यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 58
ऋषिः - उशना ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - विराडाकृतिः
स्वरः - पञ्चमः
130
इ॒यमु॒परि॑ म॒तिस्तस्यै॒ वाङ्मा॒त्या हे॑म॒न्तो वा॒च्यः प॒ङ्क्तिर्है॑म॒न्ती प॒ङ्क्त्यै नि॒धन॑वन्नि॒धन॑वतऽ आग्रय॒णऽ आ॑ग्रय॒णात् त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशाभ्या॑ शाक्वररैव॒ते वि॒श्वक॑र्म॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्व॒या वाचं॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५८॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम्। उ॒परि॑। म॒तिः। तस्यै॑। वाक्। मा॒त्या॒। हे॒म॒न्तः। वा॒च्यः। प॒ङ्क्तिः। है॒म॒न्ती। प॒ङ्क्त्यै। नि॒धन॑व॒दिति॑ नि॒धन॑ऽवत्। नि॒धन॑वत॒ इति॑ नि॒धन॑ऽवतः। आ॒ग्र॒य॒णः। आ॒ग्र॒य॒णात्। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑। त्रिनवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाभ्या॑म्। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाभ्या॒मिति॑ त्रिनवत्रयस्त्रि॒ꣳशाभ्या॑म्। शा॒क्व॒र॒रै॒व॒ते इति॑ शाक्वरऽरैव॒ते। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। वाच॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाभ्यः॑ ॥५८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयमुपरि मतिस्तस्यै वाङ्मात्या हेमन्तो वाच्यः पङ्क्तिर्हैमन्ती पङ्क्त्यै निधनवन्निधनवतऽआग्रयणऽआग्रयणात्त्रिणवत्त्रयस्त्रिँशौ । त्रिणवत्रयस्त्रिँशाभ्याँ शाक्वररैवते विश्वकर्मऽऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया वाचङ्गृह्णामि प्रजाभ्यो लोकन्ताऽईन्द्रम् गलितमन्त्राः लोकम्पृण च्छिद्रम्पृणाथो सीद धु्रवा त्वम् । इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिरस्मिन्योनावसीषदन् ॥ ताऽअस्य सूददोहसँ सोमँ श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानाँविशस्त्रिष्वा रोचने दिवः । इन्द्रँविश्वाऽअवीवृधन्त्समुद्रव्यचसङ्गिरः रथीतमँ रथीनाँवाजानाँ सत्पतिम्पतिम्
स्वर रहित पद पाठ
इयम्। उपरि। मतिः। तस्यै। वाक्। मात्या। हेमन्तः। वाच्यः। पङ्क्तिः। हैमन्ती। पङ्क्त्यै। निधनवदिति निधनऽवत्। निधनवत इति निधनऽवतः। आग्रयणः। आग्रयणात्। त्रिणवत्रयस्त्रिꣳशौ। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाविति। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशौ। त्रिणवत्रयस्त्रिꣳशाभ्याम्। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाभ्यामिति त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाभ्याम्। शाक्वररैवते इति शाक्वरऽरैवते। विश्वकर्म्मेति विश्वऽकर्मा। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। वाचम्। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रजाभ्यः॥५८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ हेमन्ते कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे विदुषि पत्नि! य इयमुपरि मतिस्तस्यै मात्या वाग्वाच्यो हेमन्तो हैमन्ती पङ्क्तिः पङ्क्त्यै निधनवन्निधनवत आग्रयण आग्रयणात् त्रिणवयस्त्रिंशौ त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्यां शाक्वररैवते विदित्वा विश्वकर्मर्षिर्वर्तते, तथाहं प्रजापतिगृहीतया त्वया सहाऽहं प्रजाभ्यो वाचं गृह्णामि॥५८॥
पदार्थः
