यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 54
ऋषिः - उशना ऋषिः
देवता - प्राणा देवताः
छन्दः - स्वराड् ब्राह्मी जगती
स्वरः - निषादः
125
अ॒यं पु॒रो भुव॒स्तस्य॑ प्रा॒णो भौ॑वा॒यनो व॑स॒न्तः प्रा॑णाय॒नो गा॑य॒त्री वा॑स॒न्ती गा॑य॒त्र्यै गा॑य॒त्रं गा॑य॒त्रादु॑पा॒शुरु॑पा॒शोस्त्रि॒वृत् त्रि॒वृतो॑ रथन्त॒रं वसि॑ष्ठ॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॑ प्राणं गृ॑ह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। पु॒रः। भुवः॑। तस्य॑। प्रा॒णः। भौ॒वा॒य॒न इति॑ भौवऽआ॒य॒नः। व॒स॒न्तः॒। प्रा॒णा॒य॒न इति॑ प्राणऽआ॒य॒नः। गा॒य॒त्री। वा॒स॒न्ती। गा॒य॒त्र्यै। गा॒य॒त्रम्। गा॒य॒त्रात्। उ॒पा॒शुरित्यु॑पऽअ॒ꣳशुः। उ॒पा॒शोरित्यु॑पऽअ॒ꣳशोः। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। त्रि॒वृत॒ इति॑ त्रि॒ऽवृतः॑। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। वसि॑ष्ठः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। प्रा॒णम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाभ्यः॑ ॥५४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयम्पुरो भुवस्तस्य प्राणो भौवनायो वसन्तः प्राण्यनो गायत्री वासन्ती गायत्र्यै गायत्रङ्गायत्रादुपाँशुरुपाँशोस्त्रिवृत्त्रिवृतो रथन्तरँवसिष्ठऽऋषिः । प्रजापतिगृहीतया त्वया प्राणङ्गृह्णामि प्रजाभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। पुरः। भुवः। तस्य। प्राणः। भौवायन इति भौवऽआयनः। वसन्तः। प्राणायन इति प्राणऽआयनः। गायत्री। वासन्ती। गायत्र्यै। गायत्रम्। गायत्रात्। उपाशुरित्युपऽअꣳशुः। उपाशोरित्युपऽअꣳशोः। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। त्रिवृत इति त्रिऽवृतः। रथन्तरमिति रथम्ऽतरम्। वसिष्ठः। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। प्राणम्। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रजाभ्यः॥५४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः सृष्टेः सकाशात् के क उपकारा ग्राह्या इत्याह॥
अन्वयः
हे स्त्रि! यथाऽयं पुरो भुवोऽग्निस्तस्य भौवायनः प्राणः प्राणायनो वसन्तो वासन्ती गायत्री गायत्र्यै गायत्रं गायत्रादुपांशुरुपांशोस्त्रिवृत् त्रिवृतो रथन्तरं वसिष्ठ ऋषिश्च प्रजापतिगृहीतया त्वया सह प्रजाभ्यः प्राणं गृह्णामि तथा त्वया साकमहं प्रजाभ्यो बलं गृह्णामि॥५४॥
पदार्थः
(अयम्) अग्निः (पुरः) पूर्वम् (भुवः) यो भवति सः (तस्य) (प्राणः) येन प्राणिति सः (भौवायनः) भुवेन सता रूपेण कारणेन निर्वृत्तः (वसन्तः) यः सुगन्धादिभिर्वासयति (प्राणायनः) प्राणा निर्वृत्ता यस्मात् (गायत्री) या गायन्तं त्रायते सा (वासन्ती) वसन्तस्य व्याख्यात्री (गायत्र्यै) गायत्र्याः। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी (गायत्रम्) गायत्र्येव छन्दः (गायत्रात्) (उपांशुः) उपगृहीता (उपांशोः) (त्रिवृत्) यस्त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैर्वर्त्तते सः (त्रिवृतः) (रथन्तरम्) यद्रथै रमणीयैस्तारयति तत् (वसिष्ठः) अतिशयेन वासयिता (ऋषिः) प्रापको विद्वान् (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापतिर्गृहीतो यया स्त्रिया तया (त्वया) (प्राणम्) बलयुक्तं जीवनम् (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः)। [अयं मन्त्रः शत॰८.१.१.४-६ व्याख्यातः]॥५४॥
