (ते) तेरे शत्रु का (द्विष्मः) हम लोग द्वेष करें, उस को भी (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे॥४९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजपुरुषो! तुम लोगों को चाहिये कि जिन बैल आदि पशुओं के प्रभाव से खेती आदि काम; जिन गौ आदि से दूध, घी आदि उत्तम पदार्थ होते हैं कि जिन के दूध आदि से सब प्रजा की रक्षा होती है, उनको कभी मत मारो और जो जन इन उपकारक पशुओं को मारें, उनको राजादि न्यायाधीश अत्यन्त दण्ड देवें और जो जङ्गल में रहने वाले नीलगाय आदि प्रजा की हानि करें, वे मारने योग्य हैं॥४९॥

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    विषय

    पशुगण की रक्षा, मनुष्य, अश्व आदि एक शक, गौ आदि दुधार पशु, भेड, बकरी, इनकी रक्षा और हिंसकों के नाश का आदेश ।

    भावार्थ

    ( सरिरस्य मध्ये ) आकाश, अन्तरिक्ष के बीच में (व्यच्य- मानं) विविध प्रकार से फैलने वाले ( शतधारम् ) सैकड़ों धार बरसाने वाले ( उत्स ) आश्रय, सोमरूप मेघ के समान ( सरिरस्य मध्ये व्यच्य- मानम् ) लोक में विद्यमान सैकड़ों को धारक पोषक और ( साहस्रम् ) हज़ारों सुखद पदार्थों के उत्पादक ( इमम् ) इस बैल को और ( जनाय ) मनुष्यों के हित के लिये (घृतम्) घी, दूध, अन्न आदि पुष्टिकारक पदार्थ ( दुहानाम् ) प्रदान करने वाली ( अदितिम् ) अहिंसनीय, पृथिवी के समान गौ को भी हे (अग्ने) राजन् ! ( परमे व्योमन् ) अपने सर्वोकृष्ट रक्षा स्थान में या अपने रक्षण कार्य में तत्पर होकर ( मा हिंसी: ) मत मार । (ते) तुझे मैं ( गवयम् आरण्यम् ) जंगली पशु गवय का ( अनु दिशामि ) उपदेश करता हूं | ( तेन ) उससे ( चिन्वानः ) अपनी ऐश्वर्य की वृद्धि करता हुआ ( तन्वः निषद ) अपने शरीर को स्थिर कर । ( ते शुक् गवयम् ऋच्छतु ) तेरा शोक संताप या क्रोध 'गवय' नाम के पशु को प्राप्त हो। और ( यं द्विष्मः तं ते शुक् ऋच्छतु ) जिस शत्रु से हम द्वेष करते हैं तेरा संताप और पीड़ाजनक को उसको प्राप्त हो ॥ शत० ७।५ । २। ३४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । कृतिः । निषादः ॥

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    विषय

    गौ-गवय

    पदार्थ

    १. (इमम्) = इस साहस्त्रम् [सहस्रोपकारक्षमम्-म०] हज़ारों का उपकार करने में समर्थ (शतधारम्) = शतसंख्याक क्षीर धाराओं से युक्त (उत्सम्) = दूध के कूएँ के समान अतएव (सरिरस्य) = [इमे वै लोकाः सरिरम्-श० ७।५।२।३४] इस लोक में (व्यच्यमानम्) = विविध रूप से उपजीव्यमान (घृतं दुहानाम्) = दूध के द्वारा घृत का प्रपूरण करती हुई जनाय मनुष्यों के लिए (अदितिम्) = अदीना देवमाता के तुल्य अथवा [दो अवखण्डने ] स्वास्थ्य को न खण्डित होने देनेवाली इस गौ को (मा हिंसी:) = मत हिंसित कर। २. यह गौ तो तुझे (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट आकाश में प्राप्त करानेवाली है। इसके दूध से तेरा स्वास्थ्य उत्तम होगा, मन निर्मल होगा, बुद्धि तीव्र बनेगी। इस प्रकार तेरी स्थिति कितनी ऊँची हो जाएगी ! ३. गौ का ही नहीं, मैं तो (ते) = तुझे (आरण्यं गवयम्) = इस जङ्गली गवय पशु को (अनुदिशामि) = देता हूँ। (तेन) = उससे (तन्वः) = अपने शरीर की शक्तियों को (चिन्वानः) = बढ़ाता हुआ (निषीद) = निषण्ण हो । इस गवय के शृंग की भस्म तो तुझे कैन्सर से भी बचानेवाली होगी। ४. हाँ, (शुक्) = तेरा क्रोध (गवयम्) = हानिकर नील गाय को (ऋच्छतु) = प्राप्त हो, परन्तु उसी नील गाय को (ते शुक् ऋच्छतु) = तेरा क्रोध प्राप्त हो (यम्) = जिसे ध्वंसक होने से (द्विष्मः) = हम अवाञ्छनीय समझते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- गौ मनुष्य के लिए अत्यन्त उपकारी पशु है, इसे मारना नहीं, गवय से भी प्रेम करना है। हाँ, यदि वह ध्वंसक हो जाएँ तब उसे समाप्त करना ही है। यह न भूलना कि यह गौ तेरे लिए 'अदिति' है - तेरा किसी भी तरह खण्डन न होने देनेवाली है, अतः तू भी इसका खण्डन न करना, इसे 'अघ्न्या' समझना ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजपुरुषांनो ! ज्या बैल इत्यादी पशूंपासून शेतीची कामे व गाईपासून दूध, तूप इत्यादी उत्तम पदार्थ मिळतात. ज्यांच्या दुधाने प्रजेचे रक्षण होते, त्यांना कधी मारू नका. जे लोक या उपकारक पशूंना मारतात त्यांना राजा इत्यादी न्यायाधीशांनी प्रचंड शिक्षा करावी व जंगलात राहणाऱ्या नीलगाय वगैरे प्राणी प्रजेची हानी करत असतील तर त्यांना मारावे.

