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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 25
    ऋषिः - इन्द्राग्नी ऋषी देवता - ऋतवो देवताः छन्दः - भुरिगतिजगती, भुरिग्ब्राही बृहती स्वरः - निषादः, मध्यमः
    118

    मधु॑श्च॒ माध॑वश्च॒ वास॑न्तिकावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तः श्ले॒षोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्॑पन्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽ अ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। वास॑न्तिकावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मधुः॑। च॒। माध॑वः। च॒। वास॑न्तिकौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। इ॒मेऽइती॒मे। वास॑न्तिकौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गिर॒स्वत्। ध्रु॒वेऽइति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतूऽअग्नेरन्तःश्लेषोसि कल्पेतान्द्यावापृथिवी कल्पन्तामापऽओषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । येऽअग्नयः समनसोन्तरा द्यावापृथिवीऽइमे वासन्तिकावृतूऽअभिकल्पमानाऽइन्द्रमिव देवा अभिसँविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मधुः। च। माधवः। च। वासन्तिकौ। ऋतूऽइत्यृतू। अग्नेः। अन्तःश्लेष इत्यन्तःऽश्लेषः। असि। कल्पेताम्। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। कल्पन्ताम्। आपः। ओषधयः। कल्पन्ताम्। अग्नयः। पृथक्। मम। ज्यैष्ठ्याय। सव्रता इति सऽव्रताः। ये। अग्नयः। समनस इति सऽमनसः। अन्तरा। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। इमेऽइतीमे। वासन्तिकौ। ऋतूऽइत्यृतू। अभिकल्पमाना इत्यभिऽकल्पमानाः। इन्द्रमिवेतीन्द्रम्ऽइव। देवाः। अभिसंविशन्त्वित्यभिऽसंविशन्तु। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवेऽइति ध्रुवे। सीदतम्॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वसन्तर्त्तुवर्णनमाह॥

    अन्वयः

    यथा मम ज्यैष्ठ्याय यावग्नेरुत्पद्यमानौ ययोरन्तःश्लेषोऽसि भवति, तौ मधुश्च माधवश्च वासन्तिकौ सुखायर्तू कल्पेताम्, याभ्यां द्यावापृथिवी चापः कल्पन्ताम्, पृथगोषधयः कल्पन्तामग्नयश्च। हे सव्रताः समनसो देवाः! वासन्तिकावृतू येऽत्रान्तराग्नयश्च सन्ति, तांश्चाभिकल्पमानाः सन्तो भवन्त इन्द्रमिवाभिसंविशन्तु। यथेमे द्यावापृथिवी तया देवतया सहाङ्गिरस्वद् ध्रुवे वर्त्तेते, तया युवां स्त्रीपुरुषौ निश्चलौ सीदतम्॥२५॥

    पदार्थः

    (मधुः) मधुरसुगन्धयुक्तश्चैत्रः (च) (माधवः) मधुरादिफलनिमित्तो वैशाखः (च) (वासन्तिकौ) वसन्ते भवौ (ऋतू) सर्वान् प्रापकौ (अग्नेः) उष्णत्वनिमित्तस्य (अन्तःश्लेषः) आभ्यन्तरे सम्बन्धः (असि) भवति। अत्र व्यत्ययः। (कल्पेताम्) समर्थयतः (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (कल्पन्ताम्) समर्थयन्तु (आपः) जलानि (ओषधयः) यवादयः सोमादयश्च (कल्पन्ताम्) (अग्नयः) पावकाः (पृथक्) (मम) (ज्यैष्ठ्याय) ज्येष्ठे मासि भवाय व्यवहाराय मम वृद्धत्वाय वा (सव्रताः) व्रतैः सत्यैर्व्यवहारैः सह वर्त्तमानाः (ये) (अग्नयः) पावक इव कालविदो विद्वांसः (समनसः) समानविज्ञानाः (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) प्रकाशान्तरिक्षे (इमे) प्रत्यक्षे (वासन्तिकौ) (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) आभिमुख्येन समर्थयन्तः (इन्द्रमिव) यथा परमैश्वर्य्यम् (देवाः) (अभिसंविशन्तु) (तया) (देवतया) परमपूज्यया परमेश्वराख्यया (अङ्गिरस्वत्) प्राणवत् (ध्रुवे) निश्चिते दृढे (सीदतम्) भवेताम्। अत्र पुरुषव्यत्ययः। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.२.२९ व्याख्यातः]॥२५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! यूयं यस्मिन् वसन्तर्तौ श्लेष्मोत्पद्यते, यस्मिन् तीव्रप्रकाशः पृथिवी शुष्का आपो मध्यस्था ओषधयो नूतनपुष्पपत्रान्विता अग्निज्वाला इव भवन्ति, तं युक्त्या सेवित्वा पुरुषार्थेन सर्वाणि सुखान्याप्नुत। यथा विद्वांसः परमप्रयत्नेनान्वृतुसुखायैश्वर्य्यमुन्नयन्ति, तथैव प्रयतध्वम्॥२५॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में वसन्त ऋतु का वर्णन किया है॥

