यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 21
ऋषिः - अग्निर्ऋषिः
देवता - पत्नी देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
120
या श॒तेन॑ प्रत॒नोषि॑ स॒हस्रे॑ण वि॒रोह॑सि। तस्या॑स्ते देवीष्टके वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम्॥२१॥
स्वर सहित पद पाठया। श॒तेन॑। प्र॒त॒नोषीति॑ प्रऽत॒नोषि॑। स॒हस्रे॑ण। वि॒रोह॒सीति॑ वि॒ऽरोह॑सि। तस्याः॑। ते॒। दे॒वि॒। इ॒ष्ट॒के॒। वि॒धेम॑। ह॒विषा॑। व॒यम् ॥२१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या शतेन प्रतनोषि सहस्रेण विरोहसि । तस्यास्ते देवीष्टके विधेम हविषा वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
या। शतेन। प्रतनोषीति प्रऽतनोषि। सहस्रेण। विरोहसीति विऽरोहसि। तस्याः। ते। देवि। इष्टके। विधेम। हविषा। वयम्॥२१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा कीदृशी भवेदित्याह॥
अन्वयः
हे इष्टके इष्टकावद् दृढांगे देवि स्त्रि! यथेष्टका शतेन प्रतनोति सहस्रेण विरोहित, तथा या त्वमस्मान् शतेन प्रतनोषि सहस्रेण च विरोहसि, तस्यास्ते तव हविषा वयं विधेम त्वां परिचरेम॥२१॥
पदार्थः
(या) (शतेन) असंख्यातेन (प्रतनोषि) (सहस्रेण) असंख्यातेन (विरोहसि) विविधतया वर्धसे (तस्याः) (ते) तव (देवि) देदीप्यमाने (इष्टके) इष्टकेव शुभैर्गुणैः सुशोभिते (विधेम) परिचरेम (हविषा) होतुमर्हेण (वयम्)। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.२.१५ व्याख्यातः]॥२१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा शतशः सहस्राणीष्टका गृहाकारा भूत्वा सर्वान् सुखयन्ति, तथैव याः साध्व्यः स्त्रियः पुत्रपौत्रभृत्यादिभिः सर्वानानन्दयेयुस्ताः पुरुषाः सततं सत्कुर्य्युः। नहि सत्पुरुषस्त्री-समागमेन विना शुभगुणाढ्यान्यपत्यानि जायेरन्। एवंभूतैः सन्तानैर्विना मातापितॄणां कुतः सुखं जायेत॥२१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसी हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (इष्टके) र्इंट के समान दृढ़ अवयवों से युक्त, शुभ गुणों से शोभायमान (देवि) प्रकाशयुक्त स्त्री जैसे र्इंट सैकड़ों संख्या से मकान आदि का विस्तार और हजारह से बहुत बढ़ा देती है, वैसे (या) जो तू हम लोगों को (शतेन) सैकड़ों पुत्र-पौत्रादि सम्पत्ति से (प्रतनोषि) विस्तारयुक्त करती और (सहस्रेण) हजारह प्रकार के पदार्थों से (विरोहसि) विविध प्रकार बढ़ाती है, (तस्याः) उस (ते) तेरी (हविषा) देने योग्य पदार्थों से (वयम्) हम लोग (विधेम) सेवा करें॥२१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सैकड़ों प्रकार से हजारह र्इंट घर रूप बन के सब प्राणियों को सुख देती हैं, वैसे जो श्रेष्ठ स्त्री लोग पुत्र-पौत्र ऐश्वर्य्य और भृत्य आदि से सब को आनन्द देवें, उनका पुरुष लोग निरन्तर सत्कार करें, क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष और स्त्रियों के संग के बिना शुभ गुणों से युक्त सन्तान कभी नहीं हो सकते और ऐसे सन्तानों के बिना माता पिता को सुख कब मिल सकता है॥२१॥
विषय
दूर्वा के दृष्टान्त से राजशक्ति, पक्षान्तर में स्त्री का वर्णन |