भावार्थः
स्त्रीपुरुषा अग्न्यादिपदार्थानामुपयोगं कृत्वा परस्परं प्रीत्याऽतिविषयासक्तिं विहाय सर्वस्माज्जगतो बलं संगृह्य प्रजा उत्पाद्याः॥५४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मनुष्यों को सृष्टि से कौन-कौन उपकार लेने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्रि! जैसे (अयम्) यह (पुरो भुवः) प्रथम होने वाला अग्नि है, (तस्य) उसका (भौवायनः) सिद्ध कारण से रचा हुआ (प्राणः) जीवन का हेतु प्राण (प्राणायनः) प्राणों की रचना का हेतु (वसन्तः) सुगन्धि आदि में बसाने हारा वसन्त ऋतु (वासन्ती) वसन्त ऋतु का जिस में व्याख्यान हो, वह (गायत्री) गाते हुए का रक्षक गायत्रीमन्त्रार्थ ईश्वर (गायत्र्यै) गायत्री मन्त्र का (गायत्रम्) गायत्री छन्द (गायत्रात्) गायत्री से (उपांशुः) समीप से ग्रहण किया जाय (उपांशोः) उस जप से (त्रिवृत्) कर्म, उपासना और ज्ञान के सहित वर्त्तमान फल (त्रिवृतः) उस तीन प्रकार के फल से (रथन्तरम्) रमणीय पदार्थों से तारने हारा सुख और (वसिष्ठः) अतिशय करके निवास का हेतु (ऋषिः) सुख प्राप्त कराने हारा विद्वान् (प्रजापतिगृहीतया) अपने सन्तानों के रक्षक पति को ग्रहण करने वाली (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) सन्तानोत्पत्ति के लिये (प्राणम्) बलयुक्त जीवन का ग्रहण करते हैं, वैसे तेरे साथ मैं सन्तान होने के लिये बल का (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥५४॥
भावार्थ
हे स्त्री-पुरुषो! तुम को योग्य है कि अग्नि आदि पदार्थों को उपयोग में ला के परस्पर प्रीति के साथ अति विषयसेवा को छोड़ और सब संसार से बल का ग्रहण करके सन्तानों को उत्पन्न करो॥५४॥
विषय
दिशा भेद से प्राण भेद से, और ऋतुभेद से राजा, आत्मा और सूर्य संवत्सर, बलों विद्वानों और यज्ञागों के अनुरूप राष्ट्रागों का वर्णन ।
भावार्थ
( अयम् ) यह अग्निस्वरूप वाला ( पुरः ) पूर्व दिशा से और ( भुवः ) सबका मूल कारण स्वयं सत् रूप से विद्यमान था । ( तस्य ) उसका ही यह सामर्थ्य स्वरूप ( प्राणः) प्राण है। इसी से वह ( भौवायनः ) 'भु' का अपत्य उससे उत्पन्न होने से 'भौवायन' कहाता है | ( प्राणायन ) प्राण से उत्पन्न होने वाला (वसन्तः) 'वसन्त' | अर्थात् प्राणों से वह तत्व उत्पन्न हुआ जिसमें समस्त जीव बसते हैं। ( वासन्ती गायत्री) 'वसन्त' सबको बसाने वाले तत्व से 'गायत्री', प्राणों की रक्षा करने वाली शक्ति या वाणी उत्पन्न हुई । (गायत्र्यै गायत्रम् ) गायत्री शक्ति से गायन अर्थात् प्राण रक्षक बल उत्पन्न हुआ ( गायत्राद् उपांशुः ) गायत्र बल से 'उपांशु' नाम प्राण उत्पन्न हुआ ( उपांशी: त्रिवृत्) उपांशु प्राण से त्रिवृत नामक प्राण उत्पन्न होता है । (त्रिवृतः रथन्तरम् ) त्रिवृत् नाम प्राण से रथन्तर नाम प्राण का बल जिससे इन्द्रियों में ग्राह्य विषय ग्रहण किये जाते हैं यह उत्पन्न होता है। उन सबका ( ऋषिः ) प्रवर्तक और द्रष्टा ( वसिष्ठः ) सब प्राणों में मुख्य रूप से वसने वाला 'प्राण' वसिष्ट कहना है । हे चितिशक्ते ! या हे वाणि ! (प्रजापतिगृहोतया) प्रजा के पालक मुख्य प्राण द्वारा वशीकृत ( त्वया ) तुझ द्वारा मैं ( प्रजाभ्यः ) प्रजाओं के (प्राणं गृहणामि) प्राण को वश करता हूँ । शत० ८।