    पदार्थ

    जैसे (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) ज्येष्ठ महीने में हुए व्यवहार वा मेरी श्रेष्ठता के लिये जो (अग्नेः) गरमी के निमित्त अग्नि से उत्पन्न होने वाले जिन के (अन्तःश्लेषः) भीतर बहुत प्रकार के वायु का सम्बन्ध (असि) होता है, वे (मधु) मधुर सुगन्धयुक्त चैत्र (च) और (माधवः) मधुर आदि गुण का निमित्त वैशाख (च) इन के सम्बन्धी पदार्थयुक्त (वासन्तिकौ) वसन्त महीनों में हुए (ऋतू) सब को सुखप्राप्ति के साधन ऋतु सुख के लिये (कल्पेताम्) समर्थ होवें, जिन चैत्र और वैशाख महीनों के आश्रय से (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि (आपः) जल भी भोग में (कल्पन्ताम्) आनन्ददायक हों, (पृथक्) भिन्न-भिन्न (ओषधयः) जौ आदि वा सोमलता आदि ओषधि और (अग्नयः) बिजुली आदि अग्नि भी (कल्पन्ताम्) कार्य्यसाधक हों। हे (सव्रताः) निरन्तर वर्त्तमान सत्यभाषणादि व्रतों से युक्त (समनसः) समान विज्ञान वाले (देवाः) विद्वान् (ये) जो लोग (वासन्तिकौ) (ऋतू) वसन्त ऋतु में हुए चैत्र वैशाख और (ये) जो (अन्तरा) बीच में हुए (अग्नयः) अग्नि हैं, उनको (अभिकल्पनाः) सन्मुख होकर कार्य में युक्त करते हुए आप लोग (इन्द्रमिव) जैसे उत्तम ऐश्वर्य्य प्राप्त हों, वैसे (अभिसंविशन्तु) सब ओर से प्रवेश करो, जैसे (इमे) ये (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (तया) उस (देवतया) परमपूज्य परमेश्वर रूप देवता के सामर्थ्य के साथ (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान (ध्रुवे) दृढ़ता से वर्त्तते हैं, वैसे तुम दोनों स्त्री-पुरुष सदा संयुक्त (सीदतम्) स्थिर रहो॥२५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! तुम को चाहिये कि जिस वसन्त ऋतु में फल-फूल उत्पन्न होता है और जिसमें तीव्र प्रकाश, रूखी पृथिवी, जल मध्यम, ओषधियां, फल और फूलों से युक्त और अग्नि की ज्वाला के समान होती हैं, उसको युक्तिपूर्वक सेवन कर पुरुषार्थ से सब सुखों को प्राप्त होओ, जैसे विद्वान् लोग अत्यन्त प्रयत्न के साथ सब ऋतुओं में सुख के लिये सम्पत्ति को बढ़ाते हैं, वैसा तुम भी प्रयत्न करो॥२५॥

