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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 44
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    141

    वरू॑त्रीं॒ त्वष्टु॒र्वरु॑णस्य॒ नाभि॒मविं॑ जज्ञा॒ना रज॑सः॒ पर॑स्मात्। म॒ही सा॑ह॒स्रीमसु॑रस्य मा॒यामग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वरू॑त्रीम्। त्वष्टुः॑। वरु॑णस्य। नाभि॑म्। अवि॑म्। ज॒ज्ञा॒नाम्। रज॑सः। पर॑स्मात्। म॒हीम्। सा॒ह॒स्रीम्। असु॑रस्य। मा॒याम्। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑मन्निति॒ विऽओ॑मन् ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वरूत्रीन्त्वष्टुर्वरुणस्य नाभिमविञ्जज्ञानाँ रजसः परस्मात् । महीँ साहस्रीमसुरस्य मायामग्ने मा हिँसीः पर्मे व्योमन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वरूत्रीम्। त्वष्टुः। वरुणस्य। नाभिम्। अविम्। जज्ञानाम्। रजसः। परस्मात्। महीम्। साहस्रीम्। असुरस्य। मायाम्। अग्ने। मा। हिꣳसीः। परमे। व्योमन्निति विऽओमन्॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 44
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तेन किं न कार्य्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! त्वं त्वष्टुर्वरूत्रीं वरुणस्य नाभिं परस्माद् रजसो जज्ञानामसुरस्य मायां साहस्रीमविं परमे व्योमन् वर्त्तमानां महीं मा हिंसीः॥४४॥

    पदार्थः

    (वरूत्रीम्) वरयित्रीम् (त्वष्टुः) छेदकस्य सूर्य्यस्य (वरुणस्य) जलस्य (नाभिम्) बन्धिकाम् (अविम्) रक्षणादिनिमित्ताम् (जज्ञानाम्) प्रजाताम् (रजसः) लोकात् (परस्मात्) श्रेष्ठात् (महीम्) महतीं भूमिम् (साहस्रीम्) असंख्यातां बहुफलप्रदाम् (असुरस्य) मेघस्य (मायाम्) प्रज्ञापिकां विद्युतम् (अग्ने) विद्वन् (मा) (हिंसीः) हिंस्याः (परमे) सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) आकाशवद् व्याप्ते ब्रह्मणि। [अयं मन्त्रः शत॰७.५.२.२० व्याख्यातः]॥४४॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैर्येयं पृथिवी परस्मात् कारणाज्जाता, सूर्य्याकर्षणसम्बन्धिनी, जलाधारा, मेघनिमित्ता, बहुभूगोलाकारा, असंख्यसुखप्रदा परमेश्वरेण निर्मिताऽस्ति, तां गुणकर्मस्वभावतो विज्ञाय सुखाय समुपयोक्तव्या॥४४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उस विद्वान् को क्या नहीं करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष! आप (त्वष्टुः) छेदनकर्त्ता सूर्य्य के (वरूत्रीम्) ग्रहण करने योग्य (वरुणस्य) जल की (नाभिम्) रोकनेहारी (परस्मात्) श्रेष्ठ (रजसः) लोक से (जज्ञानाम्) उत्पन्न हुई (असुरस्य) मेघ की (मायाम्) जताने वाली बिजुली को और (साहस्रीम्) असंख्य भूगोलयुक्त बहुत फल देनेहारी (अविम्) रक्षा आदि का निमित्त (परमे) सब से उत्तम (व्योमन्) आकाश के समान व्याप्त जगदीश्वर में वर्त्तमान (महीम्) विस्तारयुक्त पृथिवी को (मा) मत (हिंसीः) नष्ट कीजिये॥४४॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिये कि जो यह पृथिवी उत्तम कारण से उत्पन्न हुई, सूर्य्य जिसका आकर्षणकर्त्ता, जल का आधार, मेघ का निमित्त, असंख्य सुख देनेहारी परमेश्वर ने रची है; उसको गुण, कर्म और स्वभाव से जान के सुख के लिये उपयुक्त करें॥४४॥