१।१।१-६॥ राजा और राष्ट्र-पक्ष में - यह प्राण राजा 'भुव' है। उसके प्राण रूप अमात्य आदि 'भौवायन' है। उनमें उत्तरोत्तर वसन्त गायत्री, ( सेना ) गायत्र. ( बल) उपांशु. ( सेनापति त्रिवत् त्रिवर्ण रथन्तर, रथ बल उत्पन्न होते हैं। सबका द्रष्टा मुख्य राजा का पुरोहित ' वसिष्ठ' है । प्रजापति, प्रजा के पालक राजा से वशीकृत तुझ प्रजा या पृथिवी से म प्राण को या अन्न को प्रजा के हितार्थ प्राप्त करता हूँ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्राण देवताः । विश्वकर्मा ऋषिः । स्वराड् ब्राह्मी जगती । निषादः ॥
विषय
अग्नि [पुरो भुवः ] प्राण- ग्रहण - वसिष्ठ
पदार्थ
१. (अयम्) = यह (पुरः भुवः) = पूर्व दिशा में होनेवाला अग्नि है [ भवति सर्वरूपेण, भवत्यस्मत् सर्वमिति वा भुवः अग्निः - श० ८|८|१|४| अग्निर्वै पुरः प्राञ्चं ह्यग्निमुद्धरन्ति प्राञ्चमुपचरन्ति, अग्निर्वै भुवः, अग्नेर्हीींदं सर्वं भवति] वस्तुत: यह मनुष्य को अग्नितुल्य बनने का उपदेश दे रहा है। जब मनुष्य अपने अन्दर वीर्य की रक्षा करता है तब यह अग्नितत्त्व ठीक बना रहता है। २. (तस्य) = उसी अग्नि का अपत्य (प्राणः) = प्राण है। इसी से (भौवायनः) = भुव का अपत्य कहलाता है। अग्नि तत्त्व के अनुपात में ही प्राणशक्ति बनी रहती है। ३. (प्राणायन:) = प्राण का पुत्र (वसन्तः) = वसन्त है। प्राणशक्ति के होने पर इसके जीवन में सर्वशक्तियों के पुष्प फलों का विकास होता है। अथवा इस शरीर में इसका उत्तम निवास इस प्राणशक्ति से ही होता है। ४. (वासन्ती) = इस वसन्त की सन्तान (गायत्री) = इस शरीररूप गृह की रक्षिका है। [गय = गृह ] । शरीर में सब अङ्गों की शक्तियों का समुचित निवास होने पर ही इस शरीररूप गृह की रक्षा सम्भव है । ५. (गायत्र्यै) = [ गायत्र्यः] इसी गायत्री से, शरीर - रक्षा से (गायत्रम्) = 'गायत्रसाम' उत्पन्न होता है। वह शान्ति उत्पन्न होती है जिसका मूल शरीर रक्षा ही है। स्वस्थ शरीर में ही वस्तुतः स्वस्थ व शान्त मन का निवास है। ६. (गायत्रात्) = स्वास्थ्यजनित शान्ति से ही वस्तुतः (उपांशुः) = [उप + अंशु] उस परमेश्वर की उपासना द्वारा ज्ञान-किरणें उपलब्ध होती हैं। ७. (उपांशो:) = उपासना द्वारा प्राप्त ज्ञान-किरणों से (त्रिवृत्) = धर्म, अर्थ व काम तीनों का सुन्दर वर्त्तन होता है [त्रि+वृत्] [धर्मार्थकामाः सममेव सेव्याः] ८. (त्रिवृत्) = इस धर्मार्थकाम के समानुपात में होने से अथवा 'ज्ञान-कर्म-उपासना' के ठीक रूप में चलने से (रथन्तरम्) = इस शरीररूप रथ से जीवन यात्रा की पूर्ति [ भवसागर को तैर जाना] होती है । ९. रथन्तर सामवाला व्यक्ति 'वसिष्ठ ऋषि' [अतिशयेन वसति ] अत्यन्त उत्तम निवासवाला - प्राणशक्ति-सम्पन्न [प्राणो वै वसिष्ठः - श० ८।१।१।