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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 19
    ऋषिः - त्रिशिरा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
    117

    विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्रा॑य। अ॒ग्निष्ट्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नायेत्य॑पऽआ॒नाय॑। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। प्र॒ति॒ष्ठायै॑। प्र॒ति॒स्थाया॒ इति॑ प्रति॒ऽस्थायै॑। च॒रित्रा॑य। अ॒ग्निः। त्वा॒। अ॒भि। पा॒तु॒। म॒ह्या। स्व॒स्त्या। छ॒र्दिषा॑। शन्त॑मे॒नेति॒ शम्ऽत॑मेन। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥१९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय । अग्निष्ट्वाभि पातु मह्या स्वस्त्या छर्दिषा शन्तमेन तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवा सीद ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वस्मै। प्राणाय। अपानायेत्यपऽआनाय। व्यानायेति विऽआनाय। उदानायेत्युत्ऽआनाय। प्रतिष्ठायै। प्रतिस्थाया इति प्रतिऽस्थायै। चरित्राय। अग्निः। त्वा। अभि। पातु। मह्या। स्वस्त्या। छर्दिषा। शन्तमेनेति शम्ऽतमेन। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। सीद॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्याह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि! योऽग्निस्ते पतिर्मह्या स्वस्त्या शन्तमेन छर्दिषा विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय यां त्वाभिपातु, सा त्वं तया देवतया सहाऽङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद॥१९॥

    पदार्थः

    (विश्वस्मै) संपूर्णाय (प्राणाय) जीवनहेतवे (अपानाय) दुःखनिवारणाय (व्यानाय) विविधोत्तमव्यवहाराय (उदानाय) उत्कृष्टाय बलाय (प्रतिष्ठायै) सत्कृतये (चरित्राय) धर्माचरणाय (अग्निः) विज्ञानवान् पतिः (त्वा) त्वाम् (अभि) आभिमुख्यतया (पातु) रक्षतु (मह्या) महत्या (स्वस्त्या) प्रापकसुखक्रियया (छर्दिषा) प्रदीप्तेन (शन्तमेन) अत्यन्तसुखरूपेण कर्मणा (तया) (देवतया) विवाहितपतिरूपया सुखप्रदया (अङ्गिरस्वत्) कारणवत् (ध्रुवा) निश्चलस्वरूपा (सीद) अवस्थिता भव। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.२.८ व्याख्यातः]॥१९॥

    भावार्थः

    पुरुषाः स्वस्वस्त्रीणां सत्कारसुखाभ्यामव्यभिचारेण च प्रियाचरणं पालनादिकं च सततं कुर्य्युः, स्त्रियोऽप्येवमेव। न स्वस्त्रियं विहायान्यां पुरुषः, स्वपुरुषं विहायान्यं स्त्री च संगच्छेत्। एवं परस्परस्य प्रियाचरणावुभौ सदा वर्त्तेयाताम्॥१९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे स्त्री-पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि! जो (अग्निः) विज्ञानयुक्त तेरा पति (मह्या) बड़ी (स्वस्त्या) सुख प्राप्त करानेहारी क्रिया और (छर्दिषा) प्रकाशयुक्त (शन्तमेन) अत्यन्तसुखदायक कर्म के साथ (विश्वस्मै) सम्पूर्ण (प्राणाय) जीवन के हेतु प्राण (अपानाय) दुःखों की निवृत्ति (व्यानाय) अनेक प्रकार के उत्तम व्यवहारों की सिद्धि (उदानाय) उत्तम बल (प्रतिष्ठायै) सत्कार और (चरित्राय) धर्म का आचरण करने के लिये जिस (त्वा) तेरी (अभिपातु) सन्मुख होकर रक्षा करे, सो तू (तया) उस (देवतया) दिव्यस्वरूप पति के साथ (अङ्गिरस्वत्) जैसे कार्य्य-कारण का सम्बन्ध है, वैसे (ध्रुवा) निश्चल हो के (सीद) प्रतिष्ठायुक्त हो॥१९॥