(इयम्) (उपरि) सर्वोपरि विराजमाना (मतिः) प्रज्ञा (तस्यै) तस्याः। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। (वाक्) वक्ति यया सा (मात्या) मतेर्भावः कर्म वा (हेमन्तः) हन्त्युष्णतां येन सः। अत्र हन्तेर्हि मुट् च॥ (उणा॰३।१२७) (वाच्यः) वाचो भावः कर्म वा (पङ्क्तिः) छन्दः (हैमन्ती) हेम्नो व्याख्यात्री (पङ्क्त्यै) पङ्क्त्याः (निधनवत्) निधनं प्रशस्तं मृत्युव्याख्यानं विद्यते यस्ंिमस्तत् साम (निधनवतः) (आग्रयणः) अङ्गति प्राप्नोति येन तस्यायम् (आग्रयणात्) (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) त्रिनवं च त्रयस्त्रिंशं च ते साम्नी (त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्याम्) (शाक्वररैवते) शक्तिधनप्रतिपादके (विश्वकर्मा) विश्वानि कर्माणि यस्य सः (ऋषिः) वेदार्थवेत्ता (प्रजापतिगृहीतया) (त्वया) (वाचम्) विद्यासुशिक्षान्वितां वाणीम् (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः)॥५८॥ अत्र लोकन्ता इन्द्रमिति द्वादशाध्यायस्थानां त्रयाणां मन्त्राणां प्रतीकानि सूत्रव्याख्यानं दृष्ट्वा केनचिद्धृतानि शतपथेऽव्याख्यातत्वादत्र न गृह्यन्ते॥५८॥
भावार्थः
पतिपत्नीभ्यां विदुषां वाचं श्रुत्वा प्रज्ञा वर्द्धनीया तया हेमन्तर्तुकृत्यं सामानि च विदित्वा महर्षिवद् वर्तित्वा विद्यासुशिक्षासंस्कृतां वाचं स्वीकृत्य प्रजाभ्योऽप्येताः सदोपदेष्टव्येति॥५८॥
हिन्दी (3)
विषय
अब हेमन्त ऋतु में किस प्रकार वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विदुषी स्त्री! जो (इयम्) यह (उपरि) सब से ऊपर विराजमान (मतिः) बुद्धि है, (तस्यै) उस (मात्या) बुद्धि का होना वा कर्म (वाक्) वाणी और (वाच्यः) उस का होना वा कर्म (हेमन्तः) गर्मी का नाशक हेमन्त ऋतु (हैमन्ती) हेमन्त ऋतु के व्याख्यान वाला (पङ्क्तिः) पंक्ति छन्द (पङ्क्त्यै) उस पङ्क्ति छन्द का (निधनवत्) मृत्यु का प्रशंसित व्याख्यान वाला सामवेद का भाग (निधनवतः) उससे (आग्रयणः) प्राप्ति का साधन ज्ञान का फल (आग्रयणात्) उससे (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) बारह और तेतीस सामवेद के स्तोत्र (त्रिणवत्रयस्ंित्रशाभ्याम्) उन स्तोत्रों से (शाक्वररैवते) शक्ति और धन के साधक पदार्थों को जान के (विश्वकर्मा) सब सुकर्मों के सेवने वाला (ऋषिः) वेदार्थ का वक्ता पुरुष वर्त्तता है, वैसे मैं (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति ने ग्रहण की (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (वाचम्) विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त वाणी को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥५८॥
भावार्थ
स्त्री पुरुषों को चाहिये कि विद्वानों की शिक्षारूप वाणी को सुन के अपनी बुद्धि बढ़ावें, उस बुद्धि से हेमन्त ऋतु में कर्त्तव्य कर्म और सामवेद के स्तोत्रों को जान महात्मा ऋषि लोगों के समान वर्त्ताव कर विद्या और अच्छी शिक्षा से शुद्ध की वाणी को स्वीकार करके अपने सन्तानों के लिये भी इन वाणियों का उपदेश सदैव किया करें॥५८॥
भावार्थ
( इयम् उपरि मतिः ) यह सबसे ऊपर विराजमान प्रज्ञा है जो विराड़ शरीर में चन्द्रमा स्वरूप है । ( तस्यै मात्या वाङ् ) उससे उत्पन्न होने वाली वाणी मति से उत्पन्न होने के कारण मात्या' वाक् है । ( वाच्य: हेमन्त ) हेमन्त जिस प्रकार अति शीतल है उसी प्रकार वाणी से हृदय की शान्ति उत्पन्न होती है। इससे मानो वाणी से हेमन्त उत्पन्न होता है । संवत्सर प्रजापति के रूप में शरत् काल के चन्द्र ज्योति के बाद तींव्र गर्जनाकारी वाणी रूप मेघ और उसके बाद हेमन्त उत्पन्न होता है | हेमन्त से पंक्ति उत्पन्न होती है। अर्थात् हेमन्त काल