६] तत्त्वद्रष्टा है । १०. यह तत्त्वद्रष्टा पत्नी से कहता है कि (प्रजापतिगृहीतया) = [प्रजापतिः गृहीतो यया ] मुझ प्रजापति का ग्रहण करनेवाली (त्वया) = तेरे साथ (प्राणं गृह्णामि) मैं प्राणशक्ति का ग्रहण करता हूँ, जिससे (प्रजाभ्यः) = हम उत्तम सन्तानों को प्राप्त करें। पत्नी उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाले पति को स्वीकार करे। दोनों ने मिलकर उत्तम सन्तानों को जन्म देना है। इसी उद्देश्य से वे अपनी प्राणशक्ति का निरोध करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम पूर्व दिशा के अधिपति अग्नि को अपनाकर अपने में प्राणशक्ति का धारण करते हुए उत्तम प्राणशक्ति सम्पन्न सन्तानों को जन्म देनेवाले बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
हे स्त्री-पुरुषांनो ! अग्नी वगैरे पदार्थांना उपयोगात आणा. परस्पर प्रेमाने राहून अत्यंत विषयवासनेचा त्याग करून शक्तिमान बनून संताने उत्पन्न करा.
विषय
मनुष्यांनी सृष्टीपासून (निसर्गापासून) कोणकोणते लाभ घ्यावेत, याविषयी पुढील मंत्रात प्रतिपादन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (एक पती आपल्या पत्नीस उद्देशून) हे पत्नी, (अयम्) हा (पुरोभुव:) पूर्व उत्पन्न (प्राण:) हा प्राण जीवनाचा हेतू वा उद्देश्य आहे. (प्राणायन:) प्राणांच्या उत्पत्तिचा हेतू (प्राणदायक) आहे हा (वसन्त:) सर्वत्र सुगंधीमुळे सुवासिक झालेला हा वसन्त ऋतू. या वसंत ऋतूमधे (वासन्ती) वसंत ऋतूच्या प्रशंसेविषयी ज्या मानत वर्णन आहे, त्या (गायत्री) मंत्रांचा जप करणाऱ्याचे प्राण म्हणजे रक्षण करणारा आहे परमेश्वर. त्या परमेश्वराचा (गायत्र्यै) गायत्री मंत्राद्वारे आणि (गायत्रम्) गायत्री छंदाद्वारे (गायत्रात) गान केल्यामुळे (उपांशु:) त्या परमेश्वराचा जवळूनच (मनातच) जप जाप करता येतो. (उपांशो:) ज्या जपामुळे (त्रिवृत्) कर्म, उपासना व ज्ञान यांच्यासोबत असणारे त्यांचे (त्रिवृत्त:) तीन प्रकारचे फळ प्राप्त होतात. त्या फळांमुळे (रथन्तरम्) रमणीय पदार्थ आणि सुख (वसिष्ठ:) निवासाचे/उत्तमस्थान आणि (ऋषि:) सुखकारी विद्वान (प्राप्त होतो) (ते विद्वान ज्याप्रमाणे प्राण व बल धारण करतात) मी तुझ्या संतानांचा रक्षक पती आणि (प्रजापतिगृहीतया) त्या पतीचा प्रेमाने स्वीकार करणारी तू, मी (त्वया) तुझ्यासह (प्रजाभ्य:) संतानप्राप्तीकरिता (प्राणम्) बल व प्राणशक्ती (गृह्णामि) धारण करतो. ॥54॥
भावार्थ
भावार्थ - हे स्त्रियांनो, हे पुरुषांनो, तुम्हास योग्य आहे की अग्नी आदी पदार्थांचा उपयोग करून लाभ घ्या. आपसात प्रीतीने रहा. अति विषयसेवी होऊ नका आणि या सृष्टीतील पदार्थांपासून शक्तीसंचय करून श्रेष्ठ संतती उत्पन्न करा. ॥54॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O wife, this fire is primordial. It is the cause of Pran (breath), the source of life. Spring is the result of Pran. Spring is the cause of Gayatri, whereby we sing the praise of God. From the Gayatri comes the Gayatri metre. From the Gayatri comes the prayer. From the prayer come action, contemplation, and knowledge (Karma, Upasana and Jnana). As the fruit of these three comes the pleasure of liberation (Moksha). A learned person is the cause of producing intense pleasure like Pran. Thou accept me as thy husband, the protector of progeny. I gain strength to create offspring from thee.