    भावार्थ

    पुरुषों को योग्य है कि अपनी-अपनी स्त्रियों के सत्कार से सुख और व्यभिचार से रहित होके प्रीतिपूर्वक आचरण और उनकी रक्षा आदि निरन्तर करें, और इसी प्रकार स्त्री लोग भी रहें। अपनी स्त्री को छोड़ अन्य स्त्री की इच्छा न पुरुष और न अपने पति को छोड़ दूसरे पुरुष का संग स्त्री करे। ऐसे ही आपस में प्रीतिपूर्वक ही दोनों सदा वर्त्तें॥१९॥

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    विषय

    उनके रक्षक पति का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( विश्वस्मै= विश्वस्य ) समस्त जंगम संसार के ( प्राणाय ) प्राण रक्षा, जीवन वृद्धि के लिये, ( अपानाय ) अपान के लिये या दुःख निवारण के लिये, ( व्यानाय ) व्यान या विविध व्यवहारों के लिये, ( उदानाय ) उदान के लिये और उत्तम बल-प्राप्ति के लिये ( प्रतिष्ठायै ) प्रतिष्ठा और ( चरित्राय ) सच्चरित्रता की रक्षा के लिये ( वा ) तेरी ( अग्निः ) ज्ञानवान् अग्रणी नायक राजा और यति भी ( मह्या ) बड़ी ( स्वस्त्या ) सुख सामग्री से और ( शंतमया ) अतिशान्तिदायक, कल्याण- कारिणी ( छर्दिषा ) गृहादि समृद्धि से ( अभियातु ) सब प्रकार से रक्षा करे, पालन करे। तू भी ( तथा देवतया ) उस देवस्वरूप पति, पालक या राजा के संग (अंगिरस्वत्) अग्नि के समान तेजस्विनी होकर (ध्रुवा) स्थिर, दृढ होकर ( सीद ) विराजमान हो, प्रतिष्ठा को प्राप्त हो ॥ शत० ७ । ४ । २ । ८ ।।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निदेवता । भुरिगति जगती । निषादः ॥

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    विषय

    मही स्वस्ति- शन्तम छर्दि [ उत्तम योगक्षेम, शान्त घर ]

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्र में पति को अग्नि कहा है। उसका कर्त्तव्य है कि वह पत्नी की रक्षा करे। (अग्निः) = घर की उन्नति को सिद्ध करनेवाला तथा अग्नि के समान ज्ञान के प्रकाशवाला पति (त्वा) = तुझे (अभिपातु) = पालित करे, तुझे आन्तर व बाह्य आपत्तियों से बचाए । २. (मह्या स्वस्त्या) = [महत्या योगक्षेमसंपत्त्या] महती योगक्षेम सम्पत्ति के द्वारा वह तेरा रक्षण करे और (शन्तमेन छर्दिषा) = [ अत्यन्तं सुखकारिणा गृहेण - म० ] सब प्रकार से शान्ति देनेवाले घर से पति तेरी रक्षा करे। घर में किसी प्रकार के खान-पान की कमी न हो और घर सब ऋतुओं में सुखद हो । ३. इस घर में (तया देवतया) = उस देवतुल्य पति के साथ (अङ्गिरस्वत्) = एक-एक अङ्ग में रसवाले व्यक्ति के समान, अर्थात् पूर्ण स्वस्थ व प्राणशक्ति सम्पन्न होकर तू (ध्रुवा सीद) = ध्रुव होकर रहनेवाली हो। तेरा जीवन बड़ा मर्यादावाला हो। ४. ऐसा होने पर ही तू (विश्वस्मै प्राणाय) = सब प्राणशक्ति के लिए अथवा सब गृहसभ्यों की प्राणशक्ति के लिए होगी। (अपानाय) = अपान शक्ति के लिए होगी। प्राणशक्ति बल देनेवाली है तो अपान दोषों को दूर करनेवाली है । ५. तू (व्यानाय) = व्यानशक्ति के लिए होगी। व्यान शक्ति शरीर में सर्वत्र भ्रमण करके शरीर की व्यवस्था को ठीक रखनेवाली है। उदानाय तू उदान के लिए होगी। यह उदान कण्ठदेश में रहकर कण्ठग्रन्थि को ठीक रखती हुई दीर्घ जीवन का कारण बनती है । ६. (प्रतिष्ठायै) = तू घर की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए होगी। घर की नींव को दृढ़ करनेवाली होगी तथा चरित्राय घर में आचरण के मापक को तू सदा ऊँचा रक्खेगी।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति का मुख्य कार्य यह है कि वह उत्तम घर तथा महनीय योगक्षेम लिए यत्नशील हो। पत्नी इस बात का ध्यान [ खान-पान की सामग्री] को प्राप्त कराने के रक्खे कि गृहसभ्यों की प्राण, अपान, व्यान व उदान शक्तियाँ ठीक बनी रहें। घर की प्रतिष्ठा बढ़े तथा सदाचार का मापक ऊँचा बना रहे।