के बाद अन्न पकना प्रारम्भ होता है । संवत्सर में पञ्चम ऋतु हेमन्त से मानो यज्ञ में पंक्ति हृदयों को शमन करने से ही छन्द की उत्पत्ति हुई। राष्ट्र में प्रजा के शत्रु परिपाक की शक्ति प्राप्त होती है अथवा पञ्चाङ्ग सिद्धि प्राप्त होती है। ( पङ्क्त्यै निधनवत् ) यज्ञ में पंक्ति छन्द से 'निधनवत् साम की उत्पत्ति है । ( निधनवतः आग्रायण :) निधनवत् साम से 'आश्रयण' ग्रह की उत्पत्ति होती है । और ( आग्रयणात् त्रिणव- त्रयस्त्रिंशौ) आग्रयण ग्रह से त्रिनव और त्रय- स्त्रिँश दोनों स्तोम उत्पन्न होते हैं ( त्रिनवत्रयस्त्रिंशाभ्यां शाक्कर रैवते) त्रिनव और त्रयस्त्रिश दोनों स्तोमों से शाक्कर और रैवत दो 'पृष्ठ' उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार राष्ट्र में शत्रु संतापक पंक्ति नमक सैन्य पांचों जनों की सम्मति, सेन्य शक्ति से 'निधनवत्' अर्थात् शत्रुहनन होता है। उससे आग्रयण अर्थात् आगे बढ़ने वाले शूरवीर का पद नियत होता है। उससे त्रिनव और चयस्त्रिंश २७ और ३३ के स्तोम अर्थात् संघों की रचना होती है और उनसे शाक्कर अर्थात्, शक्तिशाली और रैवत, धनाढ्य राष्ट्रों की उत्पत्ति होती है। इस सबका ( ऋषिः विश्वकर्मा ) ऋषि द्रष्टा और नेवा सञ्चालक विश्वकर्मा प्रजापति है । (प्रजापति गृहीतया त्वया प्रजाभ्यः वाचं गृह्णामि ) प्रजापति राज द्वारा वशीकृत राजशक्ति रूप तुझ से प्रजा के हित के लिये आज्ञा प्रदान करने वाली वाणी को अपने वश करूं । शत० ८ ।१ ।२ । ७-९ ।। 'लोकं०, ता०, इन्द्रम्० ॥ ' १२ अ० के ५४, १५,५६ इन तीन मन्त्रों की प्रतीक मात्र रक्खी है ।
टिप्पणी
अवसाने लोकं, ता, इन्द्रम् क्रमश: ( १२ अ०। ५४ ।५५।५६) इति मन्त्रत्रमस्य प्रतीकानि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्देवता । विराडाकृतिः । पञ्चमः ||
विषय
मति: [ उपरिमति: ] वाग्-ग्रहण, विश्वकर्मा
पदार्थ
१. (इयम्) = यह (उपरि मतिः) = ऊर्ध्वदेश में स्थित चन्द्रमा है [ मन्येत यया - मतिः- उव्वट, 'चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत्', 'यन्मनसा मनुते तद्वाचा वदति ' ] -मन सर्वोपरि है, वह मन जो आह्लादमय है २ (तस्य) [ तस्याः] (वाङ् मात्या) = उसी की सन्तान यह वाणी है, इसी से इसे 'मात्या' कहा गया है [मते: इयम्] । वस्तुतः वाणी सदा विचारपूर्वक ही उच्चरित होनी चाहिए। ३. (वाच्यः) = वाणी की सन्तान ही (हेमन्तः) = हेमन्त है [ हि गतौ वृद्धौ] सब प्रकार की गति, कर्म व वृद्धि इस वाणी का ही परिणाम है [ यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति]। ४. (पंक्ति: हैमन्ती) = हेमन्त का गति व वृद्धि का ही परिणाम 'पंक्ति' है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ व पाँच प्राण ये गति से ठीक रहते हैं। क्रियाशीलता ही इनके स्वास्थ्य का रहस्य है । ५. (पङ्क्त्यै) = ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय व प्राण पञ्चकों के स्वास्थ्य से (निधनवत्) = निधनवत् साम उत्पन्न होता है। यह निधनवत् साम अध्यात्म-शत्रुओं का निधन ही है। ६. (निधनवतः) = इस शत्रु-निधन से ही (आग्रयणाः) = यह अग्रगति का सन्तान, अर्थात् अत्यन्त उन्नतिवाला होता है। ७. (आग्रयणात्) = इस निरन्तर अग्रगति से (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) = त्रि+णव अर्थात् बारह विश्वेदेवों की इसमें उत्पत्ति होती है। सब दिव्य गुणों का इसमें जन्म होता है और (त्रयस्त्रिंश) = [३+३०] ३३ प्राकृतिक देव इसमें विराजमान होते हैं। सूर्य चक्षुरूप से, चन्द्रमा मनरूप