Meaning
This Agni, universal spirit, is the first and foremost in existence, the eastern horizon of the world. Its offspring is prana, vital energy, life-breath of existence. The offspring of prana is spring. The song of spring is gayatri, joy. Joy is the music of spring from gayatri, the gayatra saman, soft, sweet and low. From gayatra, the upanshu, the receiver of soma, ladle for libation. And from the upanshu, creation of trivrit, the person dedicated to trivrit, threefold integrated Dharma of knowledge, action and prayer. From trivrit, the successful man, sociable, visionary and saviour. Woman of knowledge, virtue and love, blest by Prajapati, lord of creation, along with you I receive the vital energy of prana for the sake of children and family.
Translation
This, in front, is the Bhuvah (the fire, existing everywhere). (1) The offspring of that Bhuvah is the Prana (the vital breath). (2) The offspring of the Ргапа is Vasanta (the spring season). (3) The daughter of Vasanta is the Gayatri metre. (4) From the Gayatri, the Gayatra Ѕаman. (5) From the Gayatra, upamsu. (6) From the Upamsu, the Trivrt hymn (of 3 x 3=9 verses). (7) From the Trivrt hymn, the Rathantara, Saman. (8) Vasistha is the seer. (9) With you taken from the creator Lord, I secure Prana (the life) for our progeny. (10)
Notes
Іп ritual, the sacrificer lays fifty prānabhrt bricks, two at a time with a formula for each set and ten for each kandikā. Purah, in front of. Also, in the East. Bhuvah, भवति सर्वरूपेण इति भवत्यस्मात् सर्वं इति वा भुव:, that exists in every form, or each and everything is born of it, i. e. agni, the fire, Bhauvayanah, भुवस्य अपत्यं , the offspring of bhuvah. Pranayanah, प्राणस्य अपत्यं, the offspring of prana, the vital breath. Upamsu, उपांशु ग्रह: the first ladleful of Soma juice pressed out with low voiced recitations. In this and the following four kandikis, a region is mentioned, e. g. East, South, West, North and Above. Then as tts offspring some season is mentioned. The offspring of that season is some metre, e. g. Gayatri etc. The offspring of that metre is some saman, such as gayatram etc. From that атап is born some graha, a measure of Soma juice, e. g. updmsu. From that graha is bom some stoma, a praise-song, such as trivrt stoma, From that stoma is born a prstham, a particular arrangement of samans, e. g. rathantaram prstham. After this a rsi, seer is mentioned. He is not born from the preceding prstham, but he is merely mentioned. Thereafter some faculty is mentioned which the sacrificer prays to obtain from all this assembly of regions. seasons, metres etc. such as pránam, manah, etc. Logic of all this arrangement is difficult to understand and still more difficult to make others understand though the Satapatha and the commentators have tried hard to put up some convincing explanation. Even the names of the rsis have been interpreted etymologically. Vasistha, Bharadvaja, Jamadagni, ViSvimitra and Vi$vakarmáà have been analyzed etymologically. Vasisthah, वसति अधितिष्ठति सर्वजंतून् इति वस्ता अतिशयेन वस्ता वसिष्ठ: सर्वाधार: that which resides in all the living beings; best among them; the support and sustainer of all. प्राणौ वै वसिष्ठ:, vital breath is verily vasistha.