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    विषय

    मनुष्यों को धर्माचरण से किस-किस पदार्थ की इच्छा करनी चाहिये, यह उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे पूर्वोक्त विद्वानों ! आप लोगों के सहाय से (वाजस्य) वेदादि शास्त्रों के अर्थ से उत्पन्न ज्ञान रूप बोध का (प्रसवः) उत्तम ऐश्वर्य-समूह (मा) मुझे ([आ] जगभ्यात्) सब ओर से पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो, और-- (इमे) ये (विश्वरूपे) सब रूपों वाले (द्यावा-पृथिवी) राज्य के लिये जो प्रकाश और भूमि हैं वे तथा (अमृतत्वेन) सब रोगों के निवारक गुण के साथ (सोमः) सोमलता आदि औषधि गण [मा] मुझे ([आ] +गम्यात्) प्राप्त हो, और-- (पितरामातरा) माता और पिता और (च) उत्तम सहायक जन [मा] मुझे ([आप] गन्ताम्) प्राप्त हों । सो (वाजिनः) प्रशस्त बल वाले, (वाजजितः) सङ्ग्रामों के विजेता, (वाजम्) सङ्ग्राम को (ससृवांस:) प्राप्त हुये (निमृजानाः) सर्वथा शुद्ध होकर तुम लोग (बृहस्पतेः) विशाल सेना के स्वामी अर्थात् सेनापति की (भागम्) सेवा को (अव+जिघ्रत) प्राप्त करो ॥ ९ । १९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य-विद्वानों के संग से विद्या और सुशिक्षा को प्राप्त करके धर्म का आचरण करते हैं उन्हें इस लोक और परलोक में परम ऐश्वर्य का साधक राज्य, विद्वान् माता-पिता, और नीरोगता प्राप्त होती है। जो विद्वानों की सेवा करते हैं, वे शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होकर सब सुखों को प्राप्त करते हैं, इसके विरुद्ध आचरण करने वाले लोग यह सब प्राप्त नहीं कर सकते ॥९ । १९॥

    प्रमाणार्थ

    (गन्ताम्) यहां विकरण-प्रत्यय (शप्) का लुक् है । (मातरापितरा) यहां 'मातरापितरा च छन्दसि' (अ० ६ । ३ । ३३) इस सूत्र से पूर्वपद को 'आनङ्' और उत्तर पद को ओकार-आदेश निपातित है । इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२।१। ५ । २६-२७) में की गई है ॥ ९ । १९॥