भावार्थ
हे दूर्वा के समान पृथ्वी पर फैलने वाली राज्यशक्ते ! तू (या) जो ( शतेन ) सैकड़ों बलों से ( प्रतनोषि ) अपने को विस्तृत करती है और ( सहस्रेण ) अपने हज़ारों वीर योद्धाओं द्वारा ( विरोहसि ) विविध रूपों में अपना जड़ जमाती है । हे ( देवि ) देवि ! विजयशीले ! धन-दात्रि ! ( इष्टके ) सब को इष्ट या प्रिय लगनेवाली, सबकी व्यवस्था करने वाली ( तस्या: ते) उस तेरा ( वयम् ) हम ( हविषा ) अन्नादि, कर आदि रूप में दातव्य और राजा द्वारा उपादेय पदार्थों से या ज्ञानपूर्वक ( विधेम ) सेवन या विधान या निर्माण करें ॥ शत० ७ । ४ । २ । १५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दूर्वा पत्नी देवता । अग्निर्ऋषिः । निचृदनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
इष्टका
पदार्थ
१. प्रस्तुत मन्त्र में पत्नी को 'इष्टका' कहा है [यज् + क्त+इष्ट = यज्ञ] यज्ञों को करनेवाली । व्याकरण के अनुसार पत्नी शब्द की सिद्धि ही 'यज्ञसंयोग' में होती है 'पत्युर्नो यज्ञसंयोगे । वस्तुतः गृहस्थ में व्यक्ति ने यज्ञ के लिए प्रवेश किया है। यज्ञों में प्रवृत्त रहने के कारण इसका जीवन दिव्य बना रहता है, अतः इसे 'देवी' कहा गया है। पति धनार्जन करके उसे पत्नी के हाथ में दे। पत्नी इस धन को यज्ञों में विनियुक्त करती हुई यज्ञशेष से, अमृत से परिवार का पोषण करने के लिए प्रयत्न करे। पति जो देकर खाता है वही 'हवि' है, दानपूर्वक अदन। इसी प्रकार पति पत्नी का समुचित आदर करनेवाला होता है। ३. पति कहता है कि हे (देवि) = दिव्य गुणोंवाली! (इष्टके) = यज्ञ के स्वभाववाली पत्नि! (या) = जो तू (शतेन प्रतनोषि) = हमारी आयुओं को सौ वर्ष के परिमाण में फैलानेवाली होती है और (सहस्त्रेण विरोहसि) = हमारे वंश को हज़ारों पीढ़ियों तक बढ़ानेवाली होती है (तस्याः ते) = उस तुझे (वयम्) = हम (हविषा) = सब सौंपकर तेरे द्वारा दिये हुए को खाने से (विधेम) = आदर करते हैं। पत्नी का सच्चा आदर यही है कि उसे ही गृह की 'साम्राज्ञी' समझा जाए। घर का सारा प्रबन्ध उसी के अधीन हो। वही व्यवस्थापिका हो । ३. इस व्यवस्था के होने पर घरों से यज्ञों का विलोप नहीं होता, परिणामतः उत्तमता का भी विलोप नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ- पत्नी घर में यज्ञों की प्रवर्तिका, इष्टका है। यज्ञों द्वारा घर में दिव्य गुणों के व्यवस्थापन से यह देवी है। हम अपना सब धन इन्हें सौंपकर उनसे दिये गये को खाकर ही इनका समुचित आदर करते हैं। वे हमारे दीर्घ जीवन का कारण बनती हैं और वंश को विच्छिन्न नहीं होने देतीं। -
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शेकडो प्रकारच्या विटांनी हजारो प्रकारची घरे बनविली जातात व सर्वांना ती सुखकारक ठरतात, तसेच ज्या श्रेष्ठ स्त्रिया पुत्र-पौत्रांचे ऐश्वर्य देऊन व नोकरचाकर इत्यादींद्वारे सर्वांना आनंदी करतात त्यांचा पुरुषांनी सदैव सत्कार करावा. कारण श्रेष्ठ पुरुष व स्त्रिया यांच्याशिवाय शुभ गुणांनी युक्त अशी संताने कधीही होऊ शकत नाहीत व अशा संतानांशिवाय माता व पिता यांना सुख कसे मिळू शकेल?