से और अग्नि वाणीरूप से इसमें निवास करती है। इसी प्रकार 'सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवसाते' सारे ही देवता इसमें आकर स्थित होते हैं। ८. (त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्याम्) = इन बारह अध्यात्म दिव्य गुणों से तथा ३३ प्राकृतिक देवों से (शाक्वररैवते) = शाक्वर व रैवत की स्थिति होती है। यह अध्यात्म- गुणों से शक्तिशाली बनता है तो प्राकृतिक शक्तियों से स्वास्थ्य की सम्पत्तिवाला होता है । ९. शक्ति व स्वास्थ्य को पाकर यह (विश्वकर्मा) = निर्माण के सब कर्मों को करनेवाला (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा बनता है। १०. यह तत्त्वद्रष्टा अपनी पत्नी से कहता है कि (प्रजापतिगृहीतया) = मुझ प्रजापति का ग्रहण करनेवाली (त्वया) = तेरे साथ (वाचं गृह्णामि) = मैं वाणी का ग्रहण करता हूँ, ज्ञानोपार्जन व योगाभ्यास करनेवाला बनता हूँ, जिससे हम (प्रजाभ्यः) = उत्तम सन्तानोंवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम सर्वोपरि स्थित मानस - आह्लाद [ चन्द्र- चदि आह्लादे] को अपनाकर मधुर वाणीवाले हों। इस वाणी को वश में करके उत्तम सन्तानों को प्राप्त करें। यही मार्ग हमें उत्तम लोक व प्रभु को भी प्राप्त कराएगा।
मराठी (2)
भावार्थ
स्त्री-पुरुषांनी विद्वानांची शिक्षित वाणी ऐकून आपली बुद्धी वाढवावी. त्या बुद्धीने हेमंत ऋतूमध्ये कतर्व्यकर्म व सामवेदाचे स्तोत्र जाणून महान ऋषीप्रमाणे वागावे. विद्या व चांगले शिक्षण यांनी शुद्ध वाणीचा स्वीकार करावा व आपल्या संतानांना या वाणीद्वारे सदैव उपदेश करावा.
विषय
आता पुढील मंत्रात, हेमन्त ऋतूमधे आचरण कसे करावे, याविषयी कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - पती म्हणतो) हे विदुषी पक्षी, (इयम्) ही जी (उपरि) सर्वोपरी विराजमान अशी (मति:) बुद्धी आहे, (तस्यै) तिच्यामुळे (मात्या) विचार-शक्ती आणि विचारपूर्वक कर्म होत असते. तिच्यामुळेच (वाक्) वाणीचे (वाच्य:) उच्चारण आणि तद्नुरुप कर्म होत असते. (हेमन्त:) उष्णतानाशक हा हेमंतऋतू (हैमन्ती) या ऋतूचे प्रतिपादन ज्य (पंक्ति:) पंक्तिनामक छंदात केलेले आहे, ते (पड्क्त्यै) पक्तिं छंदातील (धिनवत्) ज्या मंत्रात सामवेदाचा मृत्युविषयक भाग आहे, (त्याचे वाचन करावे) (निधमनत:) मृत्यूविषयी (आग्रमण:) प्राप्त होणारे ज्ञान आणि परिणाम याविषयी (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) सामवेदाच्या बारा आणि तेहसीस स्तोत्रामधे (सांगितलेले आहे) (त्रिवण त्रयस्त्रिंशाभ्याम्) त्या स्तोत्राद्वारे (भाक्वरैनते) शक्ती आणि संपत्ती देणाऱ्या वस्तूंचे ज्ञान प्राप्त करून (विश्वकर्मा) सर्व सत्कर्म करणारा (ऋषि:) वेदार्थाची व्याख्या करणारा मनुष्य जसे आचरण करतो, तसेच मी (तुझा पती) आचरण करतो. (प्रजापतिगृहीत्या तुझ्या संतानांचा स्वामी मी तुला स्वीकार केले असून (त्वया) तुझ्या सह (प्रजाभ्य:) आपल्या बालक-बालिकांकरिता (वाचम्) विद्या, सुशिक्षा याने सुसंस्कृत वाणीचा (गृह्णमि) स्वीकार करीत आहे. (तुला आणि आपल्या मुलामुलीनां ती संस्कृत वाणी शिकवीत आहे) ॥58॥
भावार्थ
भावार्थ - स्त्री-पुरुषांनी विद्वज्जनांचा उपदेश ऐकून बुद्धीचा विकास घडवावा. त्यांनी सांगितलेल्या विचारांप्रमाणे हेमंत ऋतूत कर्में करावीत आणि सामवेदाच्या स्तोत्रांचे अध्ययन करून महात्मा ऋषी लोकांप्रमाणे आपले आचरण ठेवावे. विद्या आणि सुशिक्षा यांने सुसंपन्न भाषा बोलानी, तसेच आपल्या संतानानादेखील तशीच सभ्य सुसंस्कृत वाणी उच्चारण करण्याचा उपदेश सदैव करावा ॥58॥