    भाष्यसार

    धर्माचरण से क्या क्या प्राप्त करें--मनुष्य-विद्वानों के संग से वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करें, उत्तम विद्या और शिक्षा को प्राप्त करें, परम ऐश्वर्य को प्राप्त करें, इस लोक में परम ऐश्वर्य के साधक राज्य को प्राप्त करें, सब रोगों की निवारक सोमलता आदि औषधियों को प्राप्तकरके नीरोगता को सिद्ध करें, परलोक में विदुषी माता और विद्वान् पिता को प्राप्त करें, विद्वानों की सेवा से शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त करें, संग्रामों में विजय प्राप्त करें, बाह्य और आन्तरिक शुद्धि को प्राप्त हों । ९। १९॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    पुरुषांनी आपापल्या स्त्रियांचा सन्मान करून सुख मिळवावे. व्यभिचाररहित होऊन प्रीतिपूर्वक आचरण करावे व त्यांचे सदैव रक्षण करावे. याप्रमाणे स्त्रियांनीही वागावे. आपल्या पत्नीला सोडून परस्त्रीची इच्छा पुरुषाने करू नये किंवा स्त्रीने परपुरुषाची इच्छा धरू नये. याप्रमाणे आपापसात नेहमी प्रीतिपूर्वक राहावे.

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    विषय

    स्त्रियांनी आणि पुरुषांनी (पतिपत्नींनी) कसे असावे, पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे स्त्री, (अग्नि:) विज्ञानवान तुझा पती (मह्या) मोरया (स्वस्त्या) सुखकारक व्यवहाराने (छर्दिषा) प्रकाशमान (तसेच (कीर्तिमान) आणि (शन्तमेन) आनंददायक कर्म (तुझे यश वाढवितो) तसेच तो (विश्‍वस्मै) पूर्ण (प्राणाय) आयुष्यासाठी (अपामायु) दु:खनिवृत्तीसाठी, (व्यानाय) विविध उत्तम व्यवहारांच्या पूर्वतेसाठी आणि (उदानाय) उत्तम शक्ती प्राप्त करण्यासाठी तसेच (प्रतिष्ठायै) तुला आदर-सम्मान मिळण्यासाठी आणि (चरित्राय) धर्माधरण करण्यासाठी (स्वत: पुढे होऊन) (त्वा) तुझी (अभिपातु) सर्वप्रकारे रक्षा करतो (वा तुझे रक्षण सदैव करो). त्याच्याप्रमाणे तू देखील (तया) त्या (देवतया) दिव्यस्वरूप पतीविषयी (अड्णिरस्वत्‌) कार्य-कारण संबंधाप्रमाणे (ध्रुवा) निश्‍चयाने व स्थिर राहून (सीद) प्रतिष्ठावान हो. (जसे तुझा पती सर्वदृष्ट्या तुझा उत्कर्षासाठी, तुला यशस्वी करण्यासाठी झटला, तसे तू देखील त्याच्या यश-सम्मानासाठी यत्न करीत जा) ॥19॥

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रत्येक पतीचे कर्तव्य आहे की त्याने आपल्या पत्नीस सुख व आदर द्यावा, व्यभिचारापासून दूर राहून तिच्याशी प्रेमपूर्ण आचरण करीत (भय, दु:ख, संकटदायी प्रसंगी) तिचे रक्षण करावे. पतीने आपल्या पत्नीशिवाय अन्य स्त्रीची कामनादेखील करू नये आणि पत्नीने देखील परपुरूषाचा संग कदापि करून नये. दोघांनी अशाच प्रकारचे आचरण करीत सदैव प्रेमाने वागावे. ॥19॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O woman, may thy learned husband, protect thee, with pleasure-giving deeds and beautiful peaceful acts, for full longevity, removal of misery, acquisition of various noble performances, vigour, veneration, and religious duties. May thou attain to fame, living permanently with thy husband, as cause and effect are inseparable.

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    Meaning

    Lady of the home, may Agni, lord of light and life/your husband, the presiding presence of the home, fully protect and support you in every way for all the energy of life, prevention of suffering, best manners and behaviour, inner strength, dignity and recognition and virtuous conduct. In a state of perfect peace and well-being, with all the joys of life in a good home, stay firm and secure with Agni, the lord of life, and your husband, like Prakriti with Purusha and the light of the dawn with the day.