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    विषय

    परमेश्वरी शक्ति के पालने का आदेश ।

    भावार्थ

    ( त्वष्टुः ) समस्त संसार को गढ़ने वाले परमेश्वर की ( वरुत्रीम् ) वरण करने वाली उसी को एक मात्र अपना आश्रय स्वीकार करने वाली, वरुणस्य नाभिम् ) जगत् के मूलकारण रूप जल के ( नाभिम् ) बन्धनकारिणी, उसको स्तम्भन करने में समर्थ, (परस्मात् ) सबसे उत्कृष्ट ( रजसः) लोक, परमपद परमेश्वर से ही ( जज्ञानाम् ) प्रादुर्भूत होने वाली ( असुरस्य ) मेघ के समान सबको प्राण देने में समर्थ, सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की (महीम) बड़ी भारी (साहस्रम् ) असंख्य शक्तियों से युक्त समस्त जगत् की उत्पादक, ( अविभू ) वस्त्रादि से भेड़ के समान सबकी पालक, ( मायाम् ) निर्माण करनेवाली शक्ति या सब ज्ञानों को ज्ञापन कराने वाली परमेश्वरी शक्ति को ( अग्ने ) हे ज्ञानवन् विद्वन् ! तू ( परमे व्योमन् ) परम, सब से ऊंचे पद पर विराज कर ( मा हिंसी: ) विनाश मत कर ॥ शत० ७ । ५ । २ । २० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    असुरस्य माया

    पदार्थ

    १. हे विरूप! गत मन्त्र के अनुसार स्तवन करनेवाला बनकर विशिष्टरूपता को सिद्ध करनेवाला और (अग्ने) = आगे बढ़नेवाला ! तू (परमे व्योमन्) = इस हृदयाकाश में प्रभु के स्थापन के कारण उत्पन्न हुई (असुरस्य मायाम्) = प्राणशक्ति देनेवाले [ असून् राति] प्रभु की प्रज्ञा को, जहाँ प्रभु हैं वहाँ प्रभु का प्रकाश तो होगा ही, (मा हिंसी:) = नष्ट मत कर। अपने हृदय को उस प्राणों के प्राण प्रभु की प्रज्ञा से पूर्ण रख जो प्रज्ञा २. (त्वष्टुः वरुणस्य) = संसार के निर्माता प्रभु की (वरूत्रीम्) = वरण करनेवाली है। जो प्रज्ञा प्रभु को प्राप्त करानेवाली है। ३. जो प्रज्ञा (वरुणस्य नाभिम्) = श्रेष्ठता का केन्द्र है। प्रज्ञा ही मनुष्य को द्वेषादि से ऊपर उठाकर उत्तम जीवनवाला बनाती है। (अविम्) = जो रक्षण करनेवाली है तथा जो प्रज्ञा (रजसः परस्मात्) = रजोगुण से पर देश में (जज्ञानाम्) = प्रादुर्भूत होती है, अर्थात् जो प्रज्ञा रजोगुण से ऊपर उठने पर प्राप्त होती है। ४. (महीम्) = यह प्रज्ञा तुझे 'मह पूजयाम्' पूजा की मनोवृत्तिवाला बनाती है । ५. (साहस्त्रीम्) = [सहस्रोपकारक्षमम्] यह प्रज्ञा तुझे हज़ारों के उपकार में सक्षम करती है। तू अधिक-से-अधिक कल्याण करने में समर्थ होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदयाकाश में प्रकट होनेवाले प्रभु के प्रकाश को नष्ट न होने दें, जिससे हम द्वेष व दुर्गुणों से ऊपर उठकर सहस्रशः प्राणियों का कल्याण करनेवाले बनें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    उत्तम कारणांपासून उत्पन्न झालेली सुखकारक अशी पृथ्वी जिचा आकर्षण कर्ता सूर्य असून तो मेघांचे निमित्त व जलाचा आधार आहे. अशा या पृथ्वीची रचना परमेश्वरानेच केलेली आहे. तेव्हा माणसांनी तिचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणून सुखासाठी तिचा उपयोग करावा.