टिप्पणी
या अध्यायात ईश्वर, स्त्री-पुरुष (पति-पत्नी) आणि आचरणाच्या नियमांविषयी वर्णन केले आहे. यामुळे या अध्यायातील विषय आणि मंत्रार्थाची संगती पूर्वीच्या बाराव्या अध्यायातील मंत्रांशी आहे, असे जाणावे.^यजुर्वेदाचा तेरावा अध्याय समाप्त
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned wife, the highest of all things is intellect. From intellect is born speech. Winter is the offspring of speech. The Pankti verse is the expositor of winter. From Pankti springs Nidhanvat a part of Sama Veda, that comments on the mystery of Death. From that springs knowledge, the source of acquisition. From that knowledge are "derived the twelve and thirty three songs of the Sama Veda. With those songs, knowing strength and the objects that contribute to wealth, the door of noble deeds and the master of vedic lore, behaves rightly. I, thy husband, the guardian of offspring, with thee, acquire speech full of knowledge and sound instructions.
Meaning
Up above is this intelligence. From intelligence and for it is speech. With speech goes the season of ‘hemanta’, winter, and pankti is the metre for hemanta. Nidhanavat, the choric finale of a saman about hemanta, winter-song, is composed in pankti metre. From nidhanavat, the finale, is born the agrayana, first soma libation in agnishtoma yajna for the attainment of plenty of wealth and knowledge. From agrayana, there are twelve and thirty three saman hymns of praise. From these twelve and thirty three, we have shakvara and rewata, means to wealth, honour and power. The person who is an expert visionary of these hymns is a master of all arts and actions leading to wealth, power and honour. Woman of knowledge, virtue and love, blest by Prajapati, alongwith you I receive the gift of speech (knowledge, wisdom and expertise) for the sake of children, family and the community.
Translation
This above is the Маti (the intellect). (1) The offspring of that Mati is Vak (the speech). (2) The offspring of Vak is Hemanta (the winter season). (3) The daughter of Hemanta is the Pankti metre. (4) From the Pankti, the Nidhanavan Saman. (5) From the Nidhanavan, the Agrayana. (6) From the Agrayana, the Trinava hymn (of 3x9 = 27 verses) and Trayastrimsa hymn (of 33 verses). (7) From the Trinava and the Trayastrimsa hymns, the Sakvara and the Raivata Samans. (8) Visvakarman is the seer. (9) With you taken from the Creator Lord, I secure Vak (the speech) for our progeny. Repeat here the verses beginning with the words ‘Lokam’ (XII. 54), 'Та' (XII. 55) and 'Indram' (XII. 56). (10)
Notes
Matih,मति: मन्यते ज्ञायते यया सा मति:, intellect. Mahidhara interprets matih as GI, the speech, and उपरि as चंद्रमा, the moon. Agrayanah, name of a graha, a measure for Soma juice. Visvakarma, विश्वं सर्वं करोति य: स:, that which does ev- erything. वाग्वै विश्वकर्मा ऋषि: वाचा हि इदं सर्वं कृतं, the speech indeed is Vi$vakarmà rsi; all this is done with the speech.