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    विषय

    वसन्त से राजा की तुलना।

    भावार्थ

    ( मधुः च) मधु और ( माधवः च ) माधव अर्थात् चैत्र और वैशाख के दोनों (वासन्तिकौ ऋतू ) बसन्त के दो ऋतु अर्थात् मास रूप से दो स्वरूप हैं। ये दोनों जिस प्रकार संवत्सर स्वरूप अग्नि के बीच में (श्लेषः ) जोड़ने वाले हैं, उसी प्रकार मधु के समान मधुर गन्ध और पुष्प युक्र और माधव या वैशाख के समान फलोत्पादक दोनों प्रकार के पुरुष मानों (अग्ने : ) राजा रूप प्रजापति के दोनों वसन्त ऋतु के दो मासों के समान उसके ( अन्तः ) भीतर ( श्लेषः असि ) स्नेहशील होते हैं और दो राजाओं के बीच सन्धि कराने में कुशल होते हैं। इनके द्वारा ही ( द्यावापृथिवी ) सूर्य और भूमि के समान नर और नारी, राजा और प्रजा ( कल्पेताम् ) कार्य करने में समर्थ होते हैं । ( आपः ओषधयः कल्पन्ताम् ) और जिस प्रकार वसन्त के दोनों मासों के द्वारा सम्पूर्ण ओषधियां वीर्यवान् होती हैं उसी प्रकार वीर्यवती बलवती वीर प्रजायें भी मधु माधव के समान पुष्प फलजनक हों और जाएं भी कार्य-कारण को देख परस्पर सन्धि के कराने वाले सदस्य जनों के द्वारा समर्थ होती हैं। और जैसे वसन्त के दोनों मास ज्येष्ठ मास में होने वाले ओषधि आदि के कारण होते हैं उसी प्रकार सभी ( अग्नयः) अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् लोग ( मम ) मेरे मुझ राजा के सर्वश्रेष्ठ पदाधिकार की प्राप्ति और रक्षा के लिये ( सव्रताः ) समान कार्य में दीक्षित होकर ( पृथक् ) अलग २ भी ( कल्पन्ताम् ) अपना २ कार्य करने में समर्थ हो । और (ये) जो ( द्यावापृथिवी ) द्यौ और भूमि दोनों के बीच या राजा और प्रजा के बीच में ( समनसः ) एक समान चित्त वाले, प्रेमी (अन्य ) विद्वान् पुरुष हैं वे सब भी ( वासन्तिको ऋतू ) वसन्त काल के दो मास चैत्र वैशाख के समान मधुर गुणों से युक्त होकर राजा के लिये सुखकारी और ( अभिकल्प- मानाः ) सामर्थ्यवान् होकर (देवा: इन्द्रम् इव) प्राणगण जिस प्रकार आत्मा के आश्रय पर रहते हैं उसी प्रकार वे सब अग्नि स्वभाव तेजस्वी विद्वान् सदस्य और माण्डलिक राजगण भी ( इन्द्रम् अग्निम् सं विशन्तु) बड़े सम्राट् के चारों ओर विराजे । हे (ध्रुवे) द्यौ और पृथिवी ! हे राज प्रजागरण ! (तया देवतया ) उस महान् देव, राजा से और उस राजगण से तू ( अङ्गिरेश्वत् ) तेजस्वी और पूर्णाङ्ग होकर तुम दोनों ( सीदतम् ) स्थिर होकर विराजो ॥ शत० ७ । ४ । २ । २९ ॥

    टिप्पणी

    १ मधुश्च २ ये ऽग्नयः समनसोऽन्तरा।'वासन्तिका ऋतू०' इति काण्व ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋतवो देवता (१) भुरिगति जगतीं । निषादः । (२) भुरिग् ब्राह्मी बृहती । मध्यमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ज्या वसंत ऋतूमध्ये फुले, फळे उत्पन्न होतात व ज्यामध्ये तीव्र प्रकाश, रुक्ष पृथ्वी, मध्यम जल आणि फळा-फुलांनी बहरलेले वृक्ष असतात, तसेच अग्रिज्वालाही भिन्न भिन्न स्वरूपात आढळतात त्यांचे युक्तिपूर्वक सेवन करून पुरुषार्थाने सर्व सुख प्राप्त करा. ज्याप्रमाणे विद्वान लोक अत्यंत प्रयत्नाने सर्व ऋतूंमध्ये सुख प्राप्त व्हावे यासाठी संपत्ती वाढवितात तसा तुम्हीही प्रयत्न करा.