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    विषय

    कोणते पशू वध्य आहेत आणि कोणते अवध्य आहेत, पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) दयाळू परोपकारी राजा, आपण (जमाय) मनुष्य आदी प्राण्यांच्या कल्याणाकरिता (इमम्‌) या (साहस्रम्‌) अगणित सुखांचे कारण असलेल्या (शतधारम्‌) अपरिमित दुग्धधारा देणाऱ्या अशा (व्यचमानम्‌) सर्वथा पालनीय (गायीच्या वध करूं नकोस) तसेच (उत्सम्‌) जलधारेच्या स्रोत अथवा विहीरीप्रमाणे (गायीसाठी) वीर्यसेचक बैलाचा ही वध करू नकोस). ही गौ (घृतम्‌) घृत (दुहानाम्‌) देणारी आणि (आदितिम्‌) आदिती म्हणजे अहिंसयीय वा अवध्य आहे हिला तू (मा हिंसी:) मारू नकोस. जर (ते) तुझ्या राज्यात (आरण्यम्‌) वनात राहणारे (गवयम्‌) गौ सारखी दिसणारी नीलगाय शेती उध्वस्त करीत असेल, तर मी (विद्वान प्रजाजन) तुला (अनुदिशामि) उपदेश करीत आहे की (तेन) तिच्या (नीलगायेच्या) वघामुळे (परमे) (व्योमन्‌) या ईश्‍वरनिर्मित उत्कृष्ट जगात (काही दोष नाही) (परमे) (न्योमन्‌) सर्वश्रेष्ठ व सर्व व्यापी परमात्म्याच्या या जगात (सरिसस्थ) आणि व्यापक आकाश (मध्ये) मधे तू (चिन्वान:) उन्नती करीत जा. (तन्व:) आपल्या स्वस्थ शरिरासह (निषीव) सुखी रहा. (ते) तुझा (शुक्‌) शोक (तम्‌) त्या (गवयम्‌) रोझला (नर नीलगाय, जो शेती उध्वस्त करतो) त्याला (ऋच्छतु) नष्ट करो-आणि (यम्‌) ज्या (ते) तुझ्या शत्रूचा आम्ही (विद्वज्जन) (द्विष्म) द्वेष करतो, त्या शत्रूलादेखील तुझा (शुक्‌) शोक (ऋच्छतु) (कोणताही शोक वा दु:ख तुला न होता तुझ्या त्या शत्रूला होवो, अशी आमची कामना आहे) ॥49॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे राजपुरुष हो, तुमच्यासाठी हे आवश्‍यक आहे की ज्या बैल आदी पशूमुळे शेतीची कामें होतात आणि ज्या गौ आदी पशूंपासून दूध, तूप आदी उत्तम पदार्थ प्राप्त होतात (ज्या दूध आदी पदार्थांचे सर्व लोकांचे रक्षण वा जीवन प्राप्त होते, त्या पशूंची हत्या कदापि करू नये. जे लोक या उपकारक पशूंची हत्या करतील, त्यांना राजा आणि न्यायाधीश यांनी कठोर दंड दिला पाहिजे. या व्यतिरिक्त जे वनात राहणारे प्राणी नीलगाय आदी आहेत आणि प्रजेच्या बागेची पीक आदीची हानी करीत असतील, ते मात्र वध्य समजावेत. ॥49॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O sagacious King, in this world, dont harm this bull, the giver of thousands of comforts, the source of immense milk, and worthy of protection. Harm not in Gods creation, the cow, the giver of milk for mankind, and innocent in nature. I point out to thee the forest cow. With her destruction add to thy prosperity and physical strength in the midst of vast space and under Gods guidance. Let the wild forest cow be put to grief by thee. Let thy foe, whom we dislike, be put to grief.

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    Meaning

    Agni, enlightened ruler, in the world even in the best of places, do not kill the cow and the bull, infinitely useful, and spring of a hundred streams and showers of milk and ghee for the people. It is holy and worthy of protection and development. I advise you, turn your attention to the wild cow and the bull and other animals. Growing and developing the economy with animal and forest wealth, feel settled with yourself and your land. Let your attention be directed to the wild cow and the forest wealth. Let your concern take on those who hurt us.