बंगाली (1)
विषय
অথ হেমন্তে কথং বর্ত্তিতব্যমিত্যাহ ॥
এখন হেমন্ত ঋতুতে কীভাবে ব্যবহার করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ স্ত্রী ! (ইয়ম্) এইযে (উপরি) সর্বাপেক্ষা উপর বিরাজমান (মতিঃ) বুদ্ধি (তস্যৈ) সেই (মাত্যা) বুদ্ধির হওয়া বা কর্ম, (বাক্) বাণী এবং (বাচ্যঃ) তাহার হওয়া বা কর্ম (হেমন্তঃ) গরমের নাশক হেমন্ত ঋতু (হেমন্তী) হেমন্ত ঋতুর ব্যাখ্যাতা (পঙ্ক্তি) পঙ্ক্তি ছন্দ (পঙ্ক্ত্যৈ) সেই পঙ্ক্তি ছন্দের (নিধনবৎ) মৃত্যুর প্রশংসিত ব্যাখ্যান যুক্ত সামবেদের ভাগ (নিধনবতঃ) তাহা হইতে (আগ্রয়ণঃ) প্রাপ্তির সাধন জ্ঞানের ফল (আগ্রয়ণাৎ) তাহা হইতে (ত্রিণবত্রয়স্ত্রিংশৌ) দ্বাদশ ও ত্রিংশ সামবেদের স্তোত্র (ত্রিণবত্রয় স্ত্রিংশাভ্যাম্) সেই সব স্তোত্র দ্বারা (শাক্বররৈবতে) শক্তি ও ধনের সাধক পদার্থকে জানিয়া (বিশ্বকর্মা) সব সুকর্মের সেবনকারী (ঋষিঃ) বেদার্থের বক্তা পুরুষ ব্যবহার করে সেইরূপ আমি (প্রজাপতিগৃহীতয়া) প্রজাপালক পতি গ্রহণ করিয়াছি (ত্বয়া) তোমার সহ (প্রজাভ্যঃ) প্রজাদিগের জন্য (বাচম্) বিদ্যা ও ভাল বিদ্যাযুক্ত বাণীকে (গৃহ্নামি) গ্রহণ করি ॥ ৫৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- স্ত্রীপুরুষদিগের উচিত যে, বিদ্বান্দের শিক্ষারূপ বাণীকে শ্রবণ করিয়া নিজের বুদ্ধি বৃদ্ধি করিবে । সেই বুদ্ধি দ্বারা হেমন্ত ঋতুতে কর্ত্তব্য কর্ম এবং সামবেদের স্তোত্রকে জানিয়া মহাত্মা ঋষিদের সমান ব্যবহার করিয়া বিদ্যা এবং সুশিক্ষা দ্বারা শুদ্ধ করা বাণী স্বীকার করিয়া স্বীয় সন্তানদিগের জন্যও এই সব বাণীর উপদেশ সর্বদা করিতে থাকিবে ॥ ৫৮ ॥
এই অধ্যায়ে ঈশ্বর, স্ত্রীপুরুষ ও ব্যবহারের বর্ণনা করায় এই অধ্যায়ে কথিত অর্থের পূর্ব অধ্যায়ের অর্থ সহ সংগতি জানিবে ॥
ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে য়জুর্বেদভাষ্যে ত্রয়োদশোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ই॒য়মু॒পরি॑ ম॒তিস্তস্যৈ॒ বাঙ্মা॒ত্যা হে॑ম॒ন্তো বা॒চ্যঃ প॒ঙ্ক্তির্হৈ॑ম॒ন্তী প॒ঙ্ক্ত্যে নি॒ধন॑বন্নি॒ধন॑বতऽ আগ্রয়॒ণঃ আ॑গ্রয়॒ণাৎ ত্রি॑ণবত্রয়স্ত্রি॒ꣳশাভ্যা॑ᳬं শাক্বররৈব॒তে বি॒শ্বক॑র্ম॒ऽ ঋষিঃ॑ প্র॒জাপ॑তিগৃহীতয়া॒ ত্ব॒য়া বাচং॑ গৃহ্ণামি প্র॒জাভ্যঃ॑ ॥ ৫৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইয়মুপরীত্যস্যোশনা ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । বিরাডাকৃতিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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