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    विषय

    पुढील मंत्रात वसंत ऋतूचे वर्णन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (गृहाश्रमी मनुष्य म्हणत आहे) (मम) माझे वा मी (ज्यैष्ठाय) ज्येष्ठ साक्षात केलेले आचरण आहे. (तसेच या महिन्यात माझ्या श्रेष्ठत्वासाठी (अमे:) उष्णतेचे कारण अग्नि त्याद्वारे (अन:श्‍लेष:) उत्पन्न होणाऱ्या विविध प्रकारच्या वायूंचा माझ्याशी संबंध (असि) येतो (ज्येष्ठ महिन्यात करण्यास आवश्‍यक कामें आणि निसर्गातील उष्ण, अती उष्ण असे होणारे परिवर्तन आहेत, (त्यांचे मी सुख वा लाभ अनुभवतो) (ज्येष्ठ मासाच्या आधी येणारा) (मधु:) मधुर सुगंधिमय चैत्र महिना (च) आणि (माधव:) माधुर्य आदी गुणांना उत्पन्न करणारा वैशाख महिना (च) आणि या महिन्यांशी संबंधित (निसर्गातील सर्व पदार्थ) (वासंतिकौ) तसेच या वसंत ऋतूत उत्पन्न होणारी (ऋतू) सर्वांना सुखदायक सर्व साधनें सुखकारी (कलोताम्‌) व्हावीत (वसंत ऋतू, त्यात होणारे मधुर फळ, फुलें हे सर्व माझ्यासाठी आनंददायक व्हावेत, अशी माझी इच्छा आहे) या चैत्र आणि वैशाख महिन्यात (द्यावा पृथिवी सूर्य आणि भूमी तसेच (आप:) जनदेखील उपभोग गेण्यासाठी (कल्पन्ताम्‌) आनंददायक व्हावे. (पृथक्‌) भिन्न-भिन्नता विविध प्रकारच्या (ओषधय:) यव आणि सोम लला आदी औषधी तसेच (अग्नय:) विद्युत आदी अग्नी (वा वसंत ऋतूत माझ्यासाठी) (कल्पन्ताम्‌) कार्यसाधक होवो. हे (सव्रता:) सत्यभाषण, सत्याचरण आदी व्रतांचे पालन करणाऱ्या (समनस:) ज्ञानी व चिंतनशाल (देवा:) विद्वज्जन हो, (ये) जी माणसें (वासन्तिकौ) (ऋतू) वसंतऋतूच्या चैत्र-वैशाख मासांत आहेत, (त्या ऋतूचे सुख अनुभवीत आहेत) अथवा (ये) जे (अन्तरा) या ऋतूत होणारे (अग्नय:) अग्नीचे विविध प्रकार आहेत, त्या लोकांना (अभिकल्पमाना) आपण अग्नीचे विविध प्रकारांचा उपयोग करण्याचे ज्ञान शिकवा ज्यायोगे (इन्द्रमिव) त्या लोकांना ऐश्‍वर्य प्राप्ती होईल, अशा पद्धतीने आपण लोकांना (अभिसंविशन्तु) सर्वप्रकारे सहकार्य करा. ज्याप्रमाणे (इमे) हे (द्यावापृथिनी) सूर्य आणि पृथ्वी (तया) त्या (देवत्या) पूरमपूज्य परमेश्‍वराच्या सामर्थ्यामुळे (अ---स्वत्‌) सर्व प्राणीमात्राचे प्राणसमान आहेत आणि सर्वांच्या (ध्रुवे) कल्याणाकरिता सदा कार्यरत असतात, त्याप्रमाणे तुम्ही दोघे पति-पत्नीदेखील (या वसंत ऋतूत सर्वांच्या कल्याणासाठी (सीदतम्‌) झटत रहा ॥25॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्हांस उचित आहे की ज्या वसंत ऋतूत वृक्ष-जवादी फळ-पुष्पांनी बहरलेली असतात, आणि ज्यामध्ये प्रकाश तीव्र, पृथ्वी रुक्ष, जल मध्यम आणि औषधी वृक्ष-वनस्पती आदी फळ-फुलांनी समृद्ध असतात आणि अग्नीच्या ज्वाला (वा उष्णता) तीव्र असते, त्या ऋतूचे उचितप्रकारे सेवन करा आणि त्याद्वारे पुरुषार्थ करीत (ऋतूच्या आनंदाचा) उपभोग घ्या. ज्याप्रमाणे विद्वान वा शहाणी माणसे यथोचित यथाविधी प्रयत्न करून सर्व ऋतूंमध्ये आपली सुख-संपत्ती वाढवतात, त्याप्रमाणे, हे मनुष्यांनो, तुम्ही देखील तसे करा ॥25॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Let the Chetra and Baisakh months, parts of spring, born of heat, mutually inter-related, contribute to my prosperity. Let these months be the source of happiness to all. In those months let sun and earth, and water be pleasure-giving. Let medicinal herbs grow in them, and heat be useful to us. O learned persons, wedded to truth, keeping before ye in spring time, the fervent seekers after knowledge attain to prosperity. Just as the sun and earth, through the dispensation of God, steadfastly work together like breath, so should you wife and husband live constantly together.