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    Translation

    O sacrificial fire, may you not injure this animal (the cow), seated in the highest place; a spring spouting hundreds and thousands of streams (of milk), reared by men all over the world, and yielding butter for men continuously. I offer to you the wild gavaya (the precursor of cow); consuming him and flourishing thereon may you be seated here. May your burning heat go to the gavaya; may your burning heat go to him whom we hate. (1)

    Notes

    No word for cow is there in this mantra, yet it refers to cow. Some adjectives are in masculine gender, while some in feminine. Both cow and bull can be included. Sahasram, सहस्रमूल्यर्हं, worth thousands of rupees. Or, serving a thousand purposes. Satadharam utsam, a spring spouting hundreds of streams. Sarirasya madhye, एषु लोकेषु, in these worlds; in this world. इमे वै लोका: सरिरम्, these worlds verily are sariram (S atapatha, VII. 5. 2. 34). Janaya, सर्वलोकाय, for all the people. Aditim, अखण्डिताम्, continuous; never-exhausting. Gavaya, blue bull (Bos Gavaeus).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যৈঃ কে পশবো নো হিংসনীয়া হিংসনীয়াশ্চেত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে কোন্ পশু না মারা এবং কোন্ পশু মারা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) দয়াপ্রাপ্ত পরোপকারক রাজন্ ! তুমি (জনায়) মনুষ্যাদি প্রাণীর জন্য (ইমম্) এই (সাহস্রম্) অসংখ্য সুখের সাধন (শতধারম্) অসংখ্য দুগ্ধধারার নিমিত্ত (ব্যচ্যমানম্) বহু প্রকার পালনীয় (উৎসম্) কূপের সমান রক্ষাকারী বীর্য্যসেচক বৃষ এবং (ঘৃতম্) ঘৃতকে (দুহানাম্) পূর্ণ কারিণী (অদিতিম্) না মারিবার যোগ্য গাভিকে (মাহিংসীঃ) মারিও না এবং (তে) তোমার রাজ্যে যে (আরণ্যম্) অরণ্যবাসী (গবয়ম্) গাভির সমান নীলগাই দ্বারা কৃষি ক্ষতিগ্রস্ত হয় তাহা হইলে তাহাকে (অনুদিশামি) উপদেশ করিতেছি (তেন) তাহাকে মারিলে সুরক্ষিত অন্ন দ্বারা (পরমে) উৎকৃষ্ট (ব্যোমম্) সর্বত্র ব্যাপক পরমাত্মা এবং (সরিরস্য) বিস্তৃত ব্যাপক আকাশের (মধ্যে) মধ্যে (চিন্বানঃ) বর্দ্ধমান তুমি (তন্বঃ) শরীরের মধ্যে (নিষীদ) নিবাস করিয়া (তে) তোমার (শুক্) শোক (তম্) সেই (গবয়ম্) গোসদৃশ পশু (ঋচ্ছতু) প্রাপ্ত হউক এবং (য়ম্) যে (তে) তোমার শত্রুকে (দ্বিষ্মঃ) আমরা দ্বেষ করি তাহাকেও (শুক) শোক (ঋচ্ছতু) প্রাপ্ত হউক ॥ ৪ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে রাজপুরুষগণ ! তোমাদিগের উচিত যে, যেসব বৃষাদি পশুদিগের প্রভাবে কৃষি আদি কার্য্য, যে সব গাভি আদি হইতে দুগ্ধ, ঘৃতাদি উত্তম পদার্থ হয়, যাহার দুগ্ধাদি হইতে সকল প্রজার রক্ষা হয়, তাহাদিগকে কখনও মারিও না এবং যাহারা সেই উপকারী পশুদিগকে মারিবে তাহাদিগকে রাজাদি ন্যায়াধীশ অত্যন্ত দন্ড দিবে এবং যে বন্য নীলগাই ইত্যাদি প্রজার ক্ষতি করে, তাহারা মারিবার যোগ্য ॥ ৪ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ই॒মꣳ সা॑হ॒স্রꣳ শ॒তধা॑র॒মুৎসং॑ ব্য॒চ্যমা॑নꣳ সরি॒রস্য॒ মধ্যে॑ ।
    ঘৃ॒তং দুহা॑না॒মদি॑তিং॒ জনা॒য়াগ্নে॒ মা হি॑ꣳসীঃ পর॒মে ব্যো॑মন্ ।
    গ॒ব॒য়মা॑র॒ণ্যমনু॑ তে দিশামি॒ তেন॑ চিন্বা॒নস্ত॒ন্বো᳕ নি ষী॑দ ।
    গ॒ব॒য়ং তে॒ শুগৃ॑চ্ছতু॒ য়ং দ্বি॒ষ্মস্তং তে॒ শুগৃ॑চ্ছতু ॥ ৪ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইমꣳ সাহস্রমিত্যস্য বিরূপ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । কৃতিশ্ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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