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    विषय

    आता त्या विद्वानाने काय करू नयेत हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्वान महादेव, (अथवा जगातील सर्व ज्ञानी मनुष्यांनो) या सृष्टीत (त्वष्टु:) छेदन-भेदन गुण युक्त सूर्याच्या (वरूत्रीम्‌) ग्रहण करण्यास उचित (अशा गुणांचे आपण रक्षण करा, स्वीकार करा) (वरूणस्य) जलामधे असलेल्या (नाभिम्‌) बंधन नाम गुणांचा तसेच (परस्मात्‌) (रजस:) श्रेष्ठ लोकापासून (जजानाम्‌) उत्पन्न झालेली आणि (असुरस्य) मेघाचे (आयाम्‌) ज्ञान करून देणाऱ्या विद्युतेला आपण जाणून घ्या. (त्यांच्या उपयोगाचे ज्ञान मिळवा) (साहस्रीम्‌) अगणित गोल-भूगोल यांच्यापासून मिळणाऱ्या लाभांची प्राप्ती करून देणारी (अविम्‌) आमचे रक्षण करणारी आणि (परमे) (न्योमन्‌) सर्वोत्तम आकाशमानाप्रमाणे सर्वत्र व्याप्त परमेश्‍वरामधे विद्यमान असा या (महीम्‌) विशाल पृथ्वीला (मा) (हिंसी:) नष्ट करू नका (विद्युत जलामध्ये ढगामध्ये असून पृथ्वीला तिची प्राप्ती अन्य ग्रह-नक्षत्रादीमुळे होते आणि पृथ्वीचे उपग्रह आदी आहेत, या दोन गोष्टींची माहिती या मंत्रात करून दिली आहे) ॥44॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सर्व मनुष्यांनी हे जाणून घ्यावे की ही पृथ्वी उत्तम कारणापासून उत्पन्न झालेली असून सूर्याच्या आकर्षणाने बद्ध आहे. तसेच पाण्याचा आधार जो मेथ, त्या मेधाच्या उत्पत्तीचे कारण असून परमेश्‍वराने ही पृथ्वी असंघ्य लाभ, गुण देणारी अशी निर्मिती आहे. सर्वांनी या अशा पृथ्वीने गुण, कर्म आणि स्वभाव जाणून घ्यावेत आणि सुख प्राप्त करण्यासाठी पृथ्वीचा (पृथ्वीवरील पदार्थांच्या) उपयोग करावा ॥44॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, residing in the supreme Lord, vast like the space, harm not the vast Earth, attracted by the sun, the repository of water, created by the Pre-eminent God, the Giver of countless fruits, and the Cause of our protection, nor harm the lightning, the precursor of the clouds.

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    Meaning

    Agni, man of knowledge and power, do not injure, do not destroy, the protective power of the sun, the binding power of water, the lightning energy of the cloud born of regions beyond the sky, and the great, generous and regenerative earth, giver of a thousand blessings.

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    Translation

    О sacrificial fire, may you not harm the sheep (Aries), which is seated in the highest heaven, is dear to the supreme architect, is the navel of waters, and which has been brought from the loftiest region and is the great, thousandfold wisdom of living beings. (1)

    Notes

    Avim, sheep. Tvastur varutrim, which is dear to tvastr, the Supreme Architect. Varunasya nàbhim, navel of the waters. Asurasya, असव: प्राण विद्यंते यस्य सोऽसुर:, one that has got life is asura; any living being. А Maya, प्रज्ञा, wisdom. ` Sahasrim, सहस्रोपकारक्षमां, capable of bestowing thousands of benefits.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তেন কিং ন কার্য়্যমিত্যাহ ॥
    পুনঃ সেই বিদ্বান্কে কী করা উচিত নহে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) বিদ্বান্ পুরুষ ! আপনি (ত্বষ্টুঃ) ছেদনকর্ত্তা সূর্য্যের (বরূত্রীম্) গ্রহণীয় (বরুণস্য) জলের (নাভিম্) প্রতিরোধকারিণী (পরস্মাৎ) শ্রেষ্ঠ (রজসঃ) লোক হইতে (জজ্ঞানাম্) উৎপন্ন (অসুরস্য) মেঘের (মায়াম্) প্রজ্ঞাপিকা বিদ্যুৎকে এবং (সাহস্রীম্) অসংখ্য ভূগোলযুক্ত বহু ফল প্রদাত্রী (অবিম্) রক্ষাদির নিমিত্ত (পরমে) সর্বাপেক্ষা উত্তম (ব্যোমন্) আকাশের সমান ব্যাপ্ত জগদীশ্বরে বর্ত্তমান (মহীম্) বিস্তারযুক্ত পৃথিবীকে (মা) না (হিংসী) ধ্বংস করুন ॥ ৪৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- সকল মনুষ্যদিগের উচিত যে, এই যে পৃথিবী উত্তম কারণ হইতে উৎপন্ন, সূর্য্য যাহার আকর্ষণকর্ত্তা জলের আধার মেঘের নিমিত্ত অসংখ্য সুখ প্রদাতা পরমেশ্বর রচনা করিয়াছেন উহাকে গুণ, কর্ম ও স্বভাব দ্বারা জানিয়া সুখের জন্য উপযুক্ত করিবে ॥ ৪৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বরূ॑ত্রীং॒ ত্বষ্টু॒র্বর॑ুণস্য॒ নাভি॒মবিং॑ জজ্ঞা॒নাᳬं রজ॑সঃ॒ পর॑স্মাৎ ।
    ম॒হীᳬं সা॑হ॒স্রীমসু॑রস্য মা॒য়ামগ্নে॒ মা হি॑ꣳসীঃ পর॒মে ব্যো॑মন্ ॥ ৪৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বরূত্রীমিত্যস্য বিরূপ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃৎত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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