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    Meaning

    Chaitra is a honey-sweet month. Vaishakha is a month of honey-sweets. These are the months of spring. Both these, born of agni, are closely connected to summer. May the earth and heaven be favourable to us for the gift of excellence, may the waters be favourable, may the herbs and trees be favourable, may all the orders of agni (heat and light each), committed to its own law and function, be favourable to us. May all the forms of vital fire in earth and heaven, integrated and mutually harmonious, supporting and energizing the two spring months like all the powers of nature serving and working for the omnipotent lord Indra, bless and vitalize us in all ways. Just as the earth and heaven abide firm and secure with the Supreme Lord of the universe, just as the spring months abide by the vital fire of earth and heaven, so should we all abide firm and secure by the lord of the universe, nature and spring, as breath abides by life, as Prakriti abides by Purusha, and as part abides by the whole.

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    Translation

    Madhu and madhava (саitга and vaisakha, i. e. March and April) are the two months of the Spring season. You are the internal cementing force of the fire. May the heaven and earth help, may the waters and the herbs help, may the fires also help individually with unity of action in establishing my superiority. (1) May all those fires, which exist between heaven and earth, oneminded, and helping in this performance, gather around these two months of the resplendent Lord. May both of you be seated firmly by that divinity shining bright. (2)

    Notes

    The sacrificer lays down the rtavyà i. e. seasonal bricks with this mantra. Madhu, honey. Also vedic name for caitra month (mid-March to mid-April). Madhava, full of honey; honey-like. Also, vaisakha month (mid-April to mid-May). Antah élesah, अंत: मध्ये व्यस्थित: श्लेश: संयोजक:, internal cementing force. Kalpantāin, स्वोचितमुपकारं सम्पादयताम्, may they do good to me that they should properly do; may they help. Savratah, समानं व्रतं कर्म येषां ते, with unity in their actions. Samanasah, समानमनस्का:, of one mind. Jyaisthyaya, ज्येष्ठत्वाय उत्कर्षाय, for my superiority; precendence. Aügirasvat, like blazing coals; shining bright.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ বসন্তর্ত্তুবর্ণনমাহ ॥
    এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে বসন্ত ঋতুর বর্ণনা করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যেমন (মম) আমার (জৈষ্ঠ্যায়) জৈষ্ঠ মাসে হওয়া ব্যবহার অথবা আমার শ্রেষ্ঠতার জন্য যে (অগ্নেঃ) উষ্ণতার নিমিত্ত অগ্নি হইতে উৎপন্ন যাহাদের (অন্তঃ শ্লেষঃ) ভিতর বহু প্রকারের বায়ুর সম্পর্ক (অসি) হয় সেইগুলি (মধুঃ) মধুরসুগন্ধযুক্ত চৈত্র (চ) এবং (মাধবঃ) মধুরাদি গুণের নিমিত্ত বৈশাখ (চ) ইহাদের সম্পর্কীয় পদার্থযুক্ত (বাসন্তিকৌ) বসন্ত মাসগুলিতে হওয়া (ঋতু) সকলকে সুখ প্রাপ্তির সাধন ঋতু সুখের জন্য (কল্পেতাম্) সমর্থ হউক । যে সব চৈত্র ও বৈশাখ মাসের আশ্রয়ে (দ্যাবাপৃথিবী) সূর্য্য, ভূমি (আপঃ) জলও ভোগে (কল্পন্তাম্) আনন্দায়ক হউক । (পৃথক্) ভিন্ন-ভিন্ন (ওষধয়ঃ) যবাদি বা সোমলতাদি ঔষধি এবং (অগ্নয়ঃ) বিদ্যুৎ আদি অগ্নিও (কল্পন্তাম্) কার্য্যসাধক হউক । হে (সব্রতাঃ) নিরন্তর বর্ত্তমান সত্যভাষণাদি ব্রতযুক্ত (সমনসঃ) বিজ্ঞানজ্ঞাতা (দেবাঃ) বিদ্বান্ (য়ে) যাহারা (বাসন্তিকৌ) (ঋতু) বসন্ত ঋতুতে হওয়া চৈত্র বৈশাখ এবং (য়ে) যে (অন্তরা) মধ্যে হওয়া (অগ্নয়ঃ) অগ্নি উহাদের (অভিকল্পমানাঃ) সম্মুখ হইয়া কার্য্যে যুক্ত করিয়া তোমরা (ইন্দ্রমিব) যেমন উত্তম ঐশ্বর্য্য প্রাপ্ত হও সেইরূপ (অভিসংশন্তু) সব দিক দিয়া প্রবেশ কর । যেমন (ইমে) এই সব (দ্যাবাপৃথিবী) প্রকাশ ও ভূমি (তয়া) সেই (দেবতয়া) পরমপূজ্য পরমেশ্বর রূপ দেবতার সামর্থ্য সহ (অঙ্গিরস্বৎ) প্রাণের সমান (ধ্রুবে) দৃঢ়তাপূর্বক ব্যবহার করে সেইরূপ তোমরা উভয় স্ত্রী পুরুষ সর্বদা সংযুক্ত (সীদতম্) স্থির থাক ॥ ২৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমাদিগের উচিত যে, যে বসন্ত ঋতুতে ফল ফুল উৎপন্ন হয় এবং যাহাতে তীব্র প্রকাশ, শুষ্ক পৃথিবী, জল মধ্যম, ওষধি ফল ও ফুল দ্বারা যুক্ত এবং অগ্নির জ্বালার সমান হয় উহাকে যুক্তিপূর্বক সেবন করিয়া পুরুষার্থ পূর্বক সকল সুখ প্রাপ্ত হও । যেমন বিদ্বান্গণ অত্যন্ত প্রচেষ্টা সহ সব ঋতুতে সুখের জন্য সম্পত্তিকে বৃদ্ধি করায় সেইরূপ তোমরাও প্রচেষ্টা কর ॥ ২৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মধু॑শ্চ॒ মাধ॑বশ্চ॒ বাস॑ন্তিকাবৃ॒তূऽ অ॒গ্নের॑ন্তঃশ্লে॒ষো᳖ऽসি॒ কল্পে॑তাং॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বী কল্প॑ন্তা॒মাপ॒ऽ ওষ॑ধয়ঃ॒ কল্প॑ন্তাম॒গ্নয়ঃ॒ পৃথ॒ঙ্ মম॒ জ্যৈষ্ঠ্যা॑য়॒ সব্র॑তাঃ । য়েऽ অ॒গ্নয়ঃ॒ সম॑নসোऽন্ত॒রা দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽ ই॒মে । বাস॑ন্তিকাবৃ॒তূऽ অ॑ভি॒কল্প॑মানা॒ऽ ইন্দ্র॑মিব দে॒বাऽ অ॑ভি॒সংবি॑শন্তু॒ তয়া॑ দে॒বত॑য়াঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বে সী॑দতম্ ॥ ২৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মধুশ্চেত্যস্যেন্দ্রাগ্নী ঋষী । ঋতবো দেবতাঃ । পূর্বস্য ভুরিগতিজগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥
    য়ে অগ্নয় ইত্যুত্তরস্য ভুরিগ্ব্রাক্ষী বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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