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    Translation

    O lady of the house, for all the vital breath, for outbreath, for through-breath, for up-breath, for good reputation and for good character, may the adorable Lord protect you from all sides. With great well-being, with the securest shelter, may you be seated firmly with that bounty of Nature blazing bright. (1)

    Notes

    ViSvasmai, सर्वस्मै, for all. Prana, арапа, vyàna, udana, are various types of vital breath, that keep the body going. Prána is vital breath in general and in-breath in particular; apána, is out-breath; sometimes it denotes flatus; vyana is through-breath and uddna is up-breath. For proper functioning of these vital breaths. When these vital breaths fail to function properly, many physical and mental ailments take place. Mahya, महत्या, great,; ample. Santamena chardisa, with a most pleasing or the securest home or shelter.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৌ পরস্পরং কথং বর্ত্তেয়াতামিত্যাহ ॥
    পুনঃ সেই স্ত্রী-পুরুষ পারস্পরিক কেমন ব্যবহার করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রি ! যে (অগ্নিঃ) বিজ্ঞানযুক্ত তোমার পতি (মহ্যা) মহতী (স্বস্ত্যা) সুখ প্রাপ্তকারিণী ক্রিয়া এবং (ছর্দিষা) প্রকাশযুক্ত (শন্তমেন) অত্যন্ত সুখদায়ক কর্ম সহ (বিশ্বস্মৈ) সম্পূর্ণ (প্রাণায়) জীবনের হেতু প্রাণ (অপানায়) দুঃখের নিবৃত্তি (ব্যানায়) বহু প্রকার উত্তম ব্যবহারের সিদ্ধি (উদানায়) উত্তম বল (প্রতিষ্ঠায়ৈ) সৎকার এবং (চরিত্রায়) ধর্মের আচরণ করিবার জন্য যে (ত্বা) তোমার (অভিপাতু) সম্মুখ হইয়া রক্ষা করিবে সুতরাং তুমি (তয়া) সেই (দেবতয়া) দিব্যস্বরূপ পতিসহ (অঙ্গিরস্বৎ) যেমন কার্য্য কারণের সম্বন্ধ সেইরূপ (ধ্রুবা) নিশ্চল হইয়া (সীদ) প্রতিষ্ঠাযুক্ত হও ॥ ১ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- পুরুষদিগের উচিত যে, নিজ নিজ স্ত্রীদিগের সৎকার দ্বারা সুখ ও ব্যভিচার রহিত হইয়া প্রীতিপূর্বক আচরণ এবং তাহাদের রক্ষাদি নিরন্তর করিবে এবং এইরূপ স্ত্রীলোকেরাও করিবে । স্বীয় স্ত্রীকে পরিত্যাগ করিয়া অন্য স্ত্রীর ইচ্ছা না তো পুরুষ এবং না তো স্বীয় পতিকে পরিত্যাগ করিয়া অন্য পুরুষের সঙ্গ স্ত্রী করিবে । এইরূপ পারস্পরিক প্রীতিপূর্বকই উভয়ে সর্বদা ব্যবহার করিবে ॥ ১ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিশ্ব॑স্মৈ প্রা॒ণায়া॑পা॒নায়॑ ব্যা॒নায়ো॑দা॒নায়॑ প্রতি॒ষ্ঠায়ৈ॑ চ॒রিত্রা॑য় । অ॒গ্নিষ্ট্বা॒ভি পা॑তু ম॒হ্যা স্ব॒স্ত্যা ছ॒র্দিষা॒ শন্ত॑মেন॒ তয়া॑ দে॒বত॑য়াঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বা সী॑দ ॥ ১ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিশ্বস্মা ইত্যস্য ত্রিশিরা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগতিজগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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