विषय
स्त्री कशी असावी, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (इष्टके) विटेप्रमाणे दृढ अंगें असलेल्या आणि शुभगुणवती हे (देवि) दीप्तिमान स्त्री, ज्याप्रमाणे शेकडो वा हजारोंच्या संस्थेत असलेली वीट घराचा विस्तार करते वा निर्माण करते, त्याप्रमाणे (तू अशी आहेस की) (या) जी आम्हा गृहाश्रमीक पतिगणांसाठी (रातेन) शेकडो पुत्र, पीत्र आदी व संपत्तीचा (प्रतनोषि) विस्तार करतेस (स्त्रीमुळेच पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदी रुपाने वंशाचा विस्तार होतो) तसेच हे स्त्रीत तू (सहस्रेण) हजार प्रकारच्या पदार्थांनी (विरोहसि) ग्रहाला विविधप्रकारे वाढवतेस. (तस्या:) अशा गुणवती असलेल्या (ते) तुझी (वयम्) आम्ही (पतिगण) (हृविषा) भेट देण्यास योग्य वा गृहाश्रमासाठी आवश्यक पदार्थांद्वारे (विधेम) सेवा करतो. (तुझा सहकार्य देतो व तुझी स्तुती करतो. ॥21॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपना अलंकार आहे. जसे शंभर, हजार म्हणजे अधिक विटांनी तयार झालेले घर सर्व लोकांना सुख-सोय देते, तद्वत श्रेष्ठ स्त्रियांनी घराला (वंशाला) पुत्र, पौत्र, ऐश्वर्य, सेवक आदींद्वारे घरातील सर्वांना प्रथम ठेवावे. घरातील पुरुषांनी (पतींनी) अशा स्त्रियांना नेहमी सत्कार-सम्मान करावा, कारण की श्रेष्ठ पुरुष आणि स्त्रियांच्या संग-सहकार्याविना शुभगुणवान संतती उत्पन्न होणे कदापि शक्य नाही आणि गुणवान संतती असल्याशिवाय आई-वडिलांनादेखील सुख मिळणे कधीतरी शक्य आहे का? ॥21॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O beautiful, well-built woman, just as hundreds and thousands of bricks build and magnify a house, so dost thou increase our family with hundreds of sons and grandsons, and profusely enrich it with thousands of articles. We serve thee with nice presents.
Meaning
Lady light of the home, root and foundation of the yajna of family life, as you grow a hundred-fold and then you rise a thousand-fold, O noble and generous mother, we offer you love and reverence in homage with the best fragrant offerings.
Translation
To you, who spread into a hundred branches and grow out into a thousand shoots, O goddess of our desire, we offer our oblations of worship. (1)
Notes
Istaka, a brick. Also, इष्टकारिणी इष्टानां पूरयित्री वा, fulfiller of our desires. Also, object of our desires.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ সা কীদৃশী ভবেদিত্যাহ ॥
পুনঃ সে কেমন হইবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (ইষ্টকে) ইট সদৃশ দৃঢ় অবয়ব যুক্ত শুভ গুণে শোভায়মান (দেবি) প্রকাশযুক্ত স্ত্রী ! যেমন ইট শত শত সংখ্যা দ্বারা গৃহাদির বিস্তার এবং সহস্র সংখ্যা দ্বারা বিবিধ রূপে বৃদ্ধি করে সেইরূপ (য়া) তুমি আমাদিগকে (শতেন) শত শত পুত্র-পৌত্রাদি সম্পত্তি দ্বারা বিস্তারযুক্ত কর এবং (সহস্রেণ) সহস্র সহস্র প্রকারের পদার্থ দ্বারা (বিরোহসি) বিবিধ প্রকার বৃদ্ধি কর (তস্যাঃ) সেই (তে) তোমাকে (হবিষা) প্রদান করিবার যোগ্য পদার্থ দ্বারা (বয়ম্) আমরা (বিধেম) সেবা করিব ॥ ২১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন শত শত, সহস্র সহস্র ইট গৃহাকার হইয়া সমস্ত প্রাণীকে সুখ প্রদান করে সেইরূপ যে শ্রেষ্ঠ স্ত্রীগণ পুত্র, পৌত্র, ঐশ্বর্য্য ও ভৃত্যাদি দ্বারা সকলকে আনন্দ প্রদান করিবে তাহাদিগের পুরুষগণ নিরন্তর সৎকার করিবে কেননা শ্রেষ্ঠ পুরুষ ও মহিলাদিগের সঙ্গ বিনা শুভগুণ যুক্ত সন্তান কখনও উৎপন্ন হইতে পারে না এবং এমন সন্তানগণ ব্যতীত মাতা-পিতা কি কখনও সুখী হইতে পারে? ২১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়া শ॒তেন॑ প্রত॒নোষি॑ স॒হস্রে॑ণ বি॒রোহ॑সি ।
তস্যা॑স্তে দেবীষ্টকে বি॒ধেম॑ হ॒বিষা॑ ব॒য়ম্ ॥ ২১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়া শতেনেত্যস্যাগ্নির্ঋষিঃ । পত্নী দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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