बंगाली (1)
विषय
অথ মনুষ্যৈঃ সৃষ্টেঃ সকাশাৎ কে ক উপকারা গ্রাহ্যা ইত্যাহ ॥
এখন মনুষ্যদিগকে সৃষ্টি হইতে কী কী উপকার লওয়া উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! যেমন (অয়ম্) এই (পুরো ভুবঃ) পূর্বজাত অগ্নি (তস্য) তাহার (ভৌবায়নঃ) সিদ্ধ কারণপূর্বক রচিত (প্রাণঃ) জীবনের হেতু প্রাণ, (প্রাণায়নঃ) প্রাণের রচনার হেতু (বসন্তঃ) সুগন্ধি ইত্যাদিতে নিবাসকারী বসন্ত ঋতু, (বাসন্তী) বসন্ত ঋতুর যন্মধ্যে ব্যাখ্যান হয় সে (গায়ত্রী) গায়নকারীর রক্ষক গায়ত্রী মন্ত্রার্থ ঈশ্বর (গায়ত্রৈ) গায়ত্রী মন্ত্রের (গায়ত্রম্) গায়ত্রী ছন্দ (গায়ত্রাৎ) গায়ত্রী দ্বারা (উপাংশু) সমীপ হইতে গ্রহণ করা হয় (উপাংশোঃ) সেই জপ দ্বারা (ত্রিবৃৎ) কর্ম উপাসনা ও জ্ঞান সহিত বর্ত্তমান ফল (ত্রিবৃতঃ) সেই তিন প্রকারের ফল দ্বারা (রথন্তরম্) রমণীয় পদার্থ দ্বারা তারণকারী এবং (বসিষ্ঠঃ) অতিশয় করিয়া নিবাসের হেতু (ঋষিঃ) সুখ প্রাপ্তকারক বিদ্বান্ (প্রজাপতিগৃহীতয়া) স্বীয় সন্তানদিগের রক্ষক পতিকে গ্রহণকারিণী (ত্বয়া) তোমার সঙ্গে (প্রজাভ্যঃ) সন্তানোৎপত্তির জন্য (প্রাণম্) বলযুক্ত জীবনের গ্রহণ করে সেইরূপ তোমা সহ আমি সন্তান হইবার জন্য বলের (গৃহ্নামি) গ্রহণ করিতেছি ॥ ৫৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে স্ত্রী-পুরুষগণ ! তোমাদের উচিত যে, অগ্নি আদি পদার্থকে উপযোগিতায় আনিয়া পরস্পর প্রীতি সহ অতি বিষয়সেবা ত্যাগ করিয়া এবং সকল সংসার হইতে বল গ্রহণ করিয়া সন্তানদিগকে উৎপন্ন কর ॥ ৫৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒য়ং পু॒রো ভুব॒স্তস্য॑ প্রা॒ণো ভৌ॑বা॒য়নো ব॑স॒ন্তঃ প্রা॑ণায়॒নো গা॑য়॒ত্রী বা॑স॒ন্তী গা॑য়॒ত্র্যৈ গা॑য়॒ত্রং গা॑য়॒ত্রাদু॑পা॒ᳬंশুর॑ুপা॒ᳬंশোস্ত্রি॒বৃৎ ত্রি॒বৃতো॑ রথন্ত॒রং বসি॑ষ্ঠ॒ऽ ঋষিঃ॑ প্র॒জাপ॑তিগৃহীতয়া॒ ত্বয়া॑ প্রা॒ণং গৃ॑হ্ণামি প্র॒জাভ্যঃ॑ ॥ ৫৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অয়ং পুর ইত্যস্যোশনা ঋষিঃ । প্রাণা দেবতাঃ । স্